Tuesday, 27 June 2017

रिश्तों की पौध ....




रिश्तों की पौध
-राय साहब पांडेय
मिट्टी में पौधे उगते हैं
घास भी उगती मिट्टी में,
रिश्तों में खुशबू होती है
कड़वाहट भी है रिश्तों में | (१)

मिट्टी जितनी उर्वर होगी
पौध भी उतनी उत्तम होगी,
रखना होगा नमीं बनाकर
वाजिब वर्षा धूप दिखाकर | (२)

नम होते पौधे वारि-धार से
मिटती तपिश की अकुलाहट,
नम होते रिश्ते अश्रु-धार से
बढ़ती  आपस में गरमाहट | (३)

पौधे तो हैं जमीं पर उगते
रिश्ते होते विकिरण जैसे,
इनका अपना ताप न होता
चट्टानों को पिघलाते कैसे? (४)

चाहे रिश्ते हों या फिर पौधे
नाजुकता होती इनमें प्रधान,
आवश्यक हैं कुशल दक्ष हाथ
माली हो या फिर हों किसान | (५)


मिट्टी है तो घास उगेगी
करनी होगी नित निरवाई,
फूल खिलेंगे तब बगिया में
यूं गमकेगी अपनी पुरवाई |(६)

माली हाथों डोर पौध की
श्रम ही है जिसका आधार,
अदृश्य डोर होती रिश्तों की
मूल में जिसके केवल प्यार |(७)

पौधे हों या फिर हों ये रिश्ते
स्वार्थ इन्हें करता है कलुषित,
माली क्या फल की सोचे है?
त्याग नहीं तो रिश्ता दूषित |(८)

समय से पौधे पेड़ बनेंगे
फल देंगे फिर बीज बनेंगे,
नाता गहरा समय से इनका
रिश्ते तब ही परिपक्व बनेंगे |(९)

                     क्रिया-प्रतिक्रिया प्रतिफल में  
                     मनमुटाव न भारी होने पाए,
                     सच्चे रिश्ते भी दैव-योग हैं
                     कुर्बानी देकर इन्हें निभाएं | (१०)
                  
                  
                  
                                               

Saturday, 24 June 2017

हरिना समुझि .....




हरिना समुझि समुझि बन चरना
-राय साहब पांडेय
तुम भरो कुलांचे चाहे जितना
मन को सावधान ही रखना,
ऊँची छलांग में भूल न जाना
अपनी हद में सदा ही रहना |
हरिना समुझि समुझि बन चरना(१)

पल-पल दुश्मन घात लगाए
छुप कर बैठे नज़र बचाए,
अधिक दूर तक तुम मत जाना
जड़ से जुड़ कर सदा ही रहना|
हरिना समुझि समुझि बन चरना(२)

हरी-हरी घासों की लोलुपता में
अंजान राह में मत घुस जाना,
रूखी-सूखी मिले अगर, जी लेना
लोभी गलियारों में मत फँसना |
हरिना समुझि समुझि बन चरना(३)

सुध-बुध, सयंम खो मत देना
होश-हवास की बलि मत देना,
उत्साह की घातक नादानी में
कर माँ को याद चौकन्ना रहना|   
हरिना समुझि समुझि बन चरना(४)

कुटिल चाल की जाल बिछी है
ठगा न जाना बच के रहना,
जीवन का अस्तित्व अभी है
जी लो, कल का पता न करना|
हरिना समुझि समुझि बन चरना(५)

टिप्पणी: इस कविता की पहली पंक्ति बचपन से गुनगुनाता रहा हूँ, लेकिन आगे क्या था इसका कुछ अता-पता नहीं | इस निर्गुन को पूरा करने का यह एक तुच्छ प्रयास मात्र है |

Thursday, 22 June 2017




Narad: A communicator par excellence

-Ray Saheb Pandey
When you are roaming around the eighty-four ghats (four more have been added, totaling eighty-eight now) at the Ganges in Varanasi, you are sure to come across an ill-fated ghat. Ill-fated, because here married couples do not or advised not to bathe. One may ponder why this stupefaction? This ghat is known has Narad Ghat. Formerly known as Kawai ghat, this was built by Swami Dattatreya in the middle of the 19th century. A temple called Nardeshwar was also built on this ghat.
Narad, who came to be called as brahmarshi after a harshest of tapa ( the super refined art of self-control and total surrender to God), is one of the seven manas putras of Lord Brahma. He is the one who is equally liked by demon and deity. Lord Krishna described himself as देवार्षिणाम्चनारदः (I am Narad among devarshis) in the tenth chapter, the 26th sloka (metrical couplets), of Shrimadbhagwatgita. In Vayupurana, he is described to possess all the characteristics of a true देवार्षि.
How come a ghat dedicated to such a devarshi is associated with such a stupefaction that married couples shall fall apart or their life would become hell if they took a dip in Holy River like Ganges? Whether the water in the river at this ghat is different from that at the other ghats? Whether Swami Dattatreya built this ghat only to glorify the devarshi and not for bathing? In fact the name of devarshi Narad might bring glory to those who just chant his name.
Let us look at the qualities of the devarshi. As narrated in sabha-parva in Mahabharata, devarshi Narad is described to possess the penetrating knowledge of Vedas and Upanishadas, most venerable by gods, expert on puranas, omniscient of past times, knowing philosophy of nyaay and dharma, erudite scholar of Pedagogy, Vyakaran, Ayurveda and Astrology, master of Music, effective orator, gifted moralist, poet and a great teacher. He is even credited to do away the doubts of Vrihashpati, the greatest known scholar in Hindu mythology.
Other qualities described include: True logist (knower) of dharm-arth-kama-moksha, capable of knowing or gathering the news/information from the entire lokas (worlds), knowing the mysteries of Sankhya and Yoga, preacher of Vairagya to gods and demons, conversant in defining and differentiating kartavya-akartavya (action-inaction), proficient in all the lores and learnings, embodiment of virtuous and righteous conduct, ocean of happiness, param (ultimate) tejasvi, benevolent and all moving.
With so many qualities, how can such a devarshi be portrayed as a fomenter of troubles in the life of a married couple or among communities? Is it not entirely unjustified? He is often accused of gossip monger, but what were his intensions? Were they not well meaning and for the wellbeing of mankind, devils and demons alike? Also depicted as a complex personality and a playful character in films and media, but in the real world, he was a true yogi and one among the wisest of humans and gods.
It is believed that he is still living and is one among the twelve immortals. He is a great traveler in the three worlds. He is always latest with the information and passing on knowledge from one world to another. He is regarded as the first journalist in the Universe, A master encyclopedia, who has the distinction of knowing sixty-four vidya. It is said he even knew what God was thinking!
He was instrumental in getting Jalandhar to the path of his self-destruction at the hands of Lord Shiva. His role in Mahabharata in showing Yudhisthir the right path of Dharma and the code of conduct to Pandavas as husbands in relation to queen and their wife Draupadi. His Bhaktishutras are an unparalleled piece of philosophy written in a simple, lucid and in a layman’s language. It is no wonder then that a temple is dedicated to him at Chigateri in Karnataka state.
What qualities are required for a great communicator? Knowledge, skill, wisdom, respectability, impartiality, courage and character? Are all these qualities are not an integral part of devarshi’s life? Is it therefore not most prudent to call Narad a greatest communicator ever born? He is, beyond doubt, the most effective communicator of all time.
In the light of the above, it must be suggested that the skepticism of married couples is baseless and totally unfounded. In fact, all the leaders, and the bureaucrats ought to take lead in visiting this ghat and take a holy dip in the Ganges to learn and imbibe the true qualities needed for communication and diplomacy. The common public should then follow their leaders to quell and dispel the unfounded notion regarding Narad, the Brahmarshi.


Tuesday, 20 June 2017

लोकगीत (कजरी)




लोकगीत-कजरी (1)

-राय साहब पांडेय 
सखी नैहर जाइब खेलै हम कजरिया,
बदरिया चाहे जेतना बरसै | (१)

सैंया बाटेन मोर शराबी, पर हमहूँ हई मयाबी,
हम त मानब नाहीं साजन क कहनवां
बदरिया चाहे जेतना बरसै | (२)
---सखी नैहर जाइब खेलै हम कजरिया,
बदरिया चाहे जेतना बरसै |  

जब-जब सावन रिमझिम बरसै, मोरा कातर मनवां तरसै,
हम त जोही ला, अब बीरन क पईड़िया
बदरिया चाहे जेतना बरसै | (३)
---सखी नैहर जाइब खेलै हम कजरिया,
बदरिया चाहे जेतना बरसै |  

देखि के सूरत मोर उदासिल, अम्मा हो गईनी तब पागल
पापा कसि के डटलें, जात नाहीं काहें ई ससुररिया
 बदरिया चाहे जेतना बरसै | (४)
---सखी नैहर जाइब खेलै हम कजरिया,
बदरिया चाहे जेतना बरसै |  

मोरा बालम भइलें बिल्ली, जब उड़ गई उनकी खिल्ली
रचिकौ नीक न लागे, रस्ते में गुमसुमियाँ
बदरिया चाहे जेतना बरसै | (५)
---सखी नैहर जाइब खेलै हम कजरिया,
बदरिया चाहे जेतना बरसै |  

नैहर हमरा जब निचकायल, हमहूँ भईलीं तनिक घायल
माफ़ी माँग लेहलीं, अब हँसि दो संवरिया
बदरिया चाहे जेतना बरसै |  (६)
---सखी नैहर जाइब खेलै हम कजरिया,
बदरिया चाहे जेतना बरसै |  

सखी सैयाँ मरलेन कनखी, हम तो शरम से हो गई सुर्खी
हमका लाज लागल, झुक गई मोरी नजरिया
बदरिया चाहे जेतना बरसै |  (७)
---सखी नैहर जाइब खेलै हम कजरिया,
बदरिया चाहे जेतना बरसै |  

Monday, 19 June 2017

आधा सेर मजदूरी



आधा सेर मजदूरी 
-राय साहब पांडेय

सुनबहरी आज सवेरे-सवेरे ही गोबर पाथने निकल गई थी | कई दिनों से घर से बाहर निकलने का मौका ही नहीं मिला था | पिछले हफ्ते उसके छोटे बेटे सामू की शादी जो थी | अमीर हो या गरीब, हिन्दुस्तानी समाज में शादी एक ऐसा प्रयोजन है जिसमें घर-परिवार के लोग स्वभावतः व्यस्त हो ही जाते हैं | ऐसे भी आज के समय में और चालीस-पचास साल पहले के समय में ज़मीन आसमान का अंतर हो गया है | अब इवेंट मैनेजमेंट का ज़माना है, पहले लोग मिल-जुल कर सब काम कर लेते थे | सुनबहरी और उसका बड़ा बेटा दोनों आधा मील दूर अपने मालिक के यहाँ काम करते हैं | उसका बड़ा बेटा रामू हल-बैल और खेती-बारी का काम करता है जबकि सुनबहरी मालिक की बहुओं की जरूरतों का ध्यान रखती है | उनके नहाने के लिए पानी का इंतजाम करती है, उनके धोती-कपड़ों को कछा रती-पछारती है, घर-आँगन की साफ़-सफाई, गोबर-पानी का सारा काम उसके जिम्मे ही है | अगर कभी-कभार दूसरी काम-वालियाँ नहीं आईं तो समझ लीजिए सुनबहरी के कान अपना ही नाम सुनते-सुनते पक जाते हैं | सभी नौकरानियों में सुनबहरी का दर्जा अव्वल है | मालिक और मालकिन के अतिरिक्त कोई उसका नाम लेकर नहीं पुकारता | बहुओं के लिए तो जैसे वह उनकी चाची है | बहुएँ सचमुच उसका कद्र करती हैं | बिल्कुल शांत स्वभाव की सुनबहरी का मन अपने घर में उतना नहीं लगता, जितना वह मालिक के यहाँ खुश रहती है | पूरा दिन कैसे गुजर जाता है, पता ही नहीं चलता |

अब भला बताइए सुनबहरी क्या करती? इतनी सारी जिम्मेदारियों का बोझ उसके सर पर! सवेरे निकलने के अलावा उसके पास चारा ही क्या था? सात दिन का गोबर उसे निपटाना  था, वह भी नाक बंद करके | जैसे-तैसे दस बजे तक गोबर का काम निपटा कर, हाथ-मुँह धोकर वह घर में दाखिल हुई | जैसे ही उसने झाड़ू उठाया, बड़ी बहू ने उसे देख लिया | अब क्या, सारी बहुओं का नाम ले ले कर बुलाने लगी | बोली- सभी आ जाओ, चाची आ गई हैं | बड़ी बहू चाची के हाथ से झाड़ू छीनकर एक कोने में फेंक दिया और उसका कंधा  दबाकर जमीन पर बैठने के लिए विवश कर दिया | चाची क्या करती वहीं बैठ गई | इतना मान तो उसे अपनी बहू से भी नसीब न था! इतने में अन्य बहुएँ भी आ गईं | सभी ने शादी की तैयारियों और बारात के बारे में पूछताछ शुरू कर दी | छोटी ने तो लड्डुओं की माँग कर दी | बोली- आज लड्डू कैसे लाती? सवेरे ही आ गयी थी वह भी सीधे पथनउरे में | कल ले आऊँगी | कैसे कहती- यह तो ब्याह था, गौना तो कई सालों बाद होगा | लड्डू तो बहू की विदाई के साथ गौने पर मिलता है | जब काफी देर हो गई और बहुएँ वहाँ से हटने का नाम नहीं ले रही थीं, तो सुनबहरी ने अपनी जान छुड़ाते हुए कहा- अरे आज तुम लोगों को नहाना-धोना नहीं है क्या? चलो अपने-अपने काम पर | बहुएँ भी कहाँ कम थीं, एक-दूसरे को देखा, हलके से मुस्कराया और एक साथ बोल पड़ीं- लड्डू तो चाहिए ही चाहिए, ऐसे जान नहीं छूटने वाली |

सुनबहरी दिन भर काम में व्यस्त रही | काम इतना ज्यादा था कि दूसरों को नहलाने वाली खुद अपना नहाना-धोना भूल गई | मालकिन ने खुद आ कर सुनबहरी को कुछ खा-पी लेने को कहा | मालकिन उसका बहुत ध्यान देती हैं | ऐसा इसलिए भी था कि मालिक ने शख्त हिदायत दे रखी थी- “सुनबहरी को कोई तकलीफ न हो”|  
सुनबहरी के बारे बहुएँ कुछ ज्यादा नहीं जानती थीं, क्योंकि मालिक नहीं चाहते थे कि उसके गुजरे दिनों के बारे में घर-परिवार में कोई चर्चा हो | जब कोई बात बताने के लिए मना किया जाता है तो उसके विषय में जानने की उत्सुकता और तेज हो जाती है | बहुत दिनों से बहुओं के मन में सुनबहरी के बारे में और अधिक जानने–सुनने की अभिलाषा हिलोरें मार रही थी | पर किससे पूछें? मालिक तक खबर पहुँचने का अंदेशा हमेशा बना रहता था, फिर उनका कोप भाजन बनना? बाप रे बाप | अगर मालिक को भनक भी लग  गई तो बहुओं की तो कम, मालकिन का जीना दुश्वार हो जाएगा, ऐसा सोचकर बहुएँ अपना मन मसोस कर रह जाती थीं | भला कौन सुशील बहू चाहेगी कि उसके कारण उसकी सास पर आफत आए | छोटी बहू ने एक बार कोशिश की थी चाची से बात करने की | इसके बाद सुनबहरी ने मालिक का घर ही छोड़ दिया था | स्वयं मालिक उसके घर गए थे उसे मनाने के लिए!
समय बीतता गया | तकरीबन तीन साल गुजर गए | मालकिन बीमार रहने लगीं | सुनबहरी को इसका आघात सबसे अधिक था | मालकिन उसके लिए मालकिन नहीं, एक सच्ची दोस्त और संरक्षक भी थीं | वह उनकी ही सेवा में खुद को समर्पित हो गई | रात में सुनबहरी के घर चले जाने के बाद उनकी बड़ी बहू यह जिम्मेदारी निभाती थी | इस बीच बड़ी बहू, अपर्णा अपनी सास के काफी करीब हो गई थीं |  छोटी बहू काफी चंचल और संवेदनशील थी | उसने ही अपर्णा से कहा, “दीदी आप एक बार सुनबहरी चाची के बारे में माँ जी से बात करिए न | आप को मना नहीं करेंगी |” अपर्णा फिर भी हिम्मत नहीं जुटा  पा रही थी | आखिर, एक दिन जब मालकिन काफी खुश दिख रही थीं, अवसर पा कर बड़ी बहू ने कहा, “माँ जी एक बात कहूँ, आप बुरा तो नहीं मानोगी? बहुत दिनों से हम सब के मन में सुनबहरी चाची के बारे में जानने की ललक है | आखिर ऐसा क्या है जो कोई इस विषय में बात नहीं करता?” आज मालकिन बिलकुल गुस्सा नहीं हुईं | शायद वे खुद अपनी बड़ी बहू को इस बारे में बताना चाह रही थीं | ठीक कहा बहू तूने, “मैं भी इस बात को तुम्हें बताने की सोच रही थी | पर कैसे?, यही नहीं समझ पा रही हूँ | मैं चाहती हूँ कि तुम हर बात जानो, समझो | कल को तुम्हें ही यह घर संभालना है | मेरी तबीयत ऐसे भी ठीक नहीं रहती | तुम्हारे बाबूजी को तो जानती ही हो, पता चल गया तो पूरा घर ही सर पर उठा लेंगे | चलो मैं खुद सुनबहरी से ही बात करती हूँ |”

अगले दिन आते ही सुनबहरी मालकिन के कमरे में चली गई | मालकिन के आस-पास होने से ही उसे बड़ा सुकून मिलता था | मालकिन ने अवसर समझ कर उससे बात करना ठीक समझा | मालकिन कहने लगीं, “अरे सुनहरा, आज मैं तुमसे अपने मन की बात करना चाहती हूँ, करूँ क्या?” सुनबहरी बोली, “क्या मालकिन, आज आपको यह क्या सूझ रही है? आप मुझसे बात करना चाह रही हैं, ई तो हमार भाग है | एमा पूछै वाली का बात है |” नहीं सुनहरा ये बात नहीं है, मालकिन ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, “मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती है, पता नहीं कब क्या हो जाए | मैं अपर्णा को तुम्हारे बारे में सब कुछ बता देना चाहती हूँ यदि तुम हाँ कहोगी तभी |” मालकिन जब खुश होती थीं तब सुनबहरी को सुनहरा कह के बुलाती थीं | सुनबहरी मालकिन के मुख से यह बात सुनकर हक्का-बक्का रह गई | फिर संभलते हुए कहने लगी, “मालकिन आप मालकिन हो, मैं आपसे क्या कह सकती हूँ? आप जइसन समझो, करो |” मालकिन ने कहा, “नहीं ऐसी बात नहीं है, मैं चाहती हूँ कि मेरे न रहने के बाद तुम्हारे बारे में कोई अनाप-सनाप बात न फैले और तुम्हारा अभी जैसा मान-सम्मान बना रहे | यदि तुम नहीं चाहती हो तो मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगी |” ठीक है मालकिन, आप अइसन सोचत हैं तो बताय दें लेकिन बड़ी बहू के अलावा ई बात कोई के ना मालूम पड़ै तो अच्छा रही |” मालकिन ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा, “बिलकुल ऐसा ही होगा सुनहरा, मैं पहले अपर्णा से वचन लूंगी, तभी उसे बताऊँगी और अगर उसने यदि ऐसा न किया तो अपना मुँह नहीं खोलूँगी |” सुनबहरी अपने काम में लग गई |

सूरज ढल चुका था | आसमान में अभी भी लालिमा कायम थी | सुनबहरी के लिए इस लालिमा का आज कोई अर्थ नहीं था | उसे तो कल सवेरे की कालिमा की आशंका थी | एक ठौर मिला था, माँ-बापू के बाद एक प्यार करने वाला परिवार मिला था, पर क्या उसका मान सम्मान बचा रह पाएगा? खुद में इतनी खोई हुई थी कि रास्ते में कौन आ-जा रहा है, उसे इसका पता ही नहीं चला | घर पहुँचने के बाद भी अपनी बहू से बात नहीं की | खाना भी नहीं खाया और बिस्तर पर निढाल लेट गई | आज उसकी आँखों में एक अजीब सूनापन था | बाहर शोरगुल के बावजूद एक मायूस सन्नाटा था | रोने का मन कर रहा था, लेकिन आँसू सूख गए थे | खुली आँखों में नींद कहाँ? रात बीतने के इंतजार के अतिरिक्त कर ही क्या सकती थी?

मालिक के घर सब ने खाना खा लिया | दूध के गिलास के साथ बड़ी बहू ने मालकिन के कमरे में प्रवेश किया | अपर्णा ने दूध का गिलास मालकिन की तरफ बढ़ाया | “रख दो बहू, आज मन बड़ा बोझिल सा हो रहा है | बात करने का दिल नहीं हो रहा, पर बताना जरूरी है | लेकिन तुम एक वचन दो, आज जो मैं तुमसे कहूँगी उसे तुम किसी को भी नहीं बताओगी |” अपर्णा असमंजस में पड़ गई | खुद को संभालते हुए बोली, “माँ जी आप यदि ऐसा कह रही हैं तो मैं आपको वचन देती हूँ, यह बात मेरे अन्दर एक राज ही रहेगी |” मालकिन का मन थोड़ा हल्का हुआ और वे कहने लगीं, “बहू, सुनहरी पहले ऐसी नहीं थी | खुश मिज़ाज और चंचल, हर चाल में अल्हड़पन न जाने कहाँ से कूट-कूट कर भरा था उसके व्यक्तित्व में | कुछ ख़ास पढ़ी लिखी भी नहीं थी पर बात-चीत में शालीन थी | बड़ों के साथ कैसे बर्ताव करना चाहिए, उसे कभी बताने की जरूरत नहीं थी | खीसू से उसका ब्याह बचपन में ही हो गया था | गौने के बाद जब वह ससुराल में आई तो उसकी सुंदरता की चर्चा अगल-बगल के गाँव में भी होने लगी थी | बचपन से ही इतनी सुन्दर थी कि उसके माँ-बापू को उसका नाम सोचने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी | सोने जैसे मन और तन वाली बेटी का नाम उन्होंने सुनहरी रख दिया | सुनबहरी तो मेरे बेटों ने उसे बुलाना शुरू कर दिया जब वह किसी बात का जवाब दिए बगैर अपने काम में मशगूल रहने लगी | सुनहरी के व्यक्तित्व में रूप और गुण का एक बेजोड़ संगम था | अधिकतर अपने काम से काम रखती थी | ससुराल आते ही घर-परिवार की सारी जिम्मेदारियाँ संभाल ली | उसका पति ज्यादा पढ़ा-लिखा तो नहीं था पर अपनी मान-मर्यादा के भीतर रह कर अपनी गृहस्थी चला रहा था | समय बीतते देर कहाँ लगती है, खासकर जब दिन ख़ुशी-ख़ुशी कट रहा हो | सुनहरी एक बेटे की माँ बन गई | रामू के जन्म के कुछ महीनों के भीतर ही सामू भी पेट में आ गया | निर्धन परिवार में जन्म लेना भी किसी अभिशाप से कम नहीं होता | उस पर यदि जाति भी छोटी हो तो धनवान और बिगड़ैल किस्म के तथाकथित ऊँची जाति के आवारा लोग इन्हें अपनी जूती समझने की भूल अकसर कर ही जाते हैं | खीसू ऐसे ही एक परिवार के यहाँ काम करता था | पूरे मन से मेहनत कर के अपनी मजदूरी कमाता था | खीसू के मालिक का नवजवान छोरा और उसके कुछ साथी हमेशा मटरगश्ती करते रहते थे | कहते हैं न ‘गरीब की लुगाई, सारे गाँव की भौजाई’ | यह कहते-कहते मालकिन रुक गईं |”

थोड़ा समय बीतने के बाद भी जब मालकिन कुछ नहीं बोल रही थीं तो बहू ने पूछा फिर क्या हुआ माँ जी? मालकिन ने फिर क्रम पकड़ा और कहने लगीं, “खीसू के मालिक का छोरा, क्या नाम था उसका हाँ साजन, खीसू को अनेक तरह के प्रलोभन देने लगा | एक दिन खीसू से कहा- अरे तुम्हारी लुगाई दिन भर घर में बैठी रहती है, उससे कहो घर में आ कर कुछ काम कर दिया करेगी | सेर, आधा सेर मजदूरी वह भी कमा लेगी | घर-गृहस्थी चलाने में तुम्हारी मदद भी हो जाएगी | खीसू ने साफ़ मना कर दिया | बोला-भैया वह घर के बाहर मजदूरी नहीं करेगी | वैसे भी वह पेट से है | खीसू की बात से साजन नाराज तो बहुत हुआ पर सीधे तौर पर कुछ नहीं कहा | कुछ दिन और बीत गए | खीसू समझा सब ठीक हो गया, पर दुष्ट साजन और उसके शैतान दोस्त कहाँ मानने वाले थे | उन सब ने एक योजना बनाई और खीसू को कुछ दिनों के लिए गाँव से बाहर भेज दिया | दो-चार दिन बीतने के बाद भी जब वह नहीं लौटा तो सुनहरी की चिन्ता बढ़ने लगी | साल भर से कम उम्र के रामू को लेकर खीसू के मालिक के पास गुहार लगाने पहुँच गई | पर उसके मालिक को तो इसका पता ही नहीं था कि वह कब, कहाँ और किसके कहने पर गया | फिर भी खीसू के मालिक ने उसको ढाढ़स बंधाया कि उसका मर्द जल्द ही वापस आ जाएगा | सुनहरी को देख साजन और उसके लम्पट दोस्त भद्दे ताने कसने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे थे | तरह-तरह की अफवाहें उड़ा रहे थे कि खीसू अपनी लुगाई से तंग आकर घर छोड़ कर भाग गया | कुछ दिन और बीत गए, पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज कराई गई | पर खीसू का कोई अता-पता नहीं मिला | सुनहरी का रो-रो कर बुरा हाल था | माँ-बापू तो थे नहीं, कहाँ जाती, क्या करती? दिल पर पत्थर रख कर बच्चे की परवरिश में लग गई | खुद मजदूरी करने लगी | पर यह उसके दुखों का अंत नहीं था | साजन और उसके दोस्त अब मनमाने ढंग से उसके घर का चक्कर लगाने लगे, फब्तियाँ कसने लगे और जोर-जबरदस्ती पर उतारू हो गए |”

सुनहरी की व्यथा सुनाने वाली मालकिन और उनकी बड़ी बहू दोनों की आँखें नम हो गई थीं | मालकिन ने अपने पल्लू के कोने से अपनी आँख पोंछते हुए आगे कहना शुरू किया | सुनहरी कई बार खीसू के मालिक के यहाँ फ़रियाद ले कर गई, लेकिन नतीजा वही ‘ढाक के तीन पात’ | पड़ोसियों ने उसे तुम्हारे पापा के पास भेजा | साजन और उसके दोस्तों को समझाने और हिदायत देने के लिए | पर साजन एक बिगड़ा हुआ अमीर बाप का इकलौता बेटा था | वह एक बेकाबू घोड़े की भाँति था जो हर किसी घुड़सवार को अपने पैर के खुरों से घायल करने में माहिर था | तुम्हारे पापा के समझाने का कोई असर नहीं हुआ | उसकी हरकतें दिनों-दिन बढ़ने लगीं | सुनहरी, बिलकुल असहाय, फिर तुम्हारे पापा के पास गुहार लगाने आ पहुँची | नरम दिल वाले तुम्हारे पापा से उसका क्रंदन देखा न गया | सुनहरी को अपनी गाड़ी में बिठाया, कुछ आदमी भी गाड़ी में बैठे और साजन के पिता के यहाँ पहुँच गए | सारा वाकया सुनने के बाद साजन को बैठक खाने में तलब किया गया | तुम्हारे पापा को देखते ही साजन बिफर पड़ा | जोर-जोर से चिल्लाते हुए अनाप-सनाप बकने लगा | तुम्हारे पापा शांत बैठे रहे, चुपचाप सुनते रहे | अपने आदमियों को भी शांत कराते रहे | पर साजन शांत नहीं हुआ | और बोलते-बोलते जब उसने कहा कि सुनहरी तुम्हारी क्या लगती है? रखैल है? बेटी है? | बैठक को मानो सांप सूंघ गया हो | सभी स्तब्ध, यह क्या हो रहा है? पहली बार तुम्हारे पापा को लोगों ने गुस्से में कांपते देखा | बगल में खड़े आदमी के हाथ से लाठी छीनी और दे दनादन शुरू हो गए | लगातार लाठी बरसाते रहे और दहाड़ते हुए कहते रहे- हाँ यह मेरी बेटी है |”

मालकिन और अपर्णा दोनों की सिसकियाँ बंध गई | कौन किसे चुप कराए | थोड़ी देर बाद आँसुओं का सैलाब थमा तो मालकिन बुदबुदाते हुए आगे कहने लगीं, “साजन लहू-लुहान वहीं ढेर हो गया | उसके पिताजी क्या कहते? तुम्हारे पापा का इतना दबदबा था और लोगों में इतना सम्मान था कि पुलिस को एक भी गवाह नहीं मिला | सुनहरी तो वहीं बेहोश हो गई | आनन-फानन में उसे नजदीकी अस्पताल में पहुँचाया गया, जहाँ उसने सामू को जन्म दिया | अब सुनहरी और उसके बच्चे हमारी जिम्मेदारी थे | तुम्हारे पिताजी की शख्त चेतावनी थी कि इस घटना का जिक्र कोई कभी नहीं करेगा | घरवालों की तो छोड़ो, दूसरे गाँव वाले भी अपनी जबान को जैसे सिल रखा हो | तब से अब तक इस दुर्घटना की कोई चर्चा नहीं हुई | जब सामू दो बरस का हो गया तो सुनहरी खुद तुम्हारे पापा के पास आई और इस घर में काम करने की मंशा जाहिर की | तभी से वह यहाँ इस घर में अपने मन से जो चाहे करती है |”

अपर्णा और उसकी सास शांत हो गए | सब कुछ कह सुन कर दोनों अब हल्का महसूस कर रहे थे | कब किसको नींद आई, कब सवेरा हुआ, दोनों को इसकी खबर नहीं हुई | छोटी बहू ने आकर जगाया तब उनकी नींद खुली | अब सब कुछ पहले जैसा ही था | सुनहरी रोज की भांति आज भी अपने काम में लग गई | कोई किसी से बात नहीं कर रहा था | पर छोटी बहू थोड़ी बेचैन लग रही थी | अपर्णा अचानक सुनहरी के सामने आकर खड़ी हो गई | सुनहरी जब काफी समय तक आँख झुकाए खड़ी रही, तब अपर्णा ने धीरे से सुनहरी की ठोड़ी पकड़ी और उसकी आँखों में आँख डाल कर देखा | दोनों एक दूसरे के गले लग कर एक दूसरे की पीठ भिंगोते रहे | बिना कुछ कहे सुने सब कुछ कह सुन लिया | छोटी बहू अब बार-बार अपर्णा दीदी के चक्कर लगा रही थी | बड़ी बहू थी कि कुछ बोलने को तैयार ही नहीं थी | हार कर छोटी बहू ने सीधे-सीधे पूछ ही लिया, “दीदी, क्या हुआ माँ जी ने कुछ बताया?” अपर्णा ने छोटी की तरफ इस तरह देखा कि जैसे कुछ समझी ही नहीं और उसे झिड़कते हुए आगे बढ़ गई | छोटी बहू हैरान, परेशान | कुछ समझ नहीं पा रही थी | छोटी नाराज हो कर अपने कमरे में चली गई और दिन भर बाहर नहीं निकली | अपर्णा को अहसास हुआ कि आखिर छोटी की जगह वह खुद होती तो क्या करती? वह उसके कमरे में गई और प्यार से उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा, “छोटी, कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें हमें नहीं जानना चाहिए | अगर बिना जाने ही सब कुछ ठीक चल रहा है तो क्यों माथापच्ची करें? मैंने माँ जी को वचन दिया है किसी से कुछ न कहने का | क्या तुम चाहती हो मैं माँ जी को दिया अपना वादा न निभाऊँ?” छोटी समझदार थी | बोली- दीदी ऐसी बात है तो मैं आपकी सौगंध खाकर कहती हूँ आज के बाद इस बात को अपनी  जबान पर कभी नहीं लाऊँगी | देवरानी-जेठानी का सुखद मिलन हो गया |

कहते हैं न समय सभी हरे घाव भर देता है | इस बार भी ऐसा ही हुआ | इस संसार में ऐसे मालिकों–मालकिनों, सुनहरियों और साजनों की कोई कमी नहीं है | संसार है चलता ही रहेगा | यह न तो पूरे सत्य से चलता है और न ही पूरे असत्य से | सत्य-असत्य दोनों की भागीदारी कायम थी, आज भी है और भविष्य में भी रहेगी | जरूरत है अच्छाई और बुराई के भेद को परखने की और सामंजस्य बना कर उसे अमल में लाने की |