वृद्ध की
दुबिधा
सांझ की
दुपहरी हो या दोपहर की सांझ,
आँखों में
झांकते अनकहे ख़यालों की बात,
मन में लिए
आशंका उदासी का प्रतिबिम्ब,
कल की कोई परवाह
नहीं आज की है बात |
डर लगता
नहीं रात के अंधेरों से बेवजह,
बेगानों का हो
मरहम, या अपनों की हो दुत्कार,
बेबस तो कर
जाती हैं उजालों की परछाइयाँ,
बेनकाब होती
है डंक सनी मन की मधुमक्खियाँ |
बंधनों में
जकड़ित रूह, चाहतों की चाह बाकी,
उलझनों में
उलझे मन को सुलझने की प्यास बाकी,
तिरष्कृत निगाहों
से कूक भरी तामसी मृदुल बात,
असह्य होती सख्त
पीड़ा, सहता क्यों शिथिल गात?
कर्ण-हीन, नेत्रहीन बोझ बन काँपते हैं
खुद के पाँव,
किस पे करूँ भरोसा आज, कल की करूँ किससे
आस?
देह-हीन तन-मन को, ज्योति की हो क्यों
पुकार?
मुक्त हो उड़ जाएगा कल, बे-पर ही मालिक
के द्वार |
- -राय साहब पाण्डेय

वृद्धावस्था की वास्तविक सच्चाई जो सरल शब्दों में गहरे भाव से परिपूर्ण है.
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