Monday, 24 September 2018

स्पर्श का मर्म




स्पर्श का मर्म
-राय साहब पाण्डेय
पादप धरती पर खड़े हुए,
हैं मूक बधिर से पड़े हुए,
बेबस आँखों से दृष्टिपात कर,
इंगित करते अनजान व्यथा,
इंगित करते अपनी व्यथा, पर सुने कौन?
हाँ, कौन सुने इनकी कथा |

अनकहा अगर सुन भी ले कोई,
तो क्या हल दे?
बेवश तो वह भी है,
है मुक्त नहीं वह भी बंधन से,
कोई पग से जकड़ा है तो कोई मन से,
दोनों की गति है एक रूप,
और एक दिखाई पड़े, पड़े ना,
पर एक समझना पड़ता है |


छू लेने भर से भी तो,
अपनत्व बोध हो सकता है,
पर इसमें भी कुछ कहा-सुनी का, 
अंदेशा तो रहता है,
स्पर्श की भाषा होती है,
स्पर्श भी मंशा रहित नहीं,
पर एक नियति तो तय समझो,
बिन कहे सुने भी अंकित है |

पढ़ सकते हैं जो चिरकालिक है,
कहने-सुनने की अरज नहीं,
बे-रुख हो या फिर कर्कश हो,
हो स्वार्थ-युक्त या निर्मल हो,
संज्ञा विहीन या छ्द्म्युक्त हो,
मंशा भी साफ़ झलकती है |

स्पर्श अगर है भाव-हीन,
फिर भाव कलश का मतलब क्या?
पुंज-प्रकाश भी अर्थहीन है,
तम से स्पर्श न हो उसका |

कण-कण में है आवेश भरा,
स्पर्श को व्याकुल क्षितिज खड़ा,
दूर रहे या रहे पास,
दृष्टियुक्त या दृष्टिहीन,
आयामयुक्त-आयामहीन,
स्पर्श का बंधन जीवन है,
तो जीवन का बंधन मुक्ति मार्ग |