Tuesday, 30 May 2017







विसहिनवाँ की पुण्यतिथि
भोर के सपने में आज एक आहट जब आई,
लगा, दरवाजे पर किसी ने गुहार है लगाई
फिर ठक-ठक की दस्तक संग आवाज आई,
अरे, द्वार खोलो मैं विसहिनवाँ हूँ मेरे भाई||

मैं चकित, कोई पेड़ भी सपने में आता है?
कटा पेड़ भी कोमल कोपलें निकालता है?
पर यह क्या बूढ़ी जड़ें धीरे-धीरे फैलने लगीं,
बौने पेड़ की विशाल जड़ें खड़ी होने लगीं||

मैंने पूछा कैसे मानूं तुम विसहिनवाँ  हो,
फिर उसके कोपलों से आम निकलने लगे| 
आम को देख शक विश्वास में बदल गया,
आँख आँसू ले मैं उसके गले लिपट गया||

प्यार से बैठाया, ढाढ़स दी, हाल-चाल पूछा,
सांत्वना पा वृद्ध, आश्वस्त हो कर बोला-
भैया, बहुत दिनों से मन कचोट रहा था,
किससे कहूँ, कैसे कहूँ यही सोच रहा था |

मेरी जिज्ञासा जागी, कहा बेफिक्र हो कहो
  अपनी कथा कहो, व्यथा है वह भी बताओ|  
तुम्हारी छाँव में साँस ली, विश्राम किया है,
स्वादिष्ट फल चखे हैं, हम तुम्हारे ऋणी हैं||

वृद्ध ने एक लम्बी साँस ली, शुरुवात की,
तुम्हारे पूर्वजों ने हम तेरह को जन्म दिया|
धूप, गर्मी सह गोपालतरां हरा-भरा किया,
 इस भीट पर सींचा, पाला-पोषा, बड़ा किया||

फिर एक सिरफिरे ने दस को वध दिया
क्योंकि उसे शादी में जाने से मना किया|
दस का गम झेल दिन-रात बड़े होने लगे,
      पहली बार बौराये, हम मस्ती में झूमे गाए||     

नाम का क्या, ऊल-जुलूल भी हो सकते हैं,
मुझको ही देखो, मुझे विसहिनवाँ कहते हैं||
हमारे फलों को देख हमें अपना नाम मिला,
छोटका चौरिहवा, कलुआ करियवा कहलाया|

दिन गुजरते गए, हम बड़े और बड़े होते गए,
तुम्हारी कई पीढ़ियों से हमारे रिश्ते जुड़ गए|
 खेतों में काम कर लोग परिश्रांत जब हो जाते,
  मेरी छाया में बैठ स्वेद सुखाते, गप्पें लगाते||  

वक़्त के साथ हम बड़े से विशाल हो गए,
क्या दंगल पेड़ है! पड़ोसी ऐसा कहने लगे|
पास के बाग-बगीचों में मेरी धाक जम गई,
दूर-पथिकों में मेरी पहचान लैंडमार्क हो गई||

याद है? बड़ों के कंधे बैठ वो हाथ उचकाना,
मेरा भी मेरी टहनियों को ऊपर-नीचे हिलाना|
पत्तों और आमों को छू कर ही खिल-खिलाना,
  मधुर था वृद्ध और बालक का रिश्ता बनाना||  

फिर पके आमों पर निशाने की होड़ शुरू हुई,
मैं तब मुस्कराता रहा, जब कभी तकरार हुई|
आमों को तोड़ खांचे में रख, मेरा पाल पकाया,
मैंने भी कसर नहीं छोड़ी, खूब स्वाद चखाया||

 कुछ आम फिर भी रह जाते थे छुपे डाली में,
 पक्षियों से बच गिरते नीचे पोखरी के पानी में|
  दूर बैठे बच्चों में उन्हें ढूढ़ने की होती थी ललक,
   मुझे भी इस खेल को देखने की होती थी तलब||

मेरे नीचे ही पानी में होती थी सनई की धुलाई,
 घास की धुलाई और उसके अनेक ढेर की सुखाई|
मैं इन सब का प्रत्यक्ष गवाह था, रक्षक भी था,
तुम्हारे लिए ताज़ा वायु श्रोत और प्रहरी भी था||

पखेरुओं का होता था बसेरा हमारी डालों पर,
उनके कलरव से रखते थे नज़र समय पर |
वे हमारे संदेश वाहक थे हमारे बंधुओं तक,
हाय! सब दूर हो गए जो हमारे थे कल तक||


हर सुख-दुःख में, पूजा-पाठ में साथ निभाया,
अपनी सूखी टहनियों को हवन-कुंड में जलाया|
शादी-व्याह, मौके-दर मौके  डालें भी कटवाई,
हमसे क्या भूल हुई, हमें सहनी पड़ी रुसवाई||

क्या नहीं किया हमने तुम्हारी भलाई के लिए?
पर तुमने सब कुछ भुला दिया मतलब के लिए|
सभी के हम, हम पर क्यों अधिकार की लड़ाई,
फिर भी तुम्हारी ज़िद ने कर डाली हमारी कटाई|

रोया, आहें भरी, सिसकियों को नज़रंदाज़ किया
आरे से मुझ पर नहीं, अपनों पर ही वार किया|
हमारी बलि देकर हमें अकाल मौत क्यों दे दिया,
एहसान फरामोश मानव हमें क्यों नर्क भेज दिया||


तुम तो खुद मरते हो, हमें क्यों यह गौरव नहीं?
यह निर्दयता क्यों? यह हमारी नियति भी नहीं|
हमारा कुछ न बिगड़ेगा, खुद की जड़ें मत काटो,
नफ़रत और स्वार्थ छोड़ प्यार पाओ, प्यार बांटो||

आज तुम्हारी पुण्य-तिथि है, इसलिए बहक रहे हो,
विसहिनवाँ जोर से हँसा, मैंने पूछा हँस क्यों रहे हो?
 वृक्षों की पुण्य-तिथि? जन्म-दिन? क्या कभी सुना है?
अनुष्ठान करो, किसी अपने की, आज पुण्य-तिथि है||

-राय साहब पाण्डेय
26.05.2017
     विसहिनवाँ  पर्यावरण का एक प्रतीक है |

Saturday, 27 May 2017

एक श्रद्धांजलि





गुलाब देवी (22.05.2017)
हम सबकी फुआ भी माँ भी 
-1932-26.05.2017

श्रद्धांजलि
खुली आँख अब देख न पाएंगे
पर बंद आँख में सदा बसायेंगे,
वश में करती वह आँखें निश्छल ,
केश धवल, मन मंदिर निर्मल |

दिल का द्वार पटल खोल कर
हाथ शीश धर, चित्त खोलकर,
‘खुशी रहो’, देतीं आशीष प्रबल
  सब को करतीं हर्षित विह्वल |

श्वेत वस्त्र धर, द्वार बैठ कर
करुणामयी, ममता की मूरत,
सबके सुख में खुश रहने वाली,
महके सीरत और चमके सूरत| 

लेकर जिनके चरण धूलि को
करते रहते थे हम अभिवादन,
कोटि नमन, करते मिल हम  
शांति प्रदान करें परमात्मन् |


पाण्डेय एवं मिश्र परिवार की ओर से श्रद्धा सुमन

                                      -राय साहब पाण्डेय

Wednesday, 24 May 2017







Unparalleled Revenge in Indian Epics

Part III: Draupadi – a victim of adharma in tradition
Ray Saheb Pandey
Attempt to disrobe the princess Panchali, the queen of Indraprasth was thwarted by the divine intervention of the Kuru court in the presence of the king Dhritrashtra, the triumvirate of elders and perpetrators of adharna. None except Vidura, the prime minister of Hastinapur in the council of Dhritrashtra and Pandu, spoke about the adharna that was committed. Vidura rose impatiently and declared in a poignant yet stern voice, “O! Duryodhana even now it is not too late. You have no realization of the hazard you are letting yourself in. Only the fool thinks he is in paradise when he hangs over a ledge with a noose round his neck. You will be punished for the crime you are committing today. The most terrible nemesis awaits you. Succumb while there is still time. Restore everything you have won with Shakuni’s deceit. The jackal never challenges the lion. You must never think of Draupadi as being your slave. You treat this dice game as a cruel joke and forget it was ever played.”

What Vidura spoke is loud and explicit. This is dharma, irrespective of the result of a dice game. 

To a pointed question of Draupadi to the court, “Who was lost first on the wager in the dice game? Was it Yudhisthir or me?” None of the Pandavas spoke. Bheeshma, however, uttered about the right of the husband over wife and cited the subtleness of dharma. In the words of Bheeshma, “It is a finer point of dharma. On one hand, when a man has lost himself already he may no longer wager anyone else. On the other, a man has right over his wife, whether he is free or not. It is hard to say if you are free or a slave.”

 Draupadi, was naturally not convinced and refused to accept that she was a dasi (a female slave). The question arose whether wife, son or daughter of a slave was also a slave? No one in the court was sure. If no one was sure, was it naturally justified for the elders to see that a woman’s chastity was openly plundered?   Even assuming Draupadi was not a free woman or became a dasi, was she not entitled to her will? Was it a part of the tradition to treat the woman of a slave to be a slave and be subjected to all kinds of humiliation?

When the king Dhritrashtra, held by the firm terror of evil omens and the pledges of Bheema, Arjuna Sahdeva and Nakula said, “Panchali, my foolish son has done an unforgivable thing today. To atone for it, I grant you any boon you want. Just ask and it shall be yours.” Draupadi asked for two boons only to restore freedom of her husbands and refused to take any more boons citing traditions for Kshatriya queens even if Dhritrashtra was inclined to grant more. She said, “My lord, it is greed that destroys dharma. I will ask for just two boons. It already means more than the world to me, that my husbands are free men again.” It clearly shows from the atonement of Dhritrashtra that his son did adharma yet he chose to keep silent.

When Drupad, king of Panchal was not inclined to give her daughter to all the five of Pandavas in marriage, a glaring example was cited by Yudhisthir to quell the doubts of king Drupad. He said Muni Jatila’s daughter had seven husbands and there had been many more and none of them were sinners.

Draupadi’s anger was so intense that she always kept her long hairs disheveled as a testimony of her insult and to let Pandavas never forget of the fateful Kuru Sabha. She constantly coaxed Yudhisthira in the forest to take revenge for the insult and humiliation meted out to them. Only Lord Krishna could console her and gave assurances thus:
दुर्योधनश्च कर्णस्य शकुनेश्च दुरात्मनः |
           दुशासनाचतुर्थानाम भूमि पश्यसि   || (वनपर्व)

 (the earth is thirsty and only the blood of Duryodhana, Karna, Dussasana and the wicked Shakuni will quench her thirst)
Dharma is “यत्र नार्यस्तु पुज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः” Dharma is most visible. Even a person impaired with sight could feel it. A dumb person could speak for it. A deaf could listen to it. How could the elders not feel it? 
The situation of women, whether Dwaper or Kalyug is no different. Be it queen Draupadi of Mahabharata or a tribal Draupadi (Dopadi) of Ashapoorna Devi in today’s time.


    



Tuesday, 23 May 2017

बिरहिन






बिरहिन (चैती)

चइत मासे हम अइली गवनवां ..हो रामा

पिया चलि गइलैं विदेसवां |

.......पिया चलि गइलैं |


हँसी औ ठिठोली हमैं निक नाहीं लागै

टुकुर-टुकुर हम ताके ली पईंड़िया ..हो रामा

.......पिया चलि गइलैं |


मन मोर उदासिल, नज़र पथरा गइल,

जिया तो जलावे ला ई ठंडी बयरिया ....हो रामा

.......पिया चलि गइलैं |


सास-ससुर घर सेवा में भईलीं समर्पित,

भुलाइ गईलीं अपनी सुरतिया .....हो रामा

 .......पिया चलि गइलैं |


हाथ रखि  माथे जब मिलल आशिषवा,

ख़ुशी-ख़ुशी हम भूलि गईलीं नइहरवा ......हो रामा

.......पिया चलि गइलैं |

-राय साहब पांडेय


Sunday, 21 May 2017




रिश्तों की रंगोली
परिवारों के इस हवन कुंड में
बलि का बकरा कभी न होना,
अगर कभी आफत भी आये 
रिश्तों को बलिदान न करना |
बलिदान की नौबत यदि आए
तो अहंकार की बलि दे देना,
मन-मुटाव तुम दूर ही रखना
बच्चों की आहुति मत देना |


बा-मुश्किल रिश्ते बनते हैं 
मर्यादा इनकी रखो बना कर,
आज नहीं फिर कब समझोगे
सब कुछ कर के ही न्योछावर?
हवन कुंड को प्रज्वलित रखो
निज प्रभुता की भेंट चढ़ाकर,
थोथे-घमंड से दूर ही रहना
  कलुषित मन को सदा भुलाकर|

फतह भले ही कर लो दुनियाँ
खुशी मिलेगी केवल घर पर,
कड़वाहट का स्वाद भुला दो
तकरारों की चिता जलाकर |


मतभेदों की आहुति देकर
प्रतिवादों का कर दो अंत
स्पर्धाओं को हवन बनाकर
भस्म करो रंजिशें तुरंत |

गुल गुलशन आबाद रहेगा
घर फुलवारी भी चमकेगी,
माली बन सींचो यह उपवन
फिर यह बगिया भी गमकेगी |

मानापमान, मिथ्याभिमान से
करनी होगी रिक्त यह झोली,
हो जाए अरमान भी स्वाहा, पर
जलने दो, यह रिश्तों की रंगोली |

-राय साहब पांडेय   
यह कविता सभी दंपतियों, खासकर नव-दंपतियों को समर्पित है |  

Saturday, 20 May 2017

दादियाँ गुदगदाती हैं





दादियाँ गुदगुदाती हैं

दादी सब की होती हैं | उनके सानिध्य में अप्रतिम सुरक्षा का बोध और भरोसा होता है | बच्चों को मुफ्त, बिलकुल निःस्वार्थ दुलार देती हैं | एक चुम्बन के लिए रिश्वत भी देती हैं | उनके पास किहिनी (कहानियाँ), दंतकथाओं, आख्यानों, उपाख्यानों, किवदंतियों, रिवायतें एवं आदर्श चरित्रों का ऐसा अद्भुत और अनुपम संग्रह होता है जो किसी भी बालक के कोमल मन को हमेशा-हमेशा के लिए एक मानवीय दृष्टिकोण एवं सकारात्मक नजरिया प्रदान करता है | इससे बच्चे का चारित्रिक विकास तो होता ही है, वे हमेशा के लिए राष्ट्रीय धरोहर बन जाते हैं | हमेशा तो कोई भी किसी के पास नहीं रहेगा, लेकिन यादों का क्या ये तो गुदगुदाएंगी ही | प्रस्तुत पंक्तियाँ विश्व की सभी दादियों की स्मृति में हैं |  

बात पुरानी है | अरे यह क्या, बात पुरानी तो होगी ही जब बात दादी की हो रही हो | लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता | अगर ढेर सारे नाती, पोते-पोतियाँ हों तो वही दादी किसी के लिए अधेड़ होंगी तो किसी के लिए सचमुच दादी लगने वाली | दादियाँ भी कभी-कभार गुस्सा होती हैं तो जानते हैं न क्या कहती हैं – चल हट, कलमुहे, मेरे पास तो आना ही मत, जब माँ से पिटोगे न तब भी नहीं | दादियों के भी कई प्रकार होते हैं | नाउन तो सभी दादियाँ होती ही हैं, अरे वो ‘बारबर’ वाली नहीं भाई, अंग्रेजी वाली जिसे हिंदी में संज्ञा बोलते हैं, इसके अतिरिक्त भी कई होती हैं | हाँ, यह अवश्य है कि ये सब की सब सकारात्मक सोच वाली होती हैं | माता-पिता अकसर अपने बच्चों में खोट ही देखते हैं, कमियाँ निकालने में कभी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते | हाँ, दूसरे के बच्चों में सब अच्छाई ही अच्छाई दिखती है | शायद अब ऐसा न होता हो, पर कम से कम हमारे ज़माने में तो ऐसा ही होता था | लेकिन दादियाँ बिलकुल इसके उलट होती थीं | उन्हें अपने नाती-पोते ही सबसे गुड़वान नज़र आते थे | जरा सा रोए नहीं कि पूरा घर आसमान पर उठा लेती थीं | गलती चाहे खुद उनके ही बच्चों की क्यों न हो, ओरहन (उलाहना) ले के पड़ोसी के घर पहुँच ही जाती हैं | अकसर उलाहने के बाद बच्चा और दादी दोनों खुश होकर घर लौटते थे  | उलाहने का चलन शायद  बच्चों को तसल्ली देने के लिए ही शुरू हुआ हो क्योंकि थोड़ी देर के बाद दादियों और पड़ोसी महिलाओं में आपसी सद्भाव की बातें होने लगती थीं | हाँ, कभी-कभी यह रंजिश का सबब भी बन जाया करता था |

अब तक तो आप जान ही गए होंगे कि दादियों का यह कौन सा प्रकार है | हम इसे ‘एडजेक्टिव क्लॉज़’ वाली दादी के नाम से पुकारते हैं | अधिकांश दादियाँ इसी श्रेणी में आती हैं, जी हाँ इनकी ‘डिग्री’ में फर्क हो सकता है | मसलन कुछ ‘पॉजिटिव’ कुछ  ‘कम्परेटिव’ तो कुछ ‘सुपरलेटिव’ | आप पूछ सकते हैं कि हम इन्हें पहचानेंगे कैसे?, तो मैं स्पष्ट कर दूँ कि मेरे पास इनकी कोई परिभाषा नहीं है | इसके लिए तो आपको इसे भोगना पड़ेगा, अपने अतीत में घुसना पड़ेगा और जब मुस्कराते हुए बहार आएंगे न तब परिभाषा-वरिभाषा के बारे में भूल जाएंगे | ‘पॉजिटिव’ और   ‘कम्परेटिव’ दादियाँ तो ठीक हैं, ‘सुपरलेटिव’ दादियाँ गली मोहल्ले वालों के लिए एक लैंडमार्क” होती हैं और उनके नाती-पोतों को भी सभी उनकी दादी के नाम से जानते-पहचानते हैं | जैसा मैंने पहले ही बताया कि सभी की सभी दादियाँ पॉजिटिव ही होती हैं, लेकिन एक से अधिक नाती-पोते हों तो वे अनजाने में ही, कम से कम अपने घर में, ‘कम्परेटिव’ जरूर हो जाती हैं | कभी चुन्नू ने पैर दबा दिया तो वह अच्छा हो गया, लेकिन मुन्नू रूठ गया | फिर मुन्नू को मनाये कौन? आखिर दादी को ही उठना पड़ता था | मेरी दादी भी कुछ ऐसी ही थीं | अपने बच्चे उन्हें बहुत प्यारे लगते थे, इसका मतलब यह कतई न निकालें कि दूसरे बच्चे उन्हें अच्छे नहीं लगते थे | शायद इसी लिए वे पूरे गाँव की आजी थीं | किसी के बच्चे को कोई भी मारे उन्हें हरगिज गवारा नहीं होता था |

आखिर दादी की बात है, एकाध वाकया तो होना ही चाहिए | गाँव देहात में उन दिनों बाज़ार जाना एक उत्सव से कम नहीं होता था | घर में सुबह से ही चहल-पहल हो जाती थी | महिलाएँ विशेष रूप से खुश होती थीं, आखिर कभी-कभार ही तो निकालने का अवसर मिलता था | घी, पिसान, कड़ाही और लकड़ी का गट्ठर लेकर छोटी उम्र वाली लडकियाँ मंडली में सबसे आगे होती थीं | देवी के मंदिर में रोट (हलवा-पूड़ी) जो चढ़ाना होता था | तरकारी भी बनती थी, लेकिन उसे घर से ले जाने की ज़रूरत नहीं होती थी, वह बाज़ार में ही मिल जाती थी | यह दृष्टांत तो बस ऐसे ही, मेरा वाकया यह नहीं है |  

एक दिन शाम के वक्त दादी बाज़ार के लिए तैयार हो रही थीं | तब मैं काफी छोटा था लेकिन नासमझ नहीं | बाज़ार जाना मतलब चलकर जाना, कोई अन्य साधन का सवाल ही नहीं | साइकिल के अलावा और कुछ देखा भी कहाँ था | मैंने ऐसे ही पूछ लिया- दादी मैं भी चलूँ? उन्होंने हाँ कर दी | मेरे लिए यह बिलकुल अप्रत्याशित था | एक बार में ही हाँ, यकीन नहीं आया | फिर पूछा | अरे हाँ तो कहा, ले चलूँगी | मैं सातवें आसमान पर, ख़ुशी बता नहीं सकता | आज भी सोच कर मन आदर और कृतज्ञता से ओत-प्रोत हो उठता है, आँसू आ जाते हैं यह नहीं कहूँगा | आप शायद यह समझें कि बड़ा कमजोर है | आपकी मर्जी जो समझें, लेकिन आप मुझे रोक नहीं सकते यह कहने से कि गरम-गरम आँसू आ जाते हैं | दादी और पोता निकल पड़े बाज़ार के लिए | मैं दादी के साथ कदम से कदम मिला कर कभी उनके आगे तो कभी पीछे चलता रहा | टेढ़े-मेढ़े रास्तों, बाग़-बगीचों से गुजरते हम आगे बढ़ने लगे | रास्ते काफी संकरे होते थे या यूँ कहें हम खेत की मेड़ों पर चल रहे थे | रास्ते के दोनों तरफ खेतों में चने, गेहूँ और सरसों की फसलें लहलहा रही थीं | गन्ने की पेराई और कोल्हाड़ भी चल रहे थे | गुड़ की महक भी फ़िजाओं में विद्यमान थी | लेकिन उस समय हमें इन सब से क्या लेना-देना था | यह सब तो हम रोज ही अपने गाँव में देखते थे | हमें तो बस बाज़ार पहुँचने की छटपटाहट थी | बाज़ार के नज़दीक एक गाँव देख कर मैंने दादी से कहा, “दादी, इस गाँव में ढेर सारे घर पक्के हैं |” दादी कहाँ चूकने वाली थीं, झट बोल पड़ी, “जब बड़े हो जाओगे न तब तुम भी ऐसे ही घर बनाना |” मुझे उस समय क्या पता था बड़ा होना क्या होता है!

आप जब बाज़ार के करीब पहुँचते हैं न तो अपने आप पता चल जाता है कि अब बाज़ार दूर नहीं है | कुछ पक्के घरों, दुकानों की सफेदी और उस पर इश्तहार से बाज़ार पहुँचने का अंदेशा हो जाता है | खैर, नार-खोह पार करके हम दादी के साथ बाज़ार में प्रवेश कर ही गए | दादी ने बाज़ार में क्या-क्या खरीदा, यह तो मुझे याद नहीं है और न ही इसमें मुझे उस समय कोई रुचि थी और न ही अब | सारा सामान खरीदने के बाद अंत में दादी एक कपड़े की दूकान पर पहुँची | उस समय ग्राहकों या गाँव वालों की दुकानें नियत होती थीं | आँख मूँद कर लोग ‘अपनी’ दूकान पर पहुँच जाते थे | दूकान वाला भी उधार में सामान दे देता था, यह कहते हुए कि पैसा कहाँ जाने वाला है | आप पैसे की चिन्ता न करें, बस सामान खरीदें | दादी ने कुछ किनारियाँ (किनारेदार मटमैले सफ़ेद रंग की साड़ियाँ) खरीदीं | बाद में ये साड़ियाँ पीले रंग में रंग दी जाती थीं और फिर वे पियरी बन जाती थीं | मैंने दादी से हलके से कहा, “दादी एक गंजी ले लो न |” दादी क्या करतीं? इतने दूर पैदल चलकर एक नन्हा बालक और वह भी उनका पोता एक गंजी ही तो मांग रहा था | मान गईं | दुकानदार से गंजी दिखाने के लिए कहा | गंजियाँ तो तरह-तरह की थीं, लेकिन खूँट में दाम भी तो चाहिए | उन दिनों बटुआ या पर्स आम नहीं थे, खासतौर से महिलाएँ अपना पैसा अपने धोती के पल्लू के एक कोने में बाँध कर रखती थीं, जिसे उन दिनों खूँट कहते थे | सबसे सस्ती दिखने वाली गंजी पर उँगली रख कर बोलीं – यह वाली दे दो, कितने की है? दुकानदार बोला- दस आने की है | दादी के पास शायद दस आने ही शेष बचे थे और वे गंजी उधार में नहीं लेना चाह रही थीं, इसलिए मोल-भाव करना उनकी मजबूरी थी | दुकानदार तो चाह रहा था कि इसे भी उधार खाते में चढ़ा कर शीघ्र निजात पाई जाए, लेकिन दादी कहाँ चूकने वाली थीं उन्हें तो गंजी नकद ही चाहिए थी | मोल-भाव शुरू हुआ | बड़े मुश्किल से दुकानदार साढ़े आठ आने पर आया | दादी को इससे संतुष्टि नहीं थी | वह आठ आने से एक पाई अधिक देने को राज़ी नहीं थीं | दुकानदार परेशान हो गया, अंत में उसने अस्त्र रख दिए | वह भी क्या करता, एक तो रोजाना का ग्राहक, दूसरे महिला और सबसे महत्त्वपूर्ण उसका समय, जो व्यर्थ जाया हो रहा था | मुझे इस मोल-भाव को देख कर बड़ा संकोच हो रहा था, मैं दुकानदार से नज़र बचा कर इधर-उधर तो कभी दूकान पर बैठे दर्जी के पास चला जाता था | आखिरकार, डील पक्की हो गई | दादी ने आठ आने दिए और गंजी हमारी | मेरा बस चलता तो गंजी वहीँ पहन लेता | दादी ने कहा- नहीं यहाँ नहीं घर पर | मैं भी मान गया | गंजी मुझे ही तो मिलने वाली थी!

अब वापसी की तैयारी था | सूर्यास्त होने को था | लेकिन मुझे इसका क्या गम था, मेरी दादी जो मेरे साथ थीं | मुझसे पूछा, कुछ खाओगे? मुझे इतनी तो समझ थी कि दादी क्या खिलाएगी | इतने मोल-भाव के बाद इसके पास क्या बचा होगा? अगर होता तो इतना मोल-भाव ही क्यों करती | मैं खामोश था | वह समझ गईं | मुझे एक मिठाई वाली दूकान पर ले गईं | दो आने की जलेबी खरीदीं | खुद कुछ नहीं खाया, जलेबी का दोना मेरे सामने रख दिया | मैं भी कितना खाता? बची हुई जलेबियाँ एक नए दोने में बाँध कर झोले में रख लीं | अब हम घर जाने वाले रास्ते पर थे | रास्ते में मैंने पूछा, “दादी जब आपके पास दस आना था तो आपने इतने देर तक दुकानदार से इतनी जिरह क्यों की? दादी ने प्यार से अपना खुरदुरा हाथ मेरे सर और गाल पर रखा फिर बोलीं, “इतनी दूर मेरा लाल मेरे साथ पैदल चलकर आया, क्या मैं उसे भूखे घर वापस ले जा सकती हूँ?” हम दोनों मजे में बातें करते हुए घर पहुँच गए |
    
    उस समय दादी की बातों का अर्थ मैंने नहीं समझा था | अब जबकि वे हमारे साथ नहीं हैं, उनकी कही बातों की विशिष्टता का अहसास होता है और मन श्रद्धा से अभिभूत हो कर स्वयं ही नमन करने लगता है |
-राय साहब पाण्डेय