बिहू
-राय साहब पाण्डेय
रंगाली बिहू की एक झांकी
साथियों के बीच अन्यमनस्क बैठे मटरू पर सबकी निगाहें थी | कुछ विनोदी स्वभाव के पुरुष भी आस-पास बैठे हुए थे | उनमे से किसी ने मुसुराते हुए टोंका, “लगत बा भैया जी के भाभी याद आवतानी |” किसी अन्य ने फिर चुटकी ली, “नाहीं भैया, ई बात नइखे | ई भैया जी न ऊ नचनियन के बड़ा ध्यान से टुकुर-टुकुर निहारत रहलेन ह, शायद ओन्हनै इयाद आवतानी |” आस-पास के सभी मुसाफिर ठहाका लगाने लगे | मटरू भी अब मुस्कुराए बिना नहीं रह सके | इन सबके मध्य अब तक चुपचाप बैठे एक असमिया मानुष भी मुस्कुरा पड़े | अपना नाम अमित बोरा बताते हुए अपना परिचय दिया और यह भी बताया कि पेशे से वे एक शिक्षक हैं और सामाजिक विषयों में उनकी रुचि रहती है | मटरू ने उनकी तरफ कृतज्ञता का भाव दिखाते हुए हाथ जोड़ कर उनका अभिवादन किया | थोड़ी देर के लिए शांति छा गई |
मटरू जब
पहली बार न्यू बोंगाईगाँव स्टेशन पर
पहुँचे तो वहाँ का नज़ारा कुछ अलग सा दिखा | उस समय वहाँ से आगे जाने के लिए छोटी
लाइन ही थी | सभी यात्रियों को अपना-अपना सामान लेकर दूसरे प्लेटफार्म पर खड़ी गाड़ी
में पुनः स्थापित होना था | मटरू को इसकी कोई चिंता नहीं थी, अब यह काम उनके लिए
उनके नए दोस्त ही ख़ुशी-ख़ुशी कर रहे थे | वैसे भी उनके पास कोई सामान तो था नहीं,
और न ही आरक्षण पाने की जद्दोजहद | बड़ी लाइन से छोटी लाइन पर जाते समय मटरू ने देखा
कि महिलाओं और पुरुषों का एक ग्रुप, जिसमे छोटी लड़कियों के साथ कुछ वयस्क और अधेड़
उम्र की महिलाएं और पुरुष भी शामिल थे, विशेष असमियाँ परिधान में सजे-संवरे ढोलक
के थाप पर नाच रहे थे | पुरुष बीच-बीच में एक अलग तरह की आवाज भी निकाल रहे थे |
तुरही वाला पुरुष तो ऐसा व्यस्त था कि उसे कुछ होश ही न हो | सुदूर गाँव-जेवार से
पहली बार बाहर निकले मटरू के लिए यह एक अनोखा, अद्भुत और अत्यंत मनोरम दृश्य था |
मटरू की नजरें जैसे हटने का नाम नहीं ले रही थीं | उन्हें लगा जैसे यही उनकी मंजिल
हो | उनके सहयात्रियों ने लगभग झकझोरते हुए कहा, ‘क्या मटरू जी, यहीं बसने का
इरादा है?” उनकी तन्द्रा भंग हुई | अलसाए से मटरू साथियों के साथ चल दिए | छोटी
लाइन की इस गाड़ी के सामान्य डिब्बे में इतनी आपाधापी नहीं थी | लोग अपने
सहयात्रियों के लिए आसानी से खिसक कर सिकुड़ जा रहे थे | घर से दूर, परिवार छोड़ कर
जा रहे इन यात्रियों में लड़ने-झगड़ने के लिए न कोई चाहत थी और न ही आवश्यकता | आखिर
अपना वतन छोड़ परदेश कौन जाना चाहता है? सबकी अपनी-अपनी मजबूरियाँ थी | परिवार का
भरण-पोषण ही मंजिल और उद्देश्य था | उनकी निर्धनता ही उनके पलायन का एकमात्र कारण
था | आखिरकार संपन्न घराने का कोई व्यक्ति मेहनत मजदूरी करने बाहर क्यों जाएगा? यह
बात जुदा है कि अपना धर-बार छोड़ जो बाहर निकाल गया, आज वह चार पैसे का मालिक हो
गया और जो संपन्न था, शराब और दूसरी लतों का शिकार बन कंगाली के कगार पर पहुँच गया
|
साथियों के बीच अन्यमनस्क बैठे मटरू पर सबकी निगाहें थी | कुछ विनोदी स्वभाव के पुरुष भी आस-पास बैठे हुए थे | उनमे से किसी ने मुसुराते हुए टोंका, “लगत बा भैया जी के भाभी याद आवतानी |” किसी अन्य ने फिर चुटकी ली, “नाहीं भैया, ई बात नइखे | ई भैया जी न ऊ नचनियन के बड़ा ध्यान से टुकुर-टुकुर निहारत रहलेन ह, शायद ओन्हनै इयाद आवतानी |” आस-पास के सभी मुसाफिर ठहाका लगाने लगे | मटरू भी अब मुस्कुराए बिना नहीं रह सके | इन सबके मध्य अब तक चुपचाप बैठे एक असमिया मानुष भी मुस्कुरा पड़े | अपना नाम अमित बोरा बताते हुए अपना परिचय दिया और यह भी बताया कि पेशे से वे एक शिक्षक हैं और सामाजिक विषयों में उनकी रुचि रहती है | मटरू ने उनकी तरफ कृतज्ञता का भाव दिखाते हुए हाथ जोड़ कर उनका अभिवादन किया | थोड़ी देर के लिए शांति छा गई |
लम्बी
यात्रा में लोग बहुत देर तक चुपचाप बैठे नहीं रह सकते | शांति भंग करते हुए मटरू
के साथ बैठा यात्री बोरा जी से मुखातिब हुआ, “अच्छा बोरा जी आप तो असम के ही रहने
वाले हैं, आप के पुरखे भी सदियों से यहाँ रहते रहे हैं, आप से अच्छा इस असमिया
डांस के बारे में भला और कौन बता सकता है? बोरा जी सोचने लगे और फिर मौन तोड़ते हुए
कहने लगे, “आप लोग जिस डांस का जिक्र कर रहे हैं वह असम की एक लोक नृत्य की परंपरा
में आता है और जिसे हम लोग बिहू नृत्य कहते हैं | लोक नृत्यों की विशेषता है कि
बहुत थोड़े या नाम-मात्र के अभ्यास से ही इसे कोई भी कर सकता है | मुस्कुराते हुए बोरा
जी ने मटरू के पास बैठे यात्री को ही खड़े होने के लिए कहा | फिर दोनों हाथों को फ़ैलाने
के लिए और फिर कमर पर रखने के लिए कहा | इसके बाद दाएं या बाएं झुक कर घूम जाने के
लिए कहा और फिर हँसते हुए बताया कि यही बिहू डांस है | साथ बैठे सभी यात्रियों ने
एक जोरदार ठहाका लगाया |
बोरा
जी एक बार फिर से मुखातिब हुए, पर इस बार गंभीर होकर | बोले, “बिहू असम प्रदेश का
एक मुख्य त्यौहार है, जिसे बिहू के नाम से जाना जाता है | असम में तीन अवसरों पर
बिहू त्यौहार मनाया जाता है और ये सभी किसी न किसी प्रकार से प्रकृति से ही जुड़े
हुए हैं | पहला और मुख्य बिहू रंगाली या बोहाग (बैसाख) बिहू है, जो अभी आप लोग देख
कर आये हैं | रंगाली बिहू एक रंगीला, हंसी-ख़ुशी बांटने वाला, हर्ष-उल्लास के साथ
नए वर्ष का स्वागत करने वाला वसंतोत्सव है | रंगाली बिहू देश और विदेश के अनेक
त्योहारों के साथ सन्निपतित होता है | पंजाब का बैसाखी, कश्मीर का ट्यूलिप
फेस्टिवल,
मेघालय की प्रमुख जनजाति खासी का ‘शाद सुक माइनसिएम’, तमिलनाडु का ‘चिथिराई’,
केरल का कद्म्म्निता, चाइनीज नव-वर्ष तथा थाईलैंड का पोई-संग्कें आदि प्रमुख हैं |
इन सभी त्योहारों का जुड़ाव किसी न किसी रूप में प्रकृति की निराली छटा, कला,
सौंदर्य, संस्कृति एवं कृषि से ही है | दूसरा कंगाली या काती (कार्तिक) बिहू
अक्टूबर महीने में आता है और तीसरा यानी भोगली या माघ बिहू जनवरी महीने में पड़ता
है | बोहाग बिहू फसल बोने ( विशेष रूप से धान की रोपाई ) से, काती बिहू फसल की
सुरक्षा और पूजा से तथा माघ बिहू फसल की
कटाई से सम्बंधित हैं |
बिहू
का जो आधुनिक रूप अब प्रचलित है, वस्तुतः वह विविध संस्कृतियों के समन्वय और
मेल-जोल के परिणाम स्वरुप विकसित हुआ है | इसमें आस्ट्रोएशियाटिक, टिबेटो-बर्मन,
आर्यन और टाई-शान प्रजातियों का योगदान प्रमुख है | ऐसा माना जाता है कि बिहू शब्द
की व्युत्पत्ति देउरी जुबान के बिसू शब्द से हुई है | देउरी मूलतः बोडो-कचारी
जनजाति द्वारा बोली जाने वाली जुबान थी | ऊपरी असम की सोनोवाल, कचारी, शुटिया,
ठेंगल-कचारी, मोरन, मोटोक, कईबारटा, खासी और जयंतिया इत्यादि जन-जातीय समुदाय बिहू
को इस रूप में मनाते थे | बोडो लोग बिहू
को बैसागू और दिमासस, तिवा. और राभा जन-जातीय समुदाय इसे बुशु,पिसू या डूमसी के नाम से मनाते हैं |
बिहू
परम्परा का प्रथम सन्दर्भ देवधानी बुरांजी (इतिहास) में मिलता है | इसके अनुसार चुटिया
राज्य की राजधानी, सदिया पर बिहू के प्रथम दिन ही सन् 1523 में अह्मों द्वारा अचानक उस समय आक्रमण
हुआ जब लोग बिहू उत्सव मनाने में मग्न थे | इससे काफी हद तक इस बात को बल मिलता है
कि बिहू का मूल(ओरिजिन) सादियाल कचारी और मूल ऑस्ट्रिक समुदायों की परम्पराओं में निहित है
| बिहू नृत्य का आधुनिक स्वरुप ढकुआखाना, लखीमपुर के फाट बिहू नृत्य से उत्पन्न हुआ प्रतीत होता है, जो मिशिंग्स, कईबार्टा और देउरी समुदायों की परम्परों में मिलता
है | फाट बिहू नृत्य के कलकारों को अहोम रजा रूद्र सिंहा के शाही रंगभूमि ‘रंग घर’
में नृत्य करने के लिए सन् 1694 में आमंत्रित किया गया था | अह्मों के हाथों मात खाने के
बाद बचे-खुचे सादियाल-कचारी लोग राज्य के अन्य भागों जैसे हर्थी-सपोरी, ढकुआखाना
आदि स्थानों पर विस्थापित हो गए | ये लोग
अपने साथ देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी ले कर आये, जो बाद में इनके द्वारा स्थापित
देवालयों में प्रतिष्ठित कर दी गईं | इनमे से एक प्रमुख मंदिर ‘हर्थी देवलोई’ भी
है | उन्नीसवीं सदी के आते-आते बिहू का आधुनिक रूप पूरी तरह विकसित हो चुका था,
जिसे यहाँ के स्थानीय समुदायों के अतिरिक्त अन्य समुदाय के लोग, असमियाँ ब्राह्मण,
कायस्थ एवं उच्च कुलीन अभिजात्य वर्गों ने भी अंगीकार कर लिया |
बोरा
जी द्वारा विस्तार से बिहू नृत्य के इतिहास के बारे में जान कर आस-पास के सहयात्री
प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके | कुछ लोग जम्हाई भी लेने लगे थे | मटरू, जो कि
पहली बार इन परम्पराओं और रीति-रिवाजों से गुजरने वाले थे, बड़ी दिलचस्पी से सब सुन
रहे थे | उनमे और अधिक जान्ने की उत्सुकता विद्यमान लग रही थी | इस बीच स्टेशन आ
गया और चाय वाले ने पुकार लगाई | बोरा जी ने अपने साथ बैठे यात्रियों को चाय पिलाई
| बोरा जी अब तीनों बिहू के बारे में और उनके मनाने के तरीकों पर भी बताना प्रारंभ
किया |
बोहाग (बैसाख) बिहू
बैसाख बिहू असमियाँ कैलेंडर के मुताबिक बोहाग माह में ( मध्य अप्रैल ) में मनाया जाता है | तीनों बिहू में यह बिहू सबसे रंग-विरंगा
होने के कारण वसंतोत्सव के रूप में मनाया जाता है और इसी लिए इसका नाम भी रंगाली
बिहू है | सात
दिनों तक अलग-अलग रीति-रिवाजों में मनाया जाने वाला यह त्यौहार लोगों के जोश का भी
परिचायक है | इस बिहू से खेती के सीजन का भी आगाज होता है | किसान धान की फसल के लिए
अपने खेतों को तैयार करते हैं | महिलायें स्वादिष्ट व्यंजनों के साथ असम का विशेष
व्यंजन चावल का ‘पीठा’ भी बनाती हैं | बिहू का प्रथम दिन ( बैसाख शुरू होने के पहले
का दिन) ‘गोरु बिहू’ के रूप में मनाया जाता है, जिसमे गायों को नदियों में नहलाया-धुलाया
जाता है | नहलाने के लिए रात में ही भिगो कर रखी गई कलई दाल और कच्ची हल्दी का
इस्तेमाल किया जाता है | उसके बाद वहीं पर उन्हें लौकी, बैंगन आदि खिलाया जाता है | माना जाता है कि ऐसा करने से साल भर
गाएं कुशलपूर्वक रहती हैं | शाम के समय जहां गाय रखी जाती हैं, वहां गाय को नई रस्सी से बांधा जाता है और नाना तरह के औषधि वाले
पेड़-पौधों की टहनियों को जला कर मच्छर-मखियों को भगाया जाता है | इस दिन लोग दिन
में केवल दही-चिवड़ा खाते हैं |
बिहू का दूसरा दिन (15 अप्रैल) मानू (मनुष्य) बिहू और नव वर्ष के पहले
दिन के रूप में भी मनाया जाता है | हर
व्यक्ति कच्ची हल्दी के जल से स्नान कर नए कपड़े पहनता है | पूजा-पाठ करने के बाद
ही अन्य पकवानों के साथ पीठ-लड्डू का भोग करते हैं | सात दिन के अन्दर 101 प्रकार
की हरी पत्तियों वाला साग खाने का भी रिवाज प्रचलित है | परिवार के बड़े-बुजुर्गों
का नया वस्र और गमछो देकर सम्मान किया जाता है | संस्कृत के मन्त्रों को ‘नाहर’ पत्तों
पर लिख कर छुपाने की भी प्रथा है | ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से भगवान् शिव
प्रकृति की आपदाओं से संरक्षण प्रदान करते हैं | बिहू से सम्बद्ध गीत ‘बिहू गीत’ के रूप में जाने
जाते हैं | इन गीतों के रूप, लय एवं ध्वनि में अलग-अलग क्षेत्रों के मुताबिक अनेक
विभिन्नताएं पाई जाती है | इस बिहू के अन्य महत्व भी हैं | इस समय धरती पर बारिश की पहली बूंदें पड़ती हैं और
पृथ्वी नए रूप में सजती है | जीव-जंतु भी नई जिन्दगी की शुरुवात करते हैं | इस बिहू
के अवसर पर संक्रांति के दिन से बिहू डांस नाचते हैं | 20-25 युवक-युवतियों की
मण्डली ढोल, पेपा, गगना, ताल, एवं बांसुरी के साथ अपने पारंपरिक वस्त्रों में
सज-धज कर बिहू नृत्य करते हैं | बिहू के दौरान ही युवक एवं युवतियां अपने मनपसंद
जीवन साथी का चुनाव करते हैं | इसलिए असम में बैसाख महीने में ज्यादातर विवाह
संपन्न होते हैं | बिहू गीत की एक बानगी:
फूल फुलिसे
बोक्षोनतोर
तुमि जन्मोनी
बोहागोर
प्रतितु
बोहागोटेस मोरोम
जासु तुमक
अंतरोर....फूल फुलिसे |
गुन गुनकोई
भुमुरा फुले फुले पोरिसे
थुम्पा
थुम्पा नाहोर टगोर डाल भोरी फुलिसे |
जन्मोनी तुमई
मूर कामोना बाक्षोना.....
तुमई मूर
जीवनोर बाक्षोना.........
तुमई मूर बुकुरे
कोली ............. |
गांवो में विभिन्न तरह के खेल तमाशों का आयोजन भी होता है | एक
अन्य मान्यता के अनुसार ढोल की आवाज से आकाश में बदल आ जाते हैं और बारिश होने
लगती है और अच्छी फसल होने की सम्भावना बढ़ जाती है |
बिहू का तीसरा दिन गोसाई (देव) बिहू के नाम से मनाते हैं | घर की
साफ़-सफाई के पश्चात देवताओं की मूर्तियों की पूजा की जाती है, इस विशवास के साथ कि
आने वाला नया साल बेहद खुशहाल रहेगा |
‘राति’ बिहू चैत्र मास की अंतिम रात्रि को मनाया जाता है | इस अवसर
पर स्थानीय महिलाएं एक खुले खेत में एकत्र होकर मशाल जलाती हैं और पुरुष वर्ग बांस
और भैंस की सींग से बने वाद्य यंतों को बजाते हैं | ‘कुटुम’ बिहू के दिन लोग अपने
सगे-सम्बन्धियों के घर जाते हैं और एक साथ खाना-पीना करते हैं | ‘सनेही’ बिहू
मुख्यतः प्रेमी युगलों के लिए खास दिन होता है | यह दिन प्रेम और प्रजनन का प्रतीक
है | युवक-युवतियां आपस में मिलते हैं और उपहारों का आदान-प्रद्दन करते हैं | इस
विशेष उपहार को बिहुवान कहते हैं | बिहू के अंतिम दिन को ‘मेला’ बिहू के नाम से
जानते हैं | पुराने जमाने में राजा अपनी प्रजा के साथ मेले में शरीक होता था | आज
भी मेलों का आयोजन होता है और बड़ी संख्या में लोग इसमें बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं |
काति (कार्तिक) बिहू
यह साल का दूसरा बिहू है और कार्तिक (मध्य अक्टूबर)
महीने में आता है | यह ‘कंगाली’ बिहू के नाम से अधिक प्रसिद्ध है | इन दिनों किसान
की फसल खेत में होती है और वर्धिष्णु (बढ़ने वाली) अवस्था में होती है | घरों में
अन्न की कमी हो जाती थी, शायद इसी लिए इसे कंगाली बिहू कहा जाता है | लोगों में
फसल को लेकर मन में एक विषादपूर्ण स्थिति रहती है | धान की फसल में कीड़े न लगें,
इसके लिए घर के आँगन में तुलसी का पौधा लगा कर पूजा की जाती है और प्रसाद चढ़ा कर
दीपक जलाया जाता है ताकि खेती ठीक-ठाक रहे | बढ़ते हुए धान के पौधों को
कीड़ों-मकोड़ों और बुरी नज़र से बचाने के लिए ‘रोवा-खोवा’ मन्त्र का उच्चारण किया
जाता है | शाम के वक़्त पशुओं को चावल से बना पीठा खिलाया जाता है | ‘बोडो’ जन-जाति
के लोग ‘सिजू’ वृक्ष के नीचे दिया जलाते हैं | इस बिहू के दिन एक लम्बे बांस के ऊपरी
छोर पर 'आकाशदीप' दिया जलाया जाता है |
ऐसी मान्यता है कि इससे मृत आत्माओं को स्वर्ग का रास्ता दिख जाता है | इस प्रथा
का प्रचलन कई अन्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में भी पाया जाता है |
भोगली (माघ) बिहू
भोगाली (माघ) बिहू की एक
झांकी
मध्य जनवरी या माघ महीने की संक्रांति के पहले दिन माघ या
भोगाली बिहू मनाया जाता है | इस बिहू का नाम भोग शब्द से बना हुआ है इस कारण इसे
भोगाली बिहू कहा जाता है | यह समय असम और पूर्वोत्तर क्षेत्रों में धान की कटाई का
होता है | किसान धन-धान्य से भरपूर होता है | अनेक प्रकार के व्यंजन पकाए जाते
हैं, जिनमे चावल प्रमुख होता है | इसके अतिरिक्त तिल, नारियल और गन्ना भी इन
व्यंजनों का मुख्य भाग होता है | फसल घर में होती है और किसान कृषि-कार्य से मुक्त
| लोग रिश्तेदारों के यहाँ जाते है | इस दिन पूरे भारत वर्ष में संक्रांति, खिचड़ी,
लोहड़ी, पोंगल आदि त्यौहार भी धूम-धाम से मनाया जाता है | माघ बिहू की पूर्व संध्या
(उरुका) पर पुरुष वर्ग (विशेष कर युवा वर्ग) किसी नदी के किनारे खेत में एक
अस्थायी झोंपड़ी बना लेते हैं | झोंपड़ी प्रधानतः पुवाल से से बनाई जाती है, जिसे ‘भेलाघर’
कहते हैं | लकड़ी जला कर भोजन बनाया जाता है | हर तरफ सामुदायिक भोज का बोलबाला
होता है | आपस में लोग मिठाईयों का आदान-प्रदान भी करते हैं | ‘मेजी’ (अलाव या
तपनी) जला कर उरुका की पूरी रात लोग उसके चारों तरफ बिहू गीतों के थाप पर नृत्य करते
हैं | असमियाँ लोगों का प्रमुख वाद्य ढोल इस गीत-संगीत का अभिन्न हिस्सा होता है |
कुछ नव-युवक रात का फायदा उठा कर इधर-उधर से लकड़ी और सब्जी भी चुरा लेते हैं और इस
कार्य में सफल होने पर अति प्रसन्न होते हैं | सुबह होने पर नदी, तालाब या किसी
कुंड में स्नान कर मुख्य ‘मेजी’ के चारों ओर एकत्र हो जाते हैं | प्रज्वलित अग्नि में
‘पीठा’ और सुपारी अर्पण करते हैं | अग्नि देव की पूजा की जाती है और इस रश्म के
साथ ही फसल के इस मौसम का तिरोधान किया जाता है | अपने-अपने घरों को लौटते हुए अधजले
लकड़ी के लट्ठे भी साथ लाते हैं और सुखद परिणाम की अपेक्षा में फलदार वृक्षों के
बीच रख देते हैं | दिन में अनेक प्रकार के खेलों जैसे साड़ों, मुर्गों, और बुलबुल
की लड़ाई इत्यादि का आनन्द लेते हैं |
एक लम्बी साँस लेते हुए बोरा जी संक्षिप्त में अपना बिहू
वृत्तांत समाप्त करते हैं | उनके सारे सहयात्री उनकी तरफ कृतज्ञ भाव से आँखें
फाड़कर देखने लगे | कोई उनकी विद्वता तो कोई उनकी वाक्पटुता तो कोई उनकी इस कहानी शैली की तारीफ़
करने लगा | कुछ उत्साही युवक तालियाँ भी बजाने लगे | मटरू अपने घर-द्वार की चिंता, कुछ समय के लिए ही सही, भूल गए | उनकी यह यात्रा इस जीवन की एक सुखद यात्रा बन
गई |



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