Tuesday, 27 February 2018

ख़ामोशी का जख्म




ख़ामोशी का ज़ख्म



बात गैरों की हो अगर तो कोई बात नहीं,
मगर अपनों की लगती तो चुभन होती है,
मन की घुटन मन में जब घुट के है घुटती,
घनीभूत जख्म तब बन जाती है ख़ामोशी |


जख्मे ख़ामोशी तो पखेरू है एक पिंजड़े का,
एक ख़ुद का तो दूजा शिकार है शिकारी का,
फड़फड़ाहट है, छटफटाहट है, बेबशी भी है,
एक ख़ुद सुनता है एक की सुनाई देती है|


बेजुबान शब्द-रहित  बोलती खमोशियाँ,
चीरती हैं, भेदती हैं मर्म मांसपेशियां,  
 सूनी आंखों के अंगारे अगोचर ही दहकते,
 अवसाद की यह मनोदशा है कौन समझे?


अलख-ओझल बेड़ियों की जकड़नों से मुक्त,
तोड़ना होगा अहम की खोखली दीवार सख्त,
 रिहाई की रहाई है किसे लगती नहीं प्यारी?
  संवाद बस संवाद केवल ही इलाजे ख़ामोशी |


-राय साहब पाण्डे