Tuesday, 21 August 2018

मे डाम मे फी




मे डाम मे फी
-राय साहब पाण्डेय




किसी भी संस्कृति में पुरखों और पितरों को सम्मान एक उत्तम परंपरा है | हिन्दू शास्त्रों के अनुसार ऐसी मान्यता है कि जो स्वजन इस संसार को छोड़ गए हैं वे चाहे किसी भी रूप में या किसी भी लोक में हों, उनकी तृप्ति के लिए आदर पूर्वक जो तर्पण और शुभ संकल्प किया जाता है, उसे ही श्राद्ध कहा जाता है | श्राद्ध का अर्थ है अपने देवों, परिवार, वंश परंपरा, संस्कृति और इष्ट के प्रति श्रद्धा रखना । श्राद्ध पक्ष को पितृ-पक्ष या महालय के नाम से भी जाना जाता है | इस पक्ष का महात्म्य उत्तर और उत्तर-पूर्व के राज्यों में बहुत अधिक है | दक्षिण भारत में इस पक्ष को अन्य नामों से बोला जाता है | तमिलनाडु में अमावसाई, केरल में करिकडा वावुबली  और महाराष्ट्र में पितृ पंधरवडा  नाम से जानते हैं |

आज 31 जनवरी है | शिवसागर टाउन में काफी चहल-पहल है | मटरू अपने रिक्शे में तीन-तीन सवारियों को भर-भर कर जोय सागर की तरफ ल जा रहे हैं ‘मे-डाम-मे-फी’ का सार्वजनिक  आयोजन जो है | ‘मे ’ का अर्थ है ‘चढ़ावा’, ‘डाम’ का मतलब ‘पूर्वज’ तथा ‘फी’ का तात्पर्य ‘देवताओं’  से होता है | असम में टाई-शान जनजाति के अहोम लोग अपने पूर्वजों के सम्मान में चढ़ावा चढ़ाते हैं और देवताओं को आहुति देते हैं | अहोम राजवंश के 600 सालों के लम्बे इतिहास में यहाँ के राजाओं ने इस क्षेत्र की संस्कृतियों को जोड़ने और आत्मसात्करण करने में एक केन्द्रीय भूमिका अदा की है | बड़े-बूढों का आदर करने का रसम-रिवाज यहाँ पर बखूबी मनाया जाता है और उन्हें देवतुल्य माना जाता है | वस्तुतः पिता के लिए असमिया भाषा में ‘देवता’ शब्द ही प्रचलित है | अहोम परंपरा में जो रिवाज प्रचलित हैं, उनमे उम्फा पूजा भी एक महत्त्वपूर्ण रिवाज है | इस पूजा में अहोम वंशजों के मुख्या देव ‘लेंग्दों’ , जो इनके पुरखे माने जाते हैं, की पूजा की जाती है | पुराने काल में यह पूजा अहोम राजा, राज्य और प्रजा की संपन्नता के लिए तथा शत्रु पर विजय के लिए किया जाता था | इस पूजा में झींगुरों, बत्तखों, मुर्गों, बकरों, सूअरों, बैलों, भैसों और हाथियों तक की बलि दी जाती थी | इस पूजा के लिए एक अष्टकोणीय वेदी निर्मित की जाती है जिसे ‘देवघर’ कहते हैं | इसके अलावा बांस के तीन अतिरिक्त चबूतरे दूसरे देवताओं के लिए बनाए जाते हैं | बीच की वेदी पर सात मुख्य प्राकृतिक देवताओं, जैसे- ‘लेंग्दों‘ (स्वर्ग का राजा), ‘लंग्दीन’ (पृथ्वी), ‘ख्वाक्हम’ (पानी का देवता), ‘चेंग-मुन’ –‘चेंग बान’ (सूर्य-चन्द्र), और ‘जसिंग्फा’(प्रज्ञा की देवी) इत्यादि की पूजा की जाती है | मध्य वेदी के दाईं ओर कुछ सामान्य देवताओं जैसे- ‘लंग्कुरी’(पर्वत देव), ‘लाई-लुंग-खां’(वन देवी) आदि की भी आराधना की जाती है | वेदियों के सम्मुख केले के पेड़ से बने दीप खंभ पर 25 दीये प्राकृतिक देवों (डोय-मा-लुंग-फुरा) के नाम पर प्रज्ज्वलित किए जाते हैं | पूजा के प्रारंभ में सभी वस्तुओं पर पवित्र जल (‘नाम-जा-रिऊ–जा-राइ’ ) छिड़का जाता है | पशुओं और पक्षियों की बलि उनके गर्दनों काट कर नहीं बल्कि दबा कर दी जाती है |

अस्सी के दशक में एक ‘टाई वाला जेंटलमैन’ शिवसागर कस्बे में साइकिल पर सवारी करते हुए अक्सर दिख जाते थे | सर पर एक अंग्रेजी हैट और हाथ में एक छड़ी भी हुआ करती थी | अक्सर लोगों को अंग्रेजी में हिदायत देते नज़र आते थे | ऐसा लगता था जैसे खुद ही ट्रैफिक पुलिस हों | बाहरी लोगों को उनके बारे में ज्यादा कुछ मालुम नहीं होता था | जोयसागर का फेरा लगाते-लगाते मटरू की मुलाकात इस ‘टाई वाले जेंटलमैन’ से हो गई | साइकिल सवार आज मटरू के रिक्शे पर सवार था | मटरू के लिए यह सवार अनजान नहीं था | कई बार यह जेंटलमैन मटरू के रिक्शे को रोक कर अंग्रेजी में डांट-फटकार लगाई थी | मटरू मे-डाम-मे-फी  के इस उत्सव के बारे में कुछ नहीं जानते थे पर जानने के लिए काफी उत्सुक थे | जेंटलमैन इसके बारे में जो जानता था, बताना शुरू किया | मे-डाम-मे-फी के इतिहास के बारे के में इतिहासकार बताते हैं कि राजा शुन्गमुंग दिहिंगिया ने धनसिरी नदी के किनारे कचारियों को हराने के पश्चात विजयोत्सव के दौरान उस समय की प्रचलित परंपरा के अनुसार राजा और प्रजा के दीर्घायु की कामना के लिए मे-डाम-मे-फीऔर ‘रिखन’ उत्सवों का आयोजन किया था | बाद के राजाओं में राजा प्रताप सिंघा ने भी दो बार मुगलों को हराने के बाद एवं तीसरी बार मुगलों से हारने के बाद पुरखों का आशीर्वाद और कृपा प्राप्ति हेतु इन उत्सवों का आयोजन किया था | अन्य राजाओं जैसे चक्रध्वज सिंघा, लखी सिंघा, चंद्रकांत सिंघा इत्यादि ने भी समय-समय पर विपत्तियों, आपदाओं तथा शत्रुओं के आक्रमण से राज्य को सुरक्षित रखने हेतु मे-डाम-मे-फी जैसे उत्सवों का आयोजन किया था |

अहमों में ऐसी मान्यता है कि मनुष्य मृत्यु के पश्चात केवल कुछ दिनों तक ही ‘डाम’ (पूर्वज) रहता है और शीघ्र ही वह ‘फी’ (देव) रूप में परिणित हो जाता है | मनुष्य की आत्मा, जो अमर है, परमात्मा में विलीन हो जाती है और आध्यात्मिक गुणों से संपन्न हो जाती है और परिवार के कल्याण के लिए आशीर्वाद देती है | इस विशवास के कारण ही प्रत्येक अहोम परिवार मृतकों की पूजा के लिए रसोई घर के सामने एक स्तम्भ (डामखुटा) स्थापित करता है और घर में बनी हुई सामग्री जैसे शराब (लव-पानी), माह-प्रसाद, भात एवं गोश्त-माछ चढ़ाता है | मे-डाम-मे-फी’  की पूजा अहोम पुजारियों (देवढाई और बेलुंग) द्वारा टाई मन्त्रों के जाप के बीच संपन्न कराई जाती है | इसका विधि-विधान फार्लुंग एवं बन्फी नामक अहोम पुस्तकों में वर्णित है |

मटरू को ‘मे-डाम-मे-फी’ के बारे में इतनी सब जानकारी मिलने के बाद असमिया लोगों पर बड़ा गर्व होने लगा | अपने पूर्वजों का इतना सम्मान! सचमुच यह एक अनोखी परंपरा है जो अहोम लोगों की पुरानी विरासतों को मूल रूप में आज भी जिन्दा रखे हुए है | इन परम्पराओं के चलते अहोम निवासी आपस में भाई-चारा और एकता के सूत्र में बधें हुए हैं |


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