रिक्शावाला
-राय साहब पांडेय
“गिरिए”, रिक्शेवाले ने कहा | फिर भी मैं बैठा
ही रहा | “गिरिए बाबू”, रिक्शेवाले ने फिर दोहराया | अब समझा गिरिए का मतलब | ओह! उतरने के लिए बोल रहे
हैं महाशय | क्या करता? गिर गया, बिना चोटिल हुए | सोचने लगा कि हिंदी भाषी
होने से ही हिंदी का ज्ञान हो जाय यह जरूरी नहीं | खैर, बरुआ भवन आ गया था और
फिलहाल तो अपनी मंजिल भी यही थी |
जी हाँ,शिवसागर की ही बात कर रहा हूँ, जहाँ शिव डोलों
की कोई कमी नहीं है | अब यह दक्षिण का रामेश्वर तो है नहीं कि यहाँ समुद्र के
किनारे भगवान् राम के मन में “करिहौं इहाँ शम्भु थापना, मोरे हृदय परम कल्पना” की
भावना जागी हो | पर ऐसी ही कल्पना निश्चित रूप से अहोम राजाओं और रानियों के मन
में अवश्य जागी होगी | तभी तो रानी अम्बिका ने अपने पति स्वर्गदेव शिवासिंघा की
याद में सन् 1734 में शिवसागर बोरपोखरी (तालाब)का निर्माण करवाया | इस तालाब
की मुख्य विशेषता है कि इसका जल स्तर शहर के स्तर से ऊँचा है | इसी तालाब के
किनारे, शिव डोल, शिव का एक भव्य मंदिर स्थित है | ऐसा कहा जाता है कि यह उस समय
का सबसे ऊँचा मंदिर है जिसकी ऊँचाई लगभग 32 मीटर तथा परिधि 59 मीटर है | मंदिर 8
फीट स्वर्ण गुंबद रुपी कलश से सुशोभित है | इस परिसर में ही दो और मंदिर हैं जो
विष्णु और देवी डोल के नाम से प्रतिष्ठित हैं | यह मंदिर असम का ही नहीं वरन पूरे
उत्तर-पूर्व का सिरमौर है और इस शहर के किसी भी भाग से आसानी से देखा जा सकता है |
शिव मंदिर और इस बड़े तालाब के होने के नाते ही इस शहर का नाम शिवसागर पड़ गया |
पहले जब अहोम राजाओं ने इसे अपनी राजधानी बनाई तब इसका नाम रंगपुर था फिर बाद में
सिबपुर हो गया | रंगपुर से पहले इसे मेटका के नाम से जाना जाता था | शिवसागर से पांच
किलोमीटर की दूरी पर ही एक और बड़ा तालाब है जिसका नाम जोयसागर तालाब है और यह मनुष्यों
द्वारा निर्मित भारत का सबसे बड़ा तालाब है जिसे सन् 1697 में अहोम राजा स्वर्गदेव
रूद्रसिंघा ने अपनी माँ जोयमती की स्मृति में रंगपुर में बनवाया था | इस तालाब के
किनारे भी शिव डोल के अतिरिक्त अनेक मंदिर हैं जो हिन्दू देवी-देवताओं को समर्पित
हैं |
अस्सी और नब्बे के दशकों तक सारे साइकिल रिक्शावाले
मूलतः बिहार के ही होते थे | वस्तुतः रिक्शा चालक हों या नाई, धोबी, मोची हों, या छोटे-मोटे
होटल चलाने वाले हों, इन सारे कामों पर बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश से आ कर बसे
हुए प्रवासियों का ही एकाधिकार है | बिहार से आए रिक्शावाले ज्यादातर मोतिहारी
जिले के मूल निवासी हैं | शिवचरन उर्फ़ मटरू भी रोजी-रोटी की तलाश में या यूँ कहें कि
अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए ही एक दिन तिनसुकिया मेल पकड़ कर इस छोटे किन्तु नामचीन
टाउन में गिर गए थे और अब हम जैसे लोगों को भी गिरा रहे थे- साइकिल रिक्शा से |
मटरू से मिलना मात्र एक संयोग हो सकता था, अगर
शिवसागर भी मुंबई या दिल्ली जैसा बड़ा शहर होता | शिवसागर जिला मुख्यालय होने के
बावजूद एक छोटा क़स्बा ही था | इसलिए भी मटरू और उनके जैसे अनेक लोगों से बार-बार
मिलने की संभावना काफी प्रबल थी | हुआ भी ऐसा ही | दिखू पर बने एक पुराने दलंग (पुल)
के उस पार मटरू रहते थे और इस पार हेमकोष प्रेस के पीछे मैं अपने परिवार सहित
किराए पर रहा करता था | यद्यपि यह पुल बड़ी गाड़ियों के लिए वर्जित था, फिर भी इस पर
काफी यातायात होता था | मटरू इस पुल से तक़रीबन एक किलोमीटर दूरी पर एक झोंपड़े में
रहते थे | उनका मकान मालिक एक नेक इंसान था जो दशकों पहले पूर्वी बंगाल से
विस्थापित हो यहाँ बस गया था | मेरी तरह ही मटरू को उनका मकान मालिक भी एक दिन
मिला था और रहम खा कर इन्हें रहने के लिए अपने आहाते में ही जमीन का एक छोटा सा
टुकड़ा दे दिया था | उस जगह पर बांस की फलटी गाड़ कर मटरू ने अपनी झोंपड़ी तैयार की
थी | बांस की फलटियों पर अन्दर और बाहर से मिटटी और गोबर का गाढ़ा लेप लगाकर सुखाने
के बाद ही उसकी छत तैयार की जा सकती थी | छत के लिए टिन या एस्बेस्टस शीट का
इंतजाम नहीं था | असम में केले और नारियल के पेड़ों की कोई कमी नहीं है | हर घर के
आगे-पीछे ये पौधे होते ही हैं | केले और नारियल के सूखे पत्तों से झोपड़ियों की छत
बनाना कोई ख़ास मुश्किल काम नहीं | मटरू भी इस कला में माहिर थे | मटरू के सर पर भी
अब एक छत थी, जो उन्हें कम से कम साधारण ठण्ड और छोटी-मोती बारिश से बचा तो सकती
ही थी |
आते-जाते मटरू से मुलाकात हो ही जाती थी | जब भी
दिख जाते, रिक्शा चलाते हुए ही हाथ ऊपर उठा कर अभिवादन करना नहीं भूलते | एक दिन
मोर्निंग शिफ्ट कर साईट (ऑफिस) से लौट रहा था | जैसे ही हेमकोष प्रेस के पास
पहुँचा, अचानक से मेरी निगाह एक उलटे पड़े रिक्शे पर पड़ी | बगल में मटरू गिरे पड़े
हैं | एक मिनट को कुछ समझ नहीं आया | सोचा टक्कर हो गई होगी और सामने वाला भाग गया
होगा | मुझे देखते ही मटरू की जान में जान आई | मटरू अगल-बगल ताकते हुए उठने की
कोशिश करने लगे | उस समय उनका पसीने से नहाया भयाक्रांत चेहरा ऐसा लग रहा था जैसे
अचानक किसी के सम्मुख शेर आ कर खड़ा हो गया हो | मैंने उन्हें आश्वस्त किया, फिर
उनकी निगाह रिक्शे पर पड़ी | मैं समझ गया | हम दोनों ने मिलकर रिक्शे को पहियों पर खड़ा
किया | मटरू कुछ बोल नहीं पा रहे थे | थोड़ी देर बाद उनके मुँह से आवाज़ निकली | मैंने
धीरे से पूछा, “क्या बात है मटरूजी, क्या हुआ ?” “पैसा, पैसा”, मटरू ने मुँह खोलकर
जैसे-तैसे बोलना शुरू किया | “भइया, इतनी दूर से धूप में रिक्शा चला कर लाया और
पैसे के नाम पर एक चवन्नी फेंक दिया | मैंने बोला, बाबू दो रुपये तो दीजिये | बस
फिर क्या, काटी दीम, भांगी दीम के नारे के
साथ हाथ-पाँव चालू | मार-मार के ई हाल कर दिया | रिक्शा का हाल तो आप देखिबे किया
है”, मटरू सारी कहानी थोड़े ही लब्जों में कह डाली | मैं सोचने लगा कि श्रीमान् जी
अगर किराया नहीं भी देते तो मटरू उनका क्या बिगाड़ लेता | मार-पीट क्यों ? जबकि असम
का आम नागरिक सहृदय एवं बेहद अमन पसंद है | यह केवल अपवाद मात्र ही था |
भय का वह बीभत्स रूप आज भी मेरे मस्तिष्क को
हिला देता है | अनायास सोचने लगा आखिरकार मटरू इतना भयभीत क्यों था ? उसने जरा भी
प्रतिकार क्यों नहीं किया ? मुझे महसूस होने लगा, “भय का जुड़ाव जीते रहने की लालसा
से जुड़ा है | घर में खुशहाली लाने की उम्मीद से भी जुड़ा है | परिवार और बच्चों के
मुख पर मुस्कान से जुड़ा है | क्या इतनी आसानी से कह देने मात्र से कोई भी निर्भय
हो जाता है ? भय मुक्त होना अपने आप में एक तपस्या है, यह केवल खुद के जीने या
मरने तक सीमित नहीं है | हम रोज भयभीत होते हैं | अपनी बात नहीं कहते, लाग-लपेट से
काम निकालते हैं | भय का लगाव समाज, देश और दुनियाँ के लगाव से जुड़ा है, उनके
सम्मुख और विमुख होने से जुड़ा है | कबीर और उनके समाज से भी जुड़ा है | शायद इसीलिए
भय-मुक्त और अभय होने के लिए लोग अपना परिवेश बदल लेते हैं | तो क्या इसे भय से
मुक्त होना कह सकते हैं ? भय से स्वतंत्रता एक स्वप्न जैसा है, कम से कम एक गृहस्थ
के लिए क्योंकि इसका सीधा संबंध जीने की स्वतंत्रता से जुड़ा है |”
2: दिखू
शिवसागर दिखू के किनारे पर बसा एक छोटा पर
ऐतिहासिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण क़स्बा है | महत्वपूर्ण इसलिए क्योंकि असम के इस
भाग पर तक़रीबन 600 सालों तक शासन करने वाले अहोम शासकों की यह राजधानी हुआ करती थी | यह इस शासन
काल की तमाम सांस्कृतिक एवं पारंपरिक विरासतों का भी केंद्र हुआ करती थी | दिखू
नदी इस क्षेत्र की जीवन रेखा है | तिबतो-बर्मन भाषा में ‘दी’ का शाब्दिक अर्थ है
जल या नदी और खो (हिंदी: खाई?, खोह ) का मतलब है तीब्र ढलान वाला, अर्थात दिखू एक
तीब्र ढलान वाली नदी है | इस बारह मासी नदी का प्रादुर्भाव (उद्गम) नगालैंड के
जुन्हीबोटो जिले की नुरुटो पहाड़ियों से होता है, जो समुद्र तल से लगभग 900 मीटर की ऊँचाई पर स्थित
है, और मोकोकचुंग तथा
लोंग्लेंग जिले से बहती हुई असम के मैदानी भागों में प्रवेश करती है और दिखोमुख
पहुँच कर अंततः ब्रह्मपुत्र में समाहित हो जाती है | लगभग 256 किलोमीटर लम्बी इस नदी का तक़रीबन
150
किलोमीटर हिस्सा पहाड़ियों
से होकर गुजरता है | नागिन की तरह बल खाती यह नदी नगालैंड की पहाड़ियों को छोड़ती
हुई जिस मैदानी भूभाग में प्रवेश करती है उस स्थान को नागिनिमोरा के नाम से जाना
जाता है | इस कस्बे का नाम ‘नगा रानी मोरा’ अर्थात “नगा रानियों का कब्रगाह’ के
नाम पर नागिनिमोरा पड़ गया | साल भर पानी होने के कारण दिखू के जल का उपयोग नगालैंड
के काफी बड़े हिस्से में खेतों की सिंचाई के लिए किया जाता है और यह मछलियों के रूप
में भोजन का भी एक बड़ा श्रोत है | इसके अतिरिक्त इस नदी का मनोरम दृश्य सैलानियों के लिए एक प्रमुख
आकर्षण प्रस्तुत करता है | इस नदी को अन्य नामों से जाना जाता है जिसमे डोइकलॉन्ग,
वशिष्ठ गंगा और दिक्सू ज्यादा प्रचलित हैं | यांग्यु और नानुंग दिखू की सहायक नदियाँ
हैं | ब्रह्म्पुत्र की तरह ही इस नदी की प्रतिष्ठा एक नर नदी के रूप में की जाती
है, जिसका जिक्र यहाँ के लोकगीतों में भी मिलता है |
जब भी तेज बारिश होती है, असम में तो अक्सर तेज
बारिश ही होती है, दिखू के किनारे झुग्गी-झोपड़ियों में बसे लोग सबसे पहले बेघर हो
जाते हैं | घर में कुछ ख़ास साजो-सामान न होने के कारण सभी उजड़े लोग नदी के तटबंध
पर इकठ्ठा हो जाते हैं | फिर बारिश रुक जाती है और आस-पास के तमाम नागरिक उफनती
दिखू का लुत्फ़ लेने नदी के किनारे आ जाते है | मटरू भी अक्सर इस तरह की बारिश के
शिकार होते रहते थे | ऐसे ही माहौल में मैं एक दिन नदी के किनारे पहुँचा हुआ था |
नदी के दोनों किनारों पर लोगों का मजमा लगा हुआ था | लोग खिलखिला रहे थे और आपस
में कहासुनी भी कर रहे थे | एक बार तो मुझे लगा जैसे ये सभी लोग मछली पकड़ रहे हों
| पर ऐसा नहीं था | नदी का यह तीब्र बहाव इस कार्य के लिए उपयुक्त नहीं था | सामने
तट पर मेरी निगाह मटरू पर पड़ी | वे भी अपनी झोंपड़ी गवां कर लोगों के साथ इस खेल का
आनंद ले रहे थे | बार-बार ‘पकड़ो-पकड़ो’ की आवाज से ऐसा लग रहा था जैसे अधिकांश लोग
कुछ पकड़ने के प्रयोजन में मशगूल हैं | लेकिन क्या ? उत्सुकता बस मैंने साथी
तमाशबीन से पूछ ही लिया, “भैया, ये लोग क्या पकड़ रहे हैं ?” उसने सामने नदी में
बहते पेड़ और डालियों की ओर इशारा किया | सचमुच नदी अपने साथ क्या-क्या नहीं बहा
रही थी | समूचे बड़े-बड़े पेड़, बांस, किनारे बसे बासिंदों की चारपाईयां और वह सब कुछ
जो नदी के रास्ते में आ सकता था | नदी के बीचो-बीच बहने वाली कोई भी वस्तु पकड़ में
नहीं आ सकती थी | फिर भी कुछ बड़े-बड़े लकड़ियों के लट्ठे और डालियाँ नदी में
बहते-बहते किनारे लग ही जाती थीं | लोगों का सारा जोश इन्हें ही पकड़ने के लिए उमड़
रहा था | आखिरकार जो कुछ नदी बहा ले गई, वह तो वापस मिल नहीं सकता था पर नदी इतनी
निर्दयी भी नहीं कि कुछ भी दे न सके | भविष्य में इन लकड़ियों का उपयोग खाना पकाने
के अतिरिक्त खूबसूरत कलाकारी के लिए भी तो हो सकता है ! जो भी हो, इस अवसर का आनंद
कुछ अलग ही होता है |
नदियाँ हमें जोड़ना चाहती हैं, हम इन्हें सीमाओं
में बांध कर अपनी सीमाएँ निर्धारित करना चाहते हैं | ये निर्बाध बहना चाहती हैं, हम इन
पर बांध बनाना चाहते हैं | ये हमें निर्मल, साफ़-सुथरा जल देना चाहती हैं, हम
इन्हें मल-मूत्र और गंदे नालों से कलुषित-दूषित और सड़ाना चाहते हैं | ये कुछ छीनती
हैं तो बदले में बहुत कुछ दे जाती हैं | ये हमारे रास्ते में नहीं, हम इनके रास्ते
में अवरोध उत्पन्न करते हैं | हम एक दूसरे से दूर रह कर भी इन नदियों के माध्यम से
एक दूसरे की संपदाओं का उपभोग कर पाते हैं | तभी तो नगालैंड में पला-पोषा पेड़ असम
के लोगों के रोजी-रोटी का माध्यम बनता है |
अब ठण्ड पड़ने लगी है | दिखू अपने तटबंध की
सीमाओं में कैद है | इसके किनारे टहलना अपने आप में एक अनुपम आभास दिलाता है | ऐसे
मौसम में इस नदी में नहाना और तैरना या किनारे बैठना ही अपने आप में एक अनुष्ठान
से कम नहीं है | तैराकी में अकुशल वयस्क भी इस नदी को पार कर सकते हैं | तकरीबन एक
मीटर गहरे पानी में कोई भी इस नदी में स्नान का आनंद ले सकता है |
