Wednesday, 30 August 2017

लोकतंत्र का नया गीत




लोकतंत्र का नया गीत

जनता ने यह पतवार सौंप दी माझी तेरे हाथों में,
 डुबा रहे यह सुंदर नैया आज बीच मझ धार में?  
कितने आश्रित बिलख रहे हैं सोचो उस संताप की,  
भूल गए क्या कीमत होती निर्दोषों के प्राण की?
वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्,....


देख रही है जनता सब कुछ सांठ-गाँठ की चाल को,
   तन ढकने से छुपा न सकते मन की इस कालिख को |  
शर्म नहीं क्या आती तुमको अपने ही व्यवहार पर?
दरबार लगाना कब छोड़ोगे बाबाओं के द्वार पर?
वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्,....


रामों और रहिमों को लज्जित कर रहते शान से,
 करते स्वयं घृणित कार्य उपदेश हैं देते ध्यान से |
हैरत और अंध भक्ति दो इनके महा हथियार हैं,
  तर्क-कुतर्क से कौमों में ये बोते नफरत बीज हैं ||  
वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्,....


आश्रम खोल ये नीच पुजारी बन बैठे डेरेदार हैं ,
 मुफ्तखोर, ठगहार ये बाबा करते धर्म अपमान हैं |
जनता समझ चुकी इनको अब नेताओं की बारी है,
    प्रजातंत्र में लोक मतों की मर्यादा सब पर भारी है ||   
वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्,....


खूनी कातिल लुच्चों का भी साथ तुम्हें मंजूर सदा
हो जाए चाहे भोली-भाली जनता तुमसे जुदा-जुदा |
कुर्सी की ताकत पर इतना अभिमान नहीं है अच्छा
सुधरो और समय के रहते कर लो मन को सच्चा ||
 वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्,....


कर्म सफल है करता जीवन चमत्कार का रोग नहीं,
नेता हों या बाबा, कसो कसौटी वरना कोई वोट नहीं |
न्याय चाहिए अगर यहाँ तो साहस धीरज ही मूल है,
छत्रपती और साध्वी को भी शत-शत नमन जरूरी है ||
वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्,....

-राय साहब पांडेय







Friday, 18 August 2017

मैं जनता ही सही



भाई मैं जनता ही सही

 गली और नुक्कड़ पर, चाय की चुस्की पर
चर्चा आम है जी आप का क्या ख़याल है,
भाई मैं न कोई गायक ना ही कोई शायर
  न मेरा कोई ख़याल न मेरी कोई गजल है |

धत् बुड़बक, इतना दिन तक शहर में रहा
तूँ फिर भी बौड़म का बौड़म ही रह गया?
अरे थोड़ा तो समझो जनता ही जनार्दन है,
 प्रौढ़ है, उसे ही तमाम मसलों की पकड़ है |

हर चाल की काट उसके ही पास होती है
विषय कोई हो आईडिया बेशुमार होती है,
नेताजी ने घुट्टी ऐसी घिसकर पिलाई है
 कि पान की पीक में नेता की उबकाई है |

आजकल नेताजी फैन-क्लबों की भरमार है
फिर भी सदस्य बनने की लम्बी कतार है,
जनता के जनार्दन बनने की कठिन होड़ है
 जनार्दन बहुमत में और जनता अल्पमत है |

कोई मुझे बौड़म कहे यह कैसे सह सकता
जनार्दन न सही, हूँ तो इस देश की जनता,
मैंने भी निकाले कुछ तीर पुराने कमान से
  अंजाने में ही सही पर लग गया निशाने से |
  
  धीरे से उठे, पीक थूंकने का बहाना बनाया  
खिसियानी सूरत बनाई,  इशारों से बुलाया,
  सोचा, लगता तो है बौड़म, पर बुड़बक नहीं   
चलाता हूँ तिकड़म देखें फँसता है या नहीं |

भैया सवाल क्यों, लाइन लगाते क्यों नहीं
यहाँ सवाल का जवाब सवाल है उत्तर नहीं,
कहाँ से हो, क्या करते थे कोई पूछेगा नहीं
 त्रिवेणी में डुबकी भर से पूर्व भी पाप नहीं |

मैंने सोचा, शायद नई-नई जनार्दनी है पाई
तभी तो नुक्कड़ पर अपनी दुकान खुलवाई,
यहाँ एक से एक जनार्दानों का है जमावड़ा
 चलो फूटो यहाँ से, बचाना है अगर थोबड़ा |

प्रबुद्धों की लाइन से हमें कोई गुरेज नहीं
    मुझे सवाल का जवाब चाहिए, सवाल नहीं,    
  भैया, मैं तो आम जनता हूँ, आम ही सही  
 थोड़ी जनता भी चाहिए, सारे जनार्दन नहीं |

-राय साहब पांडेय


   
  

Tuesday, 15 August 2017

A Short Trial Scene




A Short Trial  that changed the Judgement
(एक पुराने सच्चे मुक़दमे पर आधारित)
-राय साहब पांडेय 

स्थान :    बॉम्बे हाई कोर्ट
वर्ष   :    प्री-1960
केस    :        आपराधिक 307

सरकारी वकील (अधिवक्ता अभियोजन पक्ष) : माय लार्ड, पोस्टमैन का बयान और पुलिस का बयान सेम टू सेम, डू टू डू है | लेकिन पोस्टमैन दो लब्जों के लिए झूठ बोल रहा है | वादी (अभियोगी) ने पोस्टमैन को बताया कि मुजरिम (अभियुक्त) ने ही उसे चाकू मारा और पोस्टमैन ने भी मुजरिम को चाकू मारते हुए देखा |
अधिवक्ता ( बचाव पक्ष ) : माय लार्ड, पोस्टमैन कोई गवाह नहीं है | वह शिकायतकर्ता है |
पूरे कोर्ट रूम में सन्नाटा छा जाता है

पोस्टमैन ( मन में ) : यह तो बात बेवजह फंस रही है | सारी मेहनत पर पानी फिर रहा है | दरअसल वह दोनों को जानता है | पोस्टमैन न्यायाधीश की तरफ देखता है | अचानक न्यायाधीश की निगाह पोस्टमैन पर पड़ती है | पोस्टमैन हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता है |

न्यायाधीश : पोस्टमैन कुछ कहना चाहते हो?
पोस्टमैन  : यहाँ कुछ ऐसी सशंकित बात उत्पन्न हो गई है | अगर हुजूर की इजाज़त हो तो मैं कुछ कहना चाहता हूँ |
न्यायाधीश : पूरी इजाज़त है |

पोस्टमैन  : हुजूर जिस रात यह वाकया हुआ उस रात मैं वादी के चक्की में ही सोया हुआ था | इसके पहले मैं कभी भी वहाँ रात को नहीं रुका, यद्यपि मैं वादी को जन्म से ही जानता हूँ | उस रात बहुत तेज आँधी-तूफ़ान आया और बेमौसम बरसात हुई | आँधी और बारिश इतनी तेज थी कि बिजली गुल हो गई | लगातार बिजली की चमक और बादलों के गड़गड़ाहट बीच कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था | बारिश इतनी ज्यादा हुई कि सड़क पर हर जगह पानी-पानी हो गया था | ऐसी अँधेरी रात में एक आदमी चक्की के अन्दर घुसा और कुछ बड़बड़ाते हुए वादी से उलझ गया | मैंने समझा चक्की में अनाज पिसाने के लिए कोई आया होगा और कुछ कहासुनी हो गई होगी, इसलिए गाली-गलौज कर रहा होगा | वादी नींद में था अतः उसे भी कुछ समझ नहीं आया | लेकिन जब वह घायल होकर कराहने लगा तो मैं समझा यह तो मामला कुछ संगीन लग रहा है | हुजूर, उस अँधेरी रात में कुछ नहीं सूझ रहा था | मैं चक्की में इधर-उधर हाथ-पाँव मारने लगा कि कहीं कुछ मिल जाए और मैं हमलावर को खदेड़ सकूँ | सौभाग्यवश एक पुराना छाता मिल गया | मैं उस छाते को अँधेरे में फटकारने लगा | छाता कहाँ पड़ रहा है किसको लग रहा है, कुछ पता नहीं चल रहा था | मैं किसी तरह हमलावर को भगाने में कामयाब रहा | कुछ दूर तक उसका पीछा भी किया पर उस घुप अँधेरे में अधिक दूर तक उसका पीछा नहीं कर सका | रास्ते में जगह-जगह बिजली के खम्भे और पेड़ सड़कों पर गिरे हुए थे | जल्दी में मैं वापस फिर चक्की में आ गया | इधर वादी बुरी तरह घायल था | मैंने अगल-बगल से कुछ लोगों को इकट्ठा किया और घायल को अस्पताल पहुँचाया | फिर घायल के सगों को सूचित किया | जब और लोग अस्पताल पहुँच गए तब मैंने थाने जाकर शिकायत दर्ज कराई |
उस समय थाने में इंस्पेक्टर परब की ड्यूटी थी | उन्होंने कहा, “पोस्टमैन केस की पक्की एफ. आई. आर. बनाने में कुछ वक्त लगेगा, तुम्हें इंतजार करना पड़ेगा |” मैंने उनसे अनुमति लेकर फिर आ जाने को कहा | अस्पताल होते हुए घर जाने के बाद पुनः पुलिस थाने आने में मुझे करीब पाँच घंटे लग गए | इस बीच थाने में   दूसरे इंस्पेक्टर आ गए थे | मिस्टर तम्बाकूवाला | मैं उनके पास पहुँचा और एफ. आई. आर. की कॉपी ली और पढ़ने लगा | उसमें दोनों अमुक बातें जो सरकारी वकील साहब ने कही, वह भी लिख दी गई थी | मैंने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया तो मिस्टर तम्बाकूवाला हमें जद्द-बद्द सुनाने लगे | मैं साइन करने से मना करता रहा | इस बीच बगल में बैठे दूसरे इंस्पेक्टर ने कहा, “पोस्टमैन तुम क्यों परेशान हो रहे हो? तुम भले आदमी हो साइन करके जाओ | कोर्ट में जो कुछ कहना हो कहना |” हुजूर, मैंने साइन कर दिया |   
   
न्यायाधीश   : पुलिस इंस्पेक्टर की तरफ देखते हुए पूछा, “आपके यहाँ कोई परब                  इंस्पेक्टर हैं?
पुलिस      : जी, हुजूर |
न्यायाधीश   : उन्हें तुरंत कोर्ट में हाजिर किया जाए |

करीब एक घंटे बाद इंस्पेक्टर परब कोर्ट में दाखिल हुए और अपना पैर पटकते हुए एक जोरदार सल्यूट ठोंका |

न्यायाधीश    : इंस्पेक्टर परब आप पोस्टमैन को जानते हैं?
इंस्पेक्टर परब : जी, हुजूर |
न्यायाधीश    : आप ने इनकी कंप्लेंट लिखी थी?
इंस्पेक्टर परब : जी, हुजूर |
न्यायाधीश    : आप ने इनकी कंप्लेंट लिखी तो इनका साइन अपने सामने क्यों                  नहीं लिया?
इंस्पेक्टर परब : हुजूर मैं उस रोज उच्च ताप से पीड़ित था और जल्दी घर चला                   गया था |
न्यायाधीश    : आप ने अमुक दो बातें इनकी कंप्लेंट में लिखी थी?
इंस्पेक्टर परब : जी नहीं, हुजूर |
न्यायाधीश   :  आप जा सकते हैं

इंस्पेक्टर परब ने पुनः एक जोरदार सल्यूट ठोंका और कोर्ट के बाहर चले गए | कोर्ट की उस दिन की कार्यवाही स्थगित हो गई |
दूसरे दिन और गवाहों के बयानात लिए गए | अंततः कोर्ट की सुनवाई समाप्त हुई और फैसले की घड़ी आ गई |

कोर्ट में पुनः सन्नाटा पसरा था | अभियोजन और अभियुक्त दोनों पक्षों के लोग सांस रोके कोर्ट में बैठ गए और न्यायाधीश की प्रतीक्षा करने लगे |
कोर्ट में न्यायाधीश का प्रवेश हुआ | उन्होंने अपना फैसला सुनाया | अभियुक्त बा- इज्जत बरी हो गया |

पोस्टमैन ने संतोष की सांस ली क्योंकि उसने घायल को अस्पताल में समय से भरती कराकर जान बचाने और अभियुक्त को कोर्ट से बरी कराने में सार्थक भूमिका निभाई | घायल और अभियुक्त दोनों आजीवन पोस्टमैन का उपकार मानते रहे |



Sunday, 13 August 2017

उलझन की ख़ामोशी



उलझन की ख़ामोशी

मुझमें भी तुम, तुझमें भी तुम
फिर हममें उन्माद व्याप्त क्यों?
  राम-रहीम के पावन रिश्तों में    
गूंजे उलझन की ख़ामोशी क्यों?


चर में अचर, अचर में चर, फिर  
ऊंच-नीच का भेद व्याप्त क्यों?  
संसार में पैठे इस कोलाहल से  
गूंजे उलझन की ख़ामोशी क्यों?
                                                                                
तिमिर-मिहिर का गहरा नाता  
ज्ञान-दंभ का दंश व्याप्त क्यों?
ब्रह्माण्ड के इस नश्वर स्वर में  
गूंजे उलझन की ख़ामोशी क्यों?


 सत्यमेव जय-घोष ही होता 
     फिर सत्य स्वर्ण  से आवृत क्यों?
जग के इस ढोंगी आडंबर में
गूंजे उलझन की ख़ामोशी क्यों?


पपिहा प्यासा भले मरे पर
आस तजे ना स्वाती का क्यों?
अप्रतिम धैर्य का यह प्रतीक
गूंजे उलझन की खामोशी क्यों?


हिंसक प्रतिवादों से उलझा मानस
लिप्त हो गया थोथे गुरूर में,
दृष्टि विहीन लोचन ही कारण
गूंजे उलझी ख़ामोशी बन मन में |


-राय साहब पांडेय


















Sunday, 6 August 2017

बादलों की निष्ठुरता



बादलों की निष्ठुरता 
  
सूखे और बाढ़ का चक्र चलता ही रहता है | सदियों से ऐसी ही मान्यता चली आ रही है कि इन दोनों के लिए इंद्र देवता ही जिम्मेवार हैं | सूखा हो या बाढ़ हो या फिर बेमौसम बरसात हो, इन सब का सबसे अधिक कुप्रभाव किसानों पर ही पड़ता है और ज्यादातर किसानों का मूल और सूत दोनों मिट्टी में मिल जाता है | आज तो फसल बीमा योजना के तहत शायद कुछ लोगों को राहत मिल जाती हो पर कुछ साल पहले तक सब ठन-ठन गोपाल ही था |
गाँव में भयंकर सूखा पड़ा है | आसमान में दूर-दूर तक बादलों का नामों-निशान नहीं दिखाई दे रहा | गाँव के सयाने और अनुभवी लोग आपस में बैठक कर रहे हैं, आखिर हाथ पर हाथ धर कर बैठने से तो कुछ समाधान नहीं निकलेगा | गाँव के अनुभवी पंडितजी की भी राय ली गई | आखिरकार पहला उपाय आ ही गया | चुम्मन चाचा को यह जिम्मेदारी सौंप दी गई | फिर देर किस बात की इसमें कौन सा खर्च लगता है | दिन की भरी दुपहरी में ही चुम्मन ने गाँव के कुछ छोटे-छोटे बच्चों को एकत्र किया और शुरू हो गए | सबसे पहले मुखिया जी के दरवाजे पर दस अधनंगे बच्चे पहुँच गए और जोर-जोर से चिल्ला-चिल्ला कर गाने लगे-
काल-कलौती उज्जर धोती,
मेघा सारे पानी दे
नाहीं आपन नानी दे
मुखिया के घर से एक नौकर दो बाल्टी पानी लेकर आया और दरवाजे के सामने  जमीन पर ही उड़ेल दिया | बच्चे उस कीचड़ में उपरोक्त पंक्तियाँ दुहराते हुए लोट-पोट करने लगे | इतनी धूप में भला दो बाल्टी पानी से क्या होता है? बच्चे और पानी की माँग करने लगे पर और पानी कैसे मिलता? यह कोई नहलाने का उत्सव थोड़े ही था ! पूरी की पूरी टीम इसी तरह गाँव के सभी घरों से पानी की गुहार लगाती रही और बच्चे मिट्टी में सराबोर होते रहे | तीन घंटे तक दुपहरी में यह कार्यक्रम चलता रहा | चुम्मन चाचा का आयोजन सफल रहा | बुजुर्गों ने उन्हें इस बात के लिए शाबाशी दी | बच्चों के घर वाले भी खुश थे | क्यों न हों? आखिर इस नेक काम में उनके बच्चों की भागीदारी जो थी !
इन पंक्तियों का क्या महात्म्य या सार्थकता है? यह न तो मुझे उस समय मालूम था और न आज मालूम है | यह भी शायद कर्म-कांड का एक हिस्सा है जो इंद्र देव को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है | हाँ इसका उद्देश्य अवश्य पता था कि ऐसा करने से बादल पानी बरसाते हैं, भले ही आसमान में दूर तक बादलों की एक लीक भी न हो ! काल-कलौती ख़त्म हुई | एक हफ़्ता बीत गया | बारिश क्या एक बूँद भी पानी नहीं बरसा |
लोग अकाल से त्रस्त थे ऊपर से उनका यह अस्त्र भी खाली गया | उनकी व्यग्रता बढ़ना स्वाभाविक थी पर उम्मीद पर दुनिया कायम है | तरकश में अभी और अस्त्र हैं | अब महिलाओं की बारी थी | भुलनी चाची ने मोर्चा सँभाला | चाची की अगुआई में महिलाओं का जमावड़ा हुआ | अगर आज का समय होता तो आँगनबाड़ी से महिलाओं के लिए चाय का भी इंतजाम हो जाता | खैर, बिना चाय-पानी के ही बात गुप्त रखने के वादे के साथ मीटिंग समाप्त हो गई | लेकिन क्या बात गुप्त रह सकती थी? पर बुजुर्गों की सख्त हिदायत थी कि महिलाओं के काम में किसी की भी कोई दखलंदाजी न हो और पुरुष वर्ग इससे बिलकुल दूर ही रहे |
पुरुष-वर्ग दूर ही रहा | बिना बादलों वाली चाँदनी रात ! एक दूसरे का चेहरा स्पष्ट दिखाई दे रहा था | कुछ महिलाओं में स्वभावतः खुलापन थोड़ा ज्यादा होता है पर अधिकतर संकोची किस्म की होती हैं | महिलाएं गाँव के बाहर एक खेत में आ गईं | योजना के अनुरूप ही चाची ने दस निर्वस्त्र महिलाओं का नेतृत्व किया | खेत में हल चलाना प्रारंभ हुआ, हल कुछ फीट तक चला और रोक दिया गया | जी हाँ, हल रुक गया इसलिए नहीं कि कोई अड़चन आ गई या हल किसी गड़े हुए धन के कलश से टकरा गया और न ही यह खेत की जुताई का कार्यक्रम था | यह तो सूखे खेत में निरीह महिलाओं द्वारा हल चलाकर इंद्र देवता के आगे अपनी विवशता व्यक्त करने का प्रतीक मात्र था |
यह आयोजन भी सफल रहा पर परिणाम सिफ़र | त्रेता युग के महाराज जनक और महारानी सुनयना के प्रयोग से ली गयी प्रेरणा इस कलियुग में अपेक्षित परिणाम न ला सकी | भुलनी चाची और अन्य महिलाओं का यह बलिदान भी व्यर्थ गया | इंद्र देवता नहीं पिघले | गाँव वालों की बेचैनी काफी बढ़ गई | कहाँ इस मौसम में धान की रोपाई हो जाती थी पर इस साल अभी तक बीज भी नहीं डाले जा सके हैं | जो परिवार पूरी तरह खेती पर ही आश्रित हैं उनका तो बहुत बुरा हाल है | जिनके पास सिचाई का साधन है, उन्होंने बीज तो डाल दिए हैं पर रोपाई हो पाएगी या नहीं, सब भगवान भरोसे |  
अब गाँव पंडितजी की शरण में | बुजुर्ग लोग हवन कराने के पक्षधर थे तो पंडितजी उसके लिए अभी राज़ी नहीं थे | कारण, हवन का अस्त्र वे अभी अपने तरकश से नहीं निकालना चाह रहे थे | यह तो उनका ब्रह्मास्त्र था | अगर यह चूक गया तो ! उन्होंने एक और उपाय सुझाया | इसके मुताबिक़ एक ऐसा नवयुवक तैयार किया जाए जिसके पिताजी जिंदा न हों और वह स्वेच्छा से इस काम के लिए राज़ी हो | बुजुर्गों की निगाह तुरंत टुन्नी भैया के ऊपर गड़ गई | टुन्नी एकदम खड़े हो गए | जोशीले लफ्जों में बोले, “हाँ, हाँ मैं तैयार हूँ और बिलकुल अपनी मर्जी से, बिना किसी दबाव के | इस नेक काम के लिए तो मैं कुछ भी करने को हाज़िर हूँ | पंडितजी बताइये क्या करना होगा?” पंडितजी ने अत्यंत गंभीर मुद्रा अख्तियार की और कहा, “कल सुबह नहा धो कर मंदिर पर पहुँचो |”
रात हो गई | चाँदनी रात में टुन्नी अपनी खाट पर करवट ले रहे हैं | आँख में नींद का नाम नहीं | एक तरफ लोगों के लिए कुछ कर गुजरने का जोश पर दूसरी तरफ मन में कुछ अनिष्ट होने की आशंका | सोचने लगे, “मैंने तो खुद ही हामी भरी है, किसी ने कोई दबाव नहीं डाला, फिर मेरे मन में यह आशंका क्यों?” फिर अचानक उन्हें ‘प्राण जाय वरु बचन न जाई’ याद आ गई | हनुमान चालीसा बुदबुदाते-बुदबुदाते कब नींद आ गई, उन्हें इसका ज्ञान ही नहीं रहा |
टुन्नी आज सवेरे ही उठ गए | नहा-धो कर नई गंजी और धोती पहनी फिर नंगे पाँव मंदिर की तरफ चल दिए | टुन्नी को बड़ा आश्चर्य हुआ जब उन्होंने पंडित को मंदिर पर पहले से ही हाज़िर पाया | खैर, कोई अन्य अवसर होता तो पंडितजी टुन्नी को लेट-लतीफ़ होने के लिए कुछ न कुछ फटकार तो अवश्य ही लगाते पर आज वे भी बड़े गंभीर लग रहे थे | शायद उनके मन में भी कुछ चल रहा था | टुन्नी ने नया जनेऊ धारण किया | पंडितजी ने कुछ मंत्र पढ़े और टुन्नी को शंकर जी की पिंडी उठाने के लिए कहा और खुद आगे-आगे चले | मंदिर का द्वार पूर्व दिशा में था और मंदिर से सीधे बीस कदम पर तुलसी का पौधा लगा हुआ था | पंडितजी के आदेशानुसार धूप में तुलसी के पौधे के समीप ही पिंडी रख दी गई | अब चौबीस घंटे शिव जी को धूप में पड़े रहना था | ऐसा करने के पीछे शायद अपनी व्यथा को सीधे भगवान से जोड़ने का एक प्रतीकात्मक उद्देश्य हो सकता है | कुछ समय तक पंडितजी और टुन्नी वहीँ बैठे रहे और मन ही मन अपने इस कृत्य के लिए भगवान से क्षमा याचना करते रहे | दोनों लोग फिर बिना किसी संवाद के अपने-अपने घर आ गए |    
दिन ढलने को आया | सूर्य भगवान को अस्त होने में अभी भी कुछ वक़्त बाकी था | गाँव के बच्चे मंदिर पर खेलने आ गए | अकसर बच्चे अपने खेल में ही व्यस्त रहते थे और मंदिर के अन्दर-बाहर ताक-झाँक नहीं करते थे | कुछ देर खेल में व्यस्त रहने के बाद बच्चे अपने-अपने घरों को चलने लगे | अचानक एक बच्चे की निगाह तुलसी के झाड़ पर पड़ी और पास में रखे शिव जी की पिंडी पर भी | उसने अपने एक साथी को रोक कर कहा, “श्यामू देख, शिव जी की पिंडी मंदिर के बाहर है | पता नहीं कैसे बाहर आ गई | चलो अन्दर रख देते हैं |” दोनों बच्चों ने शिव जी को पकड़ कर मंदिर में पुनः स्थापित कर दिया | फिर दोनों ने किसी अनिष्ट की आशंका को ध्यान में रख कर किसी से यह बात नहीं बताई |
सुबह हुई | पंडितजी और टुन्नी निर्धारित समय पर मंदिर पहुँचे | तुलसी के पौधे के पास शिव जी की पिंडी न पा कर बेहद परेशान | भागे-भागे मंदिर की तरफ गए | अन्दर शिव जी विद्यमान थे | दोनों ने राहत की सांस ली | परंतु दूसरे ही क्षण एक-दूसरे को आश्चर्य और कुतूहल भरी नज़रों से देखने लगे | मन में बुरे ख़याल आने लगे | दोनों मन ही मन सोच रहे थे कि शिव जी को उनके स्थान से हटाकर उन्होंने अनिष्ट कार्य किया है | मंदिर में शिव जी की पिंडी के आगे काफी देर तक बैठे रहे और अपने कुकृत्य के लिए क्षमा-याचना करते रहे | अब तक यह बात पूरे गाँव में बिजली की तरह फ़ैल चुकी थी | लोगों में भयंकर निराशा छा गई | यह भी प्रयास बेकार गया | अब क्या होगा?
पंडितजी का बताया हुआ यह उपाय असफल और निष्फल हो गया | अब किसी और उपाय पर चर्चा के लिए कोई आगे आने को भी तैयार नहीं हो रह था | कुछ निंदक  तो चोरी-छुपे इन सब उपायों का मजाक भी उड़ाने लगे थे | लो हो गई बारिश | अगर यह मनुष्य के वश में ही होता तो इंद्र भगवान नाराज ही क्यों होते? पर मुसीबत में मनुष्य क्या-क्या नहीं करता? खैर, अब की बार मुखिया जी सामने आये और पंडितजी से अनुनय-विनय करके उन्हें हवन-यज्ञ कराने के लिए राज़ी कर लिया | यह हवन मंदिर पर ही होना निर्धारित हुआ | आनन-फानन में सभी तैयारियाँ पूरी कर ली गईं | दूसरे दिन सुबह मुखिया जी अपने परिवार के साथ मंदिर पर उपस्थित हो गए | एक-एक करके गाँव के अधिकांश लोग मंदिर पर जमा हो गए | एक विशाल हवन कुंड तैयार हो गया | गाँव के हर घर के एक व्यक्ति ने हवन में हिस्सा लिया | आयोजन इतना बड़ा था कि दूसरे गाँवों के लोग भी शामिल किए गए | मंत्रोच्चार और महिलाओं के मंगल-गीत के बीच विधान पूर्वक हवन कार्यक्रम प्रारंभ हुआ | पंडितजी और उनके अन्य सहयोगी पूरे मनोयोग से हवन करा रहे थे | हवन-सामग्री और गाय का घी पंडितजी के स्वाहा बोलने के साथ ही अग्नि देव को समर्पित होने लगा | कुंड में आम की सूखी टहनियाँ प्रज्वलित होने लगीं | हवन से निकला धुआं चारों दिशाओं में फैलने लगा | लोगों के मुख पर असीम संतोष का भाव था | इस समय किसी के मन में न तो किसी किस्म की कोई आशंका थी और न ही कोई बुरे ख्याल | सब पूरे समर्पण के साथ इस आयोजन के सफल होने की कामना कर रहे थे | तीन घंटे तक चला यह हवन कार्यक्रम विधिवत संपन्न हो गया | मुखिया जी समेत सभी लोग बेहद प्रसन्न थे |   
आयोजन सफल रहा | पर मुराद कब पूरी होगी, इसका सब को बेसब्री से इंतजार था | लोगों की निगाहें आसमान में बादलों का तलाश कर रही थीं | यदा-कदा बादलों की लीक भी दिखाई पड़ जाने पर लोगों में उम्मीद की किरणें जग जाती थीं | सूरज आसमान में दिखा नहीं कि लोगों के माथे पर चिन्ता की गहरी लकीरें उभर आती थीं | पानी बरसेगा, यही उम्मीद ले कर लोग जी रहे थे | किसी के पास कुछ करने को नहीं था | मवेशी मर रहे थे, लोगों का पलायन भी शुरू हो गया था | कुछ लोग अब भी हवन के परिणाम पर सकारात्मक सोच रहे थे | एक हफ़्ता और बीत गया | इंद्र देव कुपित ही रहे | सारी आशाएं ध्वस्त हो गईं | पर निराशा और कुंठा के बीच भी कुछ लोग अगले साल अच्छी बारिश के लिए अभी से ही प्रार्थना करने लगे | आखिर यही उम्मीद ही तो है जो मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती रहती है |
दैवी आपदाओं के समक्ष जब इंसान का वश नहीं चलता तो वह क्या करे? अपनी सूखी खेती देख कर किसके पास जाए? सब कुछ ले देकर उसे भगवान का सहारा ही जान पड़ता है | अनेक जतन करता है, ईश्वर के आगे माथा नवाता है, मन्नतें  मानता है, तरह-तरह के अवैज्ञानिक तरीके अपनाता है | शायद कुछ काम आ जाए | मैंने गाइड फिल्म में इस तरह की वर्षा होते जरूर देखा है पर हकीकत में ऐसा होते कभी नहीं देखा | और मेरा दावा है कि इस तरह के उपायों से ऐसा कुछ होते हुए आप ने भी कभी नहीं देखा होगा | पर इंसानी फितरत कुछ ऐसी है कि उसकी  चमत्कार देखने की अतृप्त लालसा हमेशा जागृत ही रहती है क्योंकि इससे उसके  स्वार्थ सिद्ध होने की संभावना बनी रहती है | इन सब संभावनाओं के पीछे संभवतः संयोग का बहुत बड़ा करिश्मा अवश्य होता होगा, तभी तो अनादि काल से लेकर आज तक यह इच्छा मरी नहीं है बल्कि और बलवती होती प्रतीत हो रही है, अन्यथा आज भी क्रिकेट टीम की जीत के लिए या किसी खास व्यक्ति या राजनीतिक दल के विजयी होने के लिए हवन या यज्ञ करने-करवाने की ख़बरें अकसर सुनने में आतीं क्या? सबसे अधिक आश्चर्य तो तब होता है जब किसी चमत्कार के न होने के बावजूद भी चमत्कार के ठेकेदार फल-फूल रहे हैं |
कुछ ने मान लिया कि बादलों ने धोखा दिया तो कुछ ने अपने करमों को कोसा पर किसी ने भी अपने द्वारा किए गए अर्थ-हीन उपायों पर प्रश्न-चिन्ह नहीं लगाया !








Thursday, 3 August 2017

काला टीका





काला टीका

बच्चे को नहला-पोछकर 
प्यार से वस्त्रों को पहनाकर,
कंघी की, काजल भी लगाया
पर माथ तो अब भी सूना है
इसीलिए तो टीका काला है |

नज़रों की है कुदृष्टि काली
कजरौटे का काजल भी काला,
श्याम सलोने मुख-मंडल को
किसने मुरझाते देखा है?
इसीलिए तो टीका काला है |

बिस्तर पर हो बेटी-बेटा
सिरहाने होता कजरौटा,
नज़रों की काली ताक़त से
क्या पेड़ भी सूखते देखा है?
इसीलिए तो टीका काला है |


बेटी बड़ी हो गई तो क्या ?
कजरौटा गुम गया भी तो क्या?
आँख के कोने में काजल है  
अब इसी से काम चलाना है
इसीलिए तो टीका काला है |


बदल गए हैं रीति-रिवाज
मन-मस्तिष्क हैं बदले क्या?
भले माथ पर ना झलके
पर पैर का तलवा काला है
इसीलिए तो टीका काला है |


मन में पसरा इस कदर वहम
मस्तिष्क न माने इसे तो क्या?
ना लगे नज़र, खुश रहे शिशू
माँ की बस यही इबादत है
इसीलिए तो टीका काला है |

-राय साहब पांडेय