विसहिनवाँ की पुण्यतिथि
भोर के सपने में आज एक आहट
जब आई,
लगा, दरवाजे पर किसी ने गुहार
है लगाई
फिर ठक-ठक की दस्तक संग
आवाज आई,
अरे, द्वार खोलो मैं विसहिनवाँ
हूँ मेरे भाई||
मैं चकित, कोई पेड़ भी सपने
में आता है?
कटा पेड़ भी कोमल कोपलें निकालता
है?
पर यह क्या बूढ़ी जड़ें धीरे-धीरे
फैलने लगीं,
बौने पेड़ की विशाल जड़ें खड़ी
होने लगीं||
मैंने पूछा कैसे मानूं तुम विसहिनवाँ हो,
फिर उसके कोपलों से आम निकलने लगे|
फिर उसके कोपलों से आम निकलने लगे|
आम को देख शक विश्वास में
बदल गया,
आँख आँसू ले मैं उसके गले
लिपट गया||
प्यार से बैठाया, ढाढ़स दी, हाल-चाल पूछा,
सांत्वना पा वृद्ध, आश्वस्त हो
कर बोला-
भैया, बहुत दिनों से मन कचोट
रहा था,
किससे कहूँ, कैसे कहूँ यही
सोच रहा था |
मेरी जिज्ञासा जागी, कहा
बेफिक्र हो कहो
अपनी कथा कहो, व्यथा है वह
भी बताओ|
तुम्हारी छाँव में साँस ली, विश्राम किया है,
स्वादिष्ट फल चखे हैं, हम
तुम्हारे ऋणी हैं||
वृद्ध ने एक लम्बी साँस ली, शुरुवात
की,
तुम्हारे पूर्वजों ने हम
तेरह को जन्म दिया|
धूप, गर्मी सह गोपालतरां हरा-भरा
किया,
इस भीट पर सींचा, पाला-पोषा,
बड़ा किया||
फिर एक सिरफिरे ने दस को वध
दिया
क्योंकि उसे शादी में जाने
से मना किया|
दस का गम झेल दिन-रात बड़े होने
लगे,
पहली बार बौराये, हम मस्ती में झूमे गाए||
नाम का क्या, ऊल-जुलूल भी हो
सकते हैं,
मुझको ही देखो, मुझे विसहिनवाँ
कहते हैं||
हमारे फलों को देख हमें अपना
नाम मिला,
छोटका चौरिहवा, कलुआ करियवा
कहलाया|
दिन गुजरते गए, हम बड़े और
बड़े होते गए,
तुम्हारी कई पीढ़ियों से
हमारे रिश्ते जुड़ गए|
खेतों में काम कर लोग परिश्रांत
जब हो जाते,
मेरी छाया में बैठ स्वेद सुखाते,
गप्पें लगाते||
वक़्त के साथ हम बड़े से विशाल
हो गए,
क्या दंगल पेड़ है! पड़ोसी ऐसा
कहने लगे|
पास के बाग-बगीचों में मेरी धाक
जम गई,
दूर-पथिकों में मेरी पहचान
लैंडमार्क हो गई||
याद है? बड़ों के कंधे बैठ वो
हाथ उचकाना,
मेरा भी मेरी टहनियों को
ऊपर-नीचे हिलाना|
पत्तों और आमों को छू कर ही खिल-खिलाना,
मधुर था वृद्ध और बालक का
रिश्ता बनाना||
फिर पके आमों पर निशाने की
होड़ शुरू हुई,
मैं तब मुस्कराता रहा, जब
कभी तकरार हुई|
आमों को तोड़ खांचे में रख, मेरा
पाल पकाया,
मैंने भी कसर नहीं छोड़ी, खूब
स्वाद चखाया||
कुछ आम फिर भी रह जाते थे छुपे डाली में,
पक्षियों से बच गिरते नीचे पोखरी
के पानी में|
दूर बैठे बच्चों में उन्हें ढूढ़ने
की होती थी ललक,
मुझे भी इस खेल को देखने की
होती थी तलब||
मेरे नीचे ही पानी में होती
थी सनई की धुलाई,
घास की धुलाई और उसके अनेक
ढेर की सुखाई|
मैं इन सब का प्रत्यक्ष गवाह
था, रक्षक भी था,
तुम्हारे लिए ताज़ा वायु
श्रोत और प्रहरी भी था||
पखेरुओं का होता था बसेरा
हमारी डालों पर,
उनके कलरव से रखते थे नज़र
समय पर |
वे हमारे संदेश वाहक थे हमारे
बंधुओं तक,
हाय! सब दूर हो गए जो हमारे
थे कल तक||
हर सुख-दुःख में, पूजा-पाठ
में साथ निभाया,
अपनी सूखी टहनियों को हवन-कुंड
में जलाया|
शादी-व्याह, मौके-दर मौके डालें भी कटवाई,
हमसे क्या भूल हुई, हमें सहनी
पड़ी रुसवाई||
क्या नहीं किया हमने तुम्हारी
भलाई के लिए?
पर तुमने सब कुछ भुला दिया मतलब
के लिए|
सभी के हम, हम पर क्यों
अधिकार की लड़ाई,
फिर भी तुम्हारी ज़िद ने कर
डाली हमारी कटाई|
रोया, आहें भरी, सिसकियों को
नज़रंदाज़ किया
आरे से मुझ पर नहीं, अपनों पर
ही वार किया|
हमारी बलि देकर हमें अकाल
मौत क्यों दे दिया,
एहसान फरामोश मानव हमें
क्यों नर्क भेज दिया||
तुम तो खुद मरते हो, हमें क्यों
यह गौरव नहीं?
यह निर्दयता क्यों? यह हमारी
नियति भी नहीं|
हमारा कुछ न बिगड़ेगा, खुद की
जड़ें मत काटो,
नफ़रत और स्वार्थ छोड़ प्यार
पाओ, प्यार बांटो||
आज तुम्हारी पुण्य-तिथि है, इसलिए
बहक रहे हो,
विसहिनवाँ जोर से हँसा, मैंने
पूछा हँस क्यों रहे हो?
वृक्षों की पुण्य-तिथि? जन्म-दिन? क्या कभी सुना
है?
अनुष्ठान करो, किसी अपने की,
आज पुण्य-तिथि है||
-राय साहब पाण्डेय
26.05.2017
विसहिनवाँ पर्यावरण का एक प्रतीक है |






