Saturday, 29 December 2018

दर्पण क्यों टूटा ?




दर्पण क्यों टूटा?


- राय साहब पाण्डेय 
माँ ने शिद्दत से ही सही,
फिर भी शौक से बेटी को दुल्हन बनाया,
विदाई में फ्रेम से मढ़ा हुआ,
फूल-पत्तियों से कढ़ा हुआ,
टीने के बक्से में साया और साड़ी में लपेट कर,
टूटे न इसलिए सहेज कर,
श्रृंगार के एक दर्पण को पहले खुद सीने से लगाया,
उसे ही बेटी का सुहाग मान, गर्म आंसुओं से पिघलाया,
कोई देख न ले, बेटी को बुलाया,
दर्पण को इंगित कर, खुद करके बंद नेत्र, बेटी को दिखाया |

हास में, उपहास में, आस की प्यास में,
चाहत की चाह में, कनखियों की निगाह में,
दर्पण को साफ़ कर, स्वयं को निहार कर,
आँखों में कल के लिए सपने सजाकर,
चुटकियों से माँग को सीधी बनाकर,
सामने जब देखा तो हथेलियों से मुख को छिपा कर,
लाज से शरमा कर, मुड़ती हुई भाग कर,
लड़खड़ाती संभल कर,
जब गिरती तो पाती पिया के हाथ माथ पर |

चुन्नू और मुन्नू की किलकारियों के गूँजे स्वर,
अपने, बेगानों के उलाहनों से पकते कर्ण,
वक़्त कब फुर्र हुआ, आज कब लुप्त हुआ,
भविष्य के तब्दील होते आज का पता न चला,
कल की सुखद आस, झपट गई सख्य साथ,
दुधमुहों की जठर-आग, कर गई बेवश आज,
दुल्हन अब मजदूरिन में कैसे बदल गई?  

स्वामी की राह को निहारती पथराई आँख,
दर्पण में झाँक-झाँक खुद ही मुरझाई आँख,
आँचल से बार-बार दर्पण क्यों साफ़ करे?
सुघर और सुभग रूप अपरिचित क्यों हो चले?
नेत्रों के रक्त तार, अधरों की लालिमा,
कालिमा में कब और कैसे बदल गए?
शिशु की रुदन सुन हो गई तन्द्रा भंग,
ठोकर खा दर्पण भी सह न सका खुद का भार,
सामने ही गिर पड़ा बीचो-बीच चटक कर |

चटके हुए आईने में देख कर सिन्दूरी माँग,
माँग क्यों टेढ़ी हुई?
सालने लगा क्यों दिल को, आया पी का ख़याल,
आईने के टुकड़ों को जल्दी में उठाया,
रहा होश न हवास, कब हो गई लहू-लुहान |

माँ का दिया एक दर्पण ही तो था,
ममता की निशानी वह, प्रीत का सहचर भी,
कैसे फेंक देती?
एक बड़े टुकड़े को संभाल कर रख लिया,
चुटकियाँ अब कांपती थीं, आईने का काम बढ़ गया,
धार को सिन्दूर की डिबिया में डुबाया,
माँग को फिर एक बार में ही सीधी सजाया |

मन को तसल्ली हुई, चलो पिया नहीं रूठा,
पर ख़यालों की दुनियाँ में, ख़याल हुआ झूठा,
मजदूरिन को काम मिले, इसकी गारंटी क्या?
होने लगे फांके अब, फिक्र हुई औलादों की,
मजदूरिन से बनते भिखारिन न देर लगी |

पुनवासिया की जोरू अब गली-गली घूमती,
एक की ऊँगली पकड़, दूसरे से गोंद भरती,
किसी के आह का तो किसी के धिक्कार का,
किसी की फब्तियों का तो किसी की फटकार का
पात्र बनती, हंसी और ठिठोली का दंश सहती,
पालती है बच्चों को, पर नाम उसका नहीं |

इन्तजार ख़त्म हुआ, स्वामी से मिलन की
अब आस जागी, टूटे हुए दर्पण में माँ की  
परछाईं देख आँख भी भर आई,
माँग को सीधी सजाकर, हथेलियों से बंद आँखों
को छुपा कर, टकटकी मन की लगाकर,
बुदबुदाती याचना में जाप कर हरिनाम का |

दोनों की आँख मिली एक क्षण को,
फेर ली निगाह, क्यों इन्तजार व्यर्थ हुआ?
मैंने क्या गुनाह किया ? तुम गुनाहगार क्यूँ ?
कौन सा है लाईलाज रोग पाला ?
आँख तो पथरा गयी थी,
तन-मन भी पथरा गया,
फुसफुसाहटों के वार अब चुभने लगे,
पगली है विधवा तो कब की हुई थी,
पर आज बस उजागर हुआ |
  
खटिया के सिरहाने बैठ,
निस्तब्ध मन सोचने लगा,
दर्पण क्यों टूटा ? माँग तो सीधी सजाई,
पर देव मेरा क्यों रूठा ?
निर्झरो से बहने लगी अविरल बह अश्रु धारा,
माथ का सिन्दूर नहीं, क्या करूँ इस देह का,
टूटा हुआ दर्पण फिर याद आया,
एक नहीं एक साथ अब दो चिताएं जल उठीं |












     










2 comments:

  1. बहुत ही सारगर्भित कविता जो एक निश्चल मन के भाव को दिग्दर्शित कर रही है.

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