नामघर: मटरू का भजन-कीर्तन
-राय साहब पाण्डेय
मटरू अब शिवसागर में रम गए थे | उनकी अपनी
मंडली बन गई थी | ट्रेन के सहयात्रियों से उनकी दोस्ती प्रगाढ़ हो रही थी | साथियों
के सहयोग से ही आज उनके पास अपना एक सायकिल रिक्शा हो गया था और वे भी दो पैसा कमा
कर गाँव में रह रहे अपने परिवार का भरण-पोषण कर पा रहे थे | उनकी चिट्ठी-पत्री भी
दोस्तों के पते पर आती थी | धीरे-धीरे स्थानीय परम्पराओं से भी वाकिफ़ हो रहे थे | भजन-कीर्तन
में रुचि होने के कारण दोस्तों में उनकी लोकप्रियता बढ़ गई थी | अक्सर रविवार शाम
मंडली की बैठक होती थी | कभी गोस्वामी तुलसी रचित रामचरितमानस का सस्वर पाठ तो कभी
चैतन्य महाप्रभू के भजनों का संकीर्तन या फिर कबीर के निर्गुन इन बैठकों में सुनाई
पड़ता था | ऐसी ही एक भजन संध्या में मटरू की मुलाकात एक भद्र जन से हो गई | इन
महाशय का नाम काली प्रसाद शर्मा था | मटरू का भक्ति-भाव और स्वर का मधुर लालित्य देख-सुनकर
काफी प्रभावित हुए | शर्माजी ने पूरी मंडली को नामघर में संकीर्तन के लिए
निमंत्रित किया |
नामघर मूलतः एक प्रार्थना सभागार होता है | नाम का अर्थ है
प्रार्थना | पंद्रहवीं सदी के भक्ति आंदोलन के समय के असमिया भाषा के एक प्रसिद्ध
कवि, नाटककार तथा वैष्णव समाज सुधारक श्रीमंत
शंकरदेव ने ‘एक शरण धर्म’ की
स्थापना की | इस धर्म को 'नववैष्णव
धर्म'
या 'महापुरुषीय धर्म' के नाम से भी जाना जाता है | यह हिन्दू या सनातन धर्म से भिन्न
नहीं है बल्कि उसी का एक पंथ है, जिसमे मूर्तिपूजा की प्रधानता न होकर श्रवण-कीर्तन
को विशेष महत्व दिया जाता है | इस पंथ के अधिकांश अनुयायी असम प्रदेश के उजिनी
(ऊपरी) तथा नोमिनी (निचले) दोनों क्षेत्रों में निवास करते हैं | इस सम्प्रदाय का
मूल मंत्र है: एक देव, एक सेव, एक बिने नाइ केव | इस धर्म में कोई जाति-भेद
ऊँच-नीच, धनी-दुखिया का भेद नहीं है | धार्मिक
उत्सवों के समय केवल एक पवित्र ग्रंथ चौकी पर रख दिया जाता है, इसे ही नैवेद्य तथा भक्ति निवेदित की जाती है। इस संप्रदाय
में दीक्षा की व्यवस्था नहीं है |
अठारहवीं सदी पूर्व असम में वैष्णव
लोग धार्मिक कार्यों के लिए कोई स्थायी निर्माण नहीं करते थे | पत्थरों या ईंटो का
कोई इस्तेमाल नहीं होता था | नामघर मुख्यतः बांस और लकड़ियों से निर्मित होते थे और
उनकी छत घास-फूस की बनी होती थी | शायद ऐसा इसलिए होता था कि इस पंथ के प्रचारक एक
स्थान पर अधिक दिनों तक रुकते नहीं थे, और ऐसी मान्यता थी कि कोई भी कक्ष जो यती
और उसके शिष्यों को बैठने के लिए पर्याप्त हो, प्रार्थना के लिए भी पर्याप्त है | समय
के साथ कीर्तन-घर, चाहे जिस भी स्वरूप में हो, नामघर के नाम से जाना जाने लगा | बीसवीं
सदी आते-आते नामघरों के बनावट में भी बदलाव हुए और अब बांस के खम्भे कंक्रीट तथा
फूस की छतें नालीनुमा टिन की चद्दरों से बनाने लगीं | यद्यपि इस पंथ में मूर्ति
पूजा नहीं होती तथापि नामघरों में वैष्णवों के देवी-देवताओं की मूर्तियाँ रखी जाने
लगीं |
आज मेलाचक्कर नामघर में मटरू की मंडली का संकीर्तन
आयोजित था | काली प्रसाद शर्माजी और आस-पास के लोग पहले से पहले से ही पंक्तिबद्ध बैठे थे | नामघर के बीचो-बीच पश्चिमी दीवाल से
सटा हुआ काष्ठ निर्मित, कच्छपों, गजों और शेरों की कलाकृतियों से अलंकृत,
सात-स्तरीय त्रिकोणीय गुरु आसन रखा था | इस आसन पर ही पवित्र ग्रन्थ की स्थापित था
| नामघर में भक्तजन उत्तर और दक्षिण दिशा में एक दूसरे के सम्मुख बैठे थे | उत्तर
और दक्षिण समूहों के मध्य का क्षेत्र अति पवित्र होता है और साफ़-सफाई के अतिरिक्त
कभी भी कोई इस जगह पर कदम नहीं रखता | प्रार्थना की शुरुवात ‘नाम लोगुवा’
द्वारा की जाती है, जो स्वयं गुरु आसन के सम्मुख मध्य-क्षेत्र के अंत में बैठा
होता है |
प्रार्थना समाप्त हुई | ‘नाम लोगुवा’ की जगह मटरू और राम अगर्दी ने ले ली | अगल-बगल उनकी
मंडली के सदस्य झाँझ-मजीरे, ढोलक और हारमोनियम के साथ अपने-अपने स्थान पर आसीन हो
गए | नामघर के अन्य पदाधिकारी गण जैसे मेहदी, बुजंदार, नामघरिया और बिलोनिया
इत्यादि लोग भी उपस्थित थे | मटरू और उनकी टीम ने आलाप लेना शुरू किया और जैसे ही मधुर
स्वर में सरस्वती वंदना ‘या कुंदेंदु तुषार हार धवला.......’ प्रारंभ किया,
श्रोतागण मंत्र-मुग्ध हो गए | तत्पश्चात मटरू ने फिर नाम कीर्तन की तरफ रुख किया:
‘निज दास करि हरि मोके किना
किना
अन्य धन न लागे नाम धन बिना’
‘अन्य देवी-देवता न करिबा
सेवा, न खइबा प्रसाद तारा,
मूर्तिका न शइबा गृहो न
पसिबा, भक्ति हैबे व्यभिचारा’
लगता है मटरू और उनकी टीम ने आज के लिए नाम-कीर्तन की
पूरी किताब ही रख ली थी और लगन से पूर्वाभ्यास भी किया था | मटरू ने पयारा, झूना,
लघु पयारा, दुलारी तथा शबी इत्यादि नाम कीर्तनों को एक-एक कर प्रस्तुत किया:
नमो गोप रुपी मेघासम स्यामा
तनु |
गावे पीतवस्त्र हाथे सिंगा
वेता वेनु ||
पीत वस्त्र सोभे श्यामला
काया |
ताड़ीता जड़ता जलदा प्रया ||
सुन्दरा हसिकाका अल्प हसा |
चारू स्यामा तनु पिताबसा ||
अंत में मटरू ने नाम कीर्तन का समापन श्री कृष्ण स्तुति
से की:
कृष्णाय वासुदेवाय देवकी
नन्दनाय च |
नंदगोप कुमाराय गोविन्दाय
नमो नमः ||
नमः पंकजनाभाय नमः
पंकजमालिने |
नमः पंकजनेत्राय नमः पंकजाङ्घ्रये ।।
वसुदेवसुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् |
देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्||
हरि राम राम ||
मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिं |
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ||
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ||
मटरू ने अपना भजन-कीर्तन समाप्त
करते हुए हाथ जोड़ कर सबका अभिवादन किया | सबने मुक्त कंठ से मटरू और उनके मण्डली
की सराहना की |
अब काली
प्रसादजी उठे और नाम-कीर्तन का महत्व समझाते हुए बोले, “जिस तरह श्रीमंत शंकरदेवजी
ने ‘एक शरण धर्म’’ के दार्शनिक सिद्धांत को सरल रूप में लोगों तक सीधे उनके
ह्रदय तक पहुँचाया वह भारत वर्ष के इस भूभाग का एक बेहतरीन धार्मिक आंदोलन है | यह
पंथ न केवल मूर्तिपूजा के बल्कि भारी-भरकम एवं डरावने रश्म-रिवाजों में अनावश्यक
अपव्यय के विरुद्ध भी था | उन्होंने ज्ञान एवं कर्म मार्ग के जटिल रास्ते से उबार
कर अनपढ़ एवं गरीब लोगों को भक्ति मार्ग में प्रवेश करा कर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कराया”
| अंत में शर्मजी ने शंकरदेव जी के महानतम शिष्य माधवदेव की एक कथा सुनाई कि किस
प्रकार श्रीमंत ने एक व्यापारी माधव को अपनी माँ को बीमारी से मुक्ति दिलाने के
लिए दो बकरों की बलि देने से रोक कर पापकर्म से मुक्ति दिलाई |
मटरू की आँखे नाम हो गईं और उसने अपने
परिवार द्वारा बकरे की बलि से होने वाले पाप से बचाने के लिए भगवान का कोटि-कोटि
शुक्रिया अदा किया |


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