Tuesday, 12 February 2019

चलते-चलते



चलते-चलते


-राय साहब पाण्डेय


राहों के जाल बुनते गए
क्यूँ हमने इस कदर,
कब मकड़ गया जकड़
हो खुद से बेखबर |

किसकी मंजिल कौन है
राहों को क्या पता ?
हम तो बस चलते रहे  
फुर्र मंजिलें हुईं  |

रास्ते में हमको मिले थे
पोखर के यार दोस्त,
नंगे बदन नहा रहे थे  
हम तो निकल गए |

कांपते हाथों में देखा लाठियाँ
अर्ध-नग्न बदन की वो झुर्रियाँ,
खाली, उदास आँखों की गहराइयाँ
हम तो मुगालते में थे, चलते गए |

रुक जा, ठहर जा एक पल
मिन्नतें भी आईं बार-बार,
पर कदम रुके नहीं, ठिठके नहीं
फांसले बढ़ते गए |

गैरों की बात कौन करे
वो तो गैर थे,
मोहब्बतों का हाथ थाम
हमने क्यूँ झटक दिया?

निर्झरों से बेरोक बहती
जीवन-सुधा की प्रबल धारा,
खुदगर्जी में अंधे हुए हम
विष मिला दिया |

सदियों से एक साथ चलते
दिल के बंधन से बंधे,
कड़वाहटों की बोल घोल हमने
दुश्मन बना लिया |

राह में ठोकर लगी थी 
फिर भी  हम रुके नहीं,
शोहरतों की गफलतों में चलते-चलते
राह को मंजिल समझ लिया |