Friday, 18 May 2018

सकूर





सकूर
-राय साहब पाण्डेय 

आज सकूर चाचा बहुत याद आए,
उमर में चाचा लगते थे, पर मुसलमान थे,
कब नमाज पढ़ते किसी ने न जाना,
धुनते थे खूब धुनिया जो थे,
हम सब के लिए गद्दे और रजाई |


सकूर अब भी चाचा ही थे,
थोड़े और बुजुर्ग हो गए, अब भी मुसलमान ही थे,
पर अब वह सकूर भाई बन गए थे,
नमाज कब पढ़ी, अब भी किसी ने न जाना,
धुनिया थे पर अब धुनते नहीं थे,
जलाते थे पेट्रोमैक्स,शादी हो या हो सगाई |


सकूर अब भी चाचा ही होते थे,
अब काफी बुजुर्ग हो गए थे, अब भी वह मुसलमान ही थे,
पर अब वे न चाचा रहे और न ही भाई,
अब वे सकूर मियां हो गए थे,
धुनिया तो अब भी थे, पर अब वे न धुनते थे, 
न ही पेट्रोमैक्स जलाते थे,
अब वे दुआ देते थे, बन कर के सांई,
पाने को मुट्ठी भर दाना, हो कोई भी, हिन्दू या इसाई |


सकूर अब भी चाचा ही हैं, पर सबके लिए नहीं,
अब वे इस दुनियाँ-जहाँ में नहीं, 
बसते हैं दिलों में पर सबके नहीं,
समरसता है जिनमे, ज़ज्बात है जिनमे और 
मुकम्मल ईमान है जिनमे,
उनके लिए सकूर न ही थे धुनिया और न ही मुसलमान,
न ही बत्तीवाला और न ही कोई साईं-फ़कीर,
जिसकी उठती थी लकुटी दुआ के लिए,
बस एक नेक बंदा, एक नेक इन्सान |












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