चलते-चलते
-राय साहब पाण्डेय
राहों के जाल बुनते गए
कब मकड़ गया जकड़
हो खुद से बेखबर |
किसकी मंजिल कौन है
राहों को क्या पता ?
हम तो बस चलते रहे
फुर्र मंजिलें हुईं |
रास्ते में हमको मिले
थे
पोखर के यार दोस्त,
नंगे बदन नहा रहे थे
हम तो निकल गए |
कांपते हाथों में देखा
लाठियाँ
अर्ध-नग्न बदन की वो
झुर्रियाँ,
खाली, उदास आँखों की गहराइयाँ
हम तो मुगालते में थे, चलते गए |
रुक जा, ठहर जा एक पल
मिन्नतें भी आईं
बार-बार,
पर कदम रुके नहीं, ठिठके नहीं
फांसले बढ़ते गए |
गैरों की बात कौन करे
वो तो गैर थे,
मोहब्बतों का हाथ थाम
हमने क्यूँ झटक दिया?
हमने क्यूँ झटक दिया?
निर्झरों से बेरोक बहती
जीवन-सुधा की प्रबल
धारा,
खुदगर्जी में अंधे हुए हम
विष मिला दिया |
सदियों से एक साथ चलते
दिल के बंधन से बंधे,
कड़वाहटों की बोल घोल
हमने
दुश्मन बना लिया |
राह में ठोकर लगी थी
फिर भी हम रुके नहीं,
शोहरतों की गफलतों में
चलते-चलते
राह को मंजिल समझ लिया |