Thursday, 28 March 2019

कोई ऑफ हो गया



कोई ऑफ हो गया
-डॉ राय साहब पाण्डेय 
समय भी क्या चीज है! कोई कहता है अजीब है तो कोई इसे दो पलों के बीच का अंतराल बताता है | पर मटरू को इससे क्या लेना? उनके लिए तो सवेरे सूरज उगा है तो शाम को उसे डूबना है | कुछ दिन पहले वे घर आने की तैयारी कर रहे थे, अब जाने की कर रहे हैं | एक बात तो माननी पड़ेगी कि घर आते वक़्त घर से जाने का ख़याल नहीं रहता है वरना सारा उत्साह बे मजा हो जाय | मटरू एक दिन आये थे अब जाएंगे | फिरहाल उनके लिए तो यही समय है |

शिवसागर जाने से पहले आज वे पड़ोस के गाँव में अपनी बिरादरी के लोगों से मिलने निकले | ढेर सारे लोगों को उसी तरफ जाते देख मटरू ने सहज भाव से एक लड़के से पूछा, ‘भैया सब लोग कहाँ जा रहे हैं?” लड़का यही कोई टिंकू की उम्र का रहा होगा | उसने भी उसी सहजता से जबाब दिया, “कोई ऑफ हो गया है” | लड़के के मुख से यह सुनकर एक क्षण को तो समझ ही नहीं आया कि यह क्या कह रहा है, पर तुरंत दिमाग की बत्ती जली और सब कुछ समझ आ गया | वह भी लोगों के साथ उसी दिशा में चल दिए | दिमाग की बत्ती जल चुकी थी इसलिए सोचते हुए चल रहे थे | पहले लोगों का स्वर्गवास होता था या सरग सिधार जाते थे या इंतकाल हो जाता था या फिर सिर्फ मर जाते थे, अब ऑफ होने लगे हैं | समय का एक और मायने समझ आने लगा | इह लोक से परलोक की यात्रा |

काफी लोग इकठ्ठा हो गए थे | मटरू ने भी उनका अंतिम दर्शन कर लिया | मटरू बचपन से ही उन्हें भलीभांति जानते थे | पर जबसे शिवसागर का रुख किया, बहुत कम बार ही ऐसा हुआ होगा जो इनकी सुध आई हो | लोगों में वे ‘लटदार’ साधू के नाम से प्रचलित थे | खैर उनकी ऑफ हुई काया अब माया मुक्त हो ‘डेड बॉडी’ में तब्दील हो गई थी | लोगों में इस बात को लेकर बहस हो रही थी कि अब इस ‘मिटटी’ का क्या करना है |  उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी | बहुत लोगों के लिए वे बिना गेरुआ वाले साधू थे तो कुछ उन्हें साधू ही नहीं मानते थे क्योंकि वे साधु बनने की औपचारिक दीक्षा से नहीं गुजरे थे |

“जाने वाला तो जा चुका, अब बहस से क्या फायदा”, भीड़ के मध्य से एक संयत आवाज उभरी  | लोग अचानक उसकी तरफ मुड़े | मटरू इस व्यक्ति को नहीं पहचानते थे | पता चला यह निमई थे और लटदार के नजदीकी | निमई ने अपना कथन जारी रखा, “बाबा तो कब से साधु बन गए थे | उनका हर कार्य दूसरों के लिए ही था | मेहनत-मजदूरी में भी दूसरों का ही हित देखते थे | जिसने जो खिला दिया खा लिया, कोई जूना-पुराना चिथड़ा दे दिया, पहन लिया | साधु, आखिरकार कौन होता है?” निमई की व्याख्या और तीव्र होने लगी, “'साध्नोति परकार्यमिति साधुः” | बताइए इस लिहाज से लटदार साधु थे या नहीं? आज के समय में साधु भले ही उनको कहते हों जो सन्यास दीक्षा लेकर गेरुए वस्त्र धारण करते है | वे भजन-कीर्तन अपने ढंग से करते थे, सीता-राम का नाम लेते थे | हाँ, वे कोई विशेष पंथ से नहीं जुड़े थे और न ही उनको इसका ज्ञान था | फिर भी वे साधु ही थे |” कुछ लोग अगल-बगल से कतरा कर चलते बने | जो बच गए, वे निमई से इत्तफ़ाक रखते थे | बचे लोगों में कुछ ऐसे भी थे जिन्हें शायद यकीन था कि कबीर के तरह लटदार की मय्यत भी फूलों में बदल जाय और इस क्रिया-कर्म से छुटकारा हो जाय | कबीर हिन्दुओं और मुसलामानों में बट गए थे | लटदार साधु-असाधु के चक्कर में | खैर, लटदार फूल नहीं बने | उनका संस्कार तो साधुओं की भांति ही करने का निर्णय किया गया | अब हिन्दू परंपरा के मुताबिक साधु-सन्यासियों और बच्चों का दाह-संस्कार तो किया नहीं जाता क्योंकि वे अपनी काया से मोह विहीन होते हैं, इसलिए उनकी माटी को माटी के हवाले ही करना होगा |

निर्जन पुस्तैनी जमीन के एक कोने में छह फीट गहरा और तीन फीट चौड़ा गड्ढा खोदा गया |  लटदार को नहला-धुला कर उनकी लट सवांरने की कोशिश की गई | जीते जी न तो खुद यह साधु अपने लट की कोई परवाह की और न ही किसी अन्य ने | मटरू ने जब भी देखा शरीर का ऊपरी तथा नीचे का भाग वस्त्र-विहीन था | मध्य भाग एक लंगोट से कसा और फटी मैली-कुचैली किसी की दी हुई धोती में लिपटा हुआ रहता था | साबुन तो उनके साधु बनने से पहले ही उनका नसीब छोड़ चुका था | लट, जिसके कारण उनका नाम लटदार पड़ा, किसी के सवांरने से कहाँ संवरने वाली थी? नए परिधान से लंगोटी पहना दी गई | शीतल लेप और सुगंधित इत्र से सज्जित, उदर-रहित, चौड़ी छाती वाले इस छह फुटे लटदार को एक बड़े आम के पीढ़े पर कमलासन में बिठा दिया गया | साधु की ऐसी मुद्रा जीते जी कभी नहीं दिखी थी | ऐसा लगता था यह लटदार बस अब सीता-राम बोलने ही वाला है | निमई और अन्य पड़ोसियों ने लटदार की मृत काया को पीढ़े सहित उठाया और माया-मुक्त माटी को माटी के हवाले सुपुर्द करने ही वाले थे कि निमई के पिता जी हाँफते-हाँफते आ पहुँचे और परशुराम की तरह गरज उठे | “ई सब तूँ लोग का कर रहा है? हमारे बाप-दादाओं में किसी का ऐसा संस्कार नहीं हुआ | लगता है तुम लोगन की मती मारी गई है |” एकाएक सब लोग सकपका गए | जो लोग वहाँ से चले गए थे, फिर इकठ्ठा होने लगे | भीड़ अब हिंदू–मुसलमान में बँट गई | अंत में बहुसंख्यक जीत गए | अब तक लटदार के मालिक का भी पदार्पण हो चुका था | उनसे भी सलाह-मशविरा किया गया | मालिक ने सलाह दी कि साधु की मिटटी का जल-प्रवाह किया जाय | सबने एक राय से उनकी बात मान ली | मालिक ने निमई के पिताजी को इशारे से एक तरफ बुलाया और कुछ रुपये उनके हाथ में रख दिए | लटदार की कमल मुद्रा वाली काया पीढ़े से उतार कर अब हरे बासों की टिकठी वाली शय्या पर लिटा दी गयी | शव को कफ़न से ओढ़ा दिया गया | लोगों ने कन्धा दिया | मटरू ने भी टिकठी को हाथ लगाया | मिटटी का मिटटी से मेल नहीं लिखा था | छह फीट गड्ढे के नसीब में लटदारको निगलना मुमकिन नहीं हो पाया | लटदार को गंगा के पवित्र जल में समाधिस्थ कर दिया गया | लटदार ने भी क्या किस्मत पाई थी | जीते जी मनुष्यों ने इस शरीर का शोषण किया और मरने के बाद मछलियों ने दावत उड़ाई | लटदार चिर समाधि में विलीन हो गए |

मटरू भारी मन से घर की तरफ चल दिए | लटदार के साथ आस-पास के अन्य जीवित और मृत साधुओं के बारे में सोचने लगे | साधु बनने की कोई औपचारिक विधि यहाँ नहीं थी | हाँ, दाढ़ी बढ़ाना एक अनिवार्यता जरूर लगती थी | गेरुआ धारण करना भी अनिवार्य नहीं था | यहाँ जितने भी छुटभैये साधु थे या जिनको लोग साधू कहने लगे थे, उनमे एक सार्वनिष्ठ समानता अवश्य दिखती थी | ये सभी साधू चिलमची थे | चिलम को भोले नाथ का प्रसाद मानते थे | तमाम असाधु और जन साधारण जनता को भी जब चिलम की तलब लगती थी तो वह उन्हें इन्हीं साधुओं के शरण और संरक्षण में आसानी से प्राप्त हो जाती थी | कुछ साधू तो साधु होने की आड़ में गांजे का धंधा भी करते थे | पुलिस को हप्ते का एक और सुनहरा जरिया भी बैठे-बैठाए मिल जाता था | ऐसे अनेक साधुओं को उनका नाम उनके मुख्य नाम के अपभ्रंश से ही सुलभ हो जाता था | मिसाल के तौर पर लोकनाथ लोकई और छबिनाथ छब्बू साधू बन जाते थे | भारतीय परंपरा में बढ़ी दाढ़ी और गेरुआ वस्त्र किसी भी छद्मभेषी को आसानी से पहुँचा हुआ साधु, महात्मा या फकीर बना देता है | ये साधु भभूत देने या झाड़-फूक करने की कला में भी माहिर होते हैं | यह सब कलाएं इन्हें स्वतः हासिल नहीं होती थीं | इसके लिए इन्हें भी चेलहाई करनी पड़ती थी | मंदिर धोना, साफ़-सफाई करना, बड़े अखाड़े के साधुओं की सेवा-टहल से यह सभी गुण इनके अंदर भी प्रस्फुटित होने लगते थे | मंदिरों पर एकाधिकार ज़माना और कमाई करना इन श्रेणी के साधुओं की खूबी बन जाती थी |

लटदार थोड़े अलग थे | स्वभाव से बिलकुल सरल थे | अन्य तथाकथित साधुओं की तरह न तो वे मंदिरों की रखवाली करते थे और न ही कोई दुकान-डलिया चलाते थे | पेट भरने के लिए उन्हें काम करना पड़ता था | गाँव-देहात में खेती में मजदूरी करने के अलावा और क्या काम मिल सकता था? कुछ रसूखदार लोग इसका फायदा उठाते थे | काम के बदले मोटा खाना और अत्यधिक काम लेने के लिए चिलम पकड़ा देना | गांजे के नशे में काम करते वक़्त काम ही दिखाई देता था और नशे में बेख़ौफ़ नीद का आनंद भी | अपना कोई घर द्वार नहीं | जहाँ काम किया वहीँ रस-पानी पी कर पसर गए | न तो खटिया-खटोला की परवाह और न ही ओढ़ना-बिछौना की आवश्यकता |

जाड़े का मौसम आ गया | अब दो महीने उनका गुजारा आसानी से हो जाएगा | गन्ने की पेराई का मौसम | रहने के लिए ईंख की सूखी पत्तियाँ मुफ्त मिल जाएँगी, जिससे उनकी मड़ई बन जायेगी | ठंढ से बचने के लिए कोई पुआल भी दे देगा | पुआल से ही ओढ़ना और बिछौना दोनों का काम हो जाएगा | अगर ठंढ अधिक हुई तो गांजे की एकाध पुड़िया मड़ई की बड़ेरी में मिल जाएगी | कुछ नहीं तो सूखी घास और फसलों की सूखी जड़ें तो मिल ही जाएँगी, जिन्हें जला कर तपनी की आग से ठंढ की ठिठुरन पर कुछ काबू हो जाएगा | उनके लिए समय का विभाजन एकदम पक्का है | सुबह छह बजे से दोपहर दो बजे तक गन्ने की कटाई, छिलाई और खेत से ढो कर पेराई की मशीन तक पहुंचाने का काम | और दो बजे के बाद गन्ने के रस को पकाने का काम | दूसरे अन्य मजदूर भी गन्ना चूसने के साथ-साथ लटदार के श्रम का भी चूषण करने से नहीं चूकते थे | छोटा मजदूर हो या बड़ा, लटदार उनके लिए एक आसान शिकार थे | ऐसा लगता था जैसे वे इन सबका मनोरंजन करने के लिए इस धरती पर आये हों | लटदार को इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता था | मालिक का मुँह लगा नौकर तो जैसे पिछले जनम की दुश्मनी निकाल रहा हो | जान बूझ कर उनका बोझ इतना बड़ा बनाया जाता था जैसे वे कोई इंसान न होकर ऊँट हों |

ऊँट का बोझ दर्जन भर लोगों ने मिलकर इंसान के सर पर लाद दिया | मोंटी गर्दन वाला यह साधु कभी-कभी तो बिना किसी पगड़ी के ही गन्ने के इस महाबोझ को लेकर डगमगाते पैरों से चल देता था | इस तरह लटदार अगर पांच फेरा भी कर दिए तो समझो आधे से अधिक काम तो अकेले इस बन्दे ने ही निपटा दिया | बोझ ले कर वे सीधे रास्ते नहीं चलते थे | जाड़े में नंगे पाँव खेतों के मध्य चलना उनके लिए बिलकुल आम बात थी | गर्दन और सर दोनों पसीने से बिलकुल तर-बतर लेकिन मजाल है कि बोझ अपनी सही जगह के बजाय और कहीं गिर जाय | वाह रे काम! नौकर ऐसा काम कर नहीं सकता, मालिक को ऐसा करने की आवश्यकता नहीं, तो लटदार को कौन सी श्रेणी में रखे? इसका निर्णय तो इस सीता-राम बोलने वाले के सीता-राम ही करें |

कलेवा का टाइम हो गया | उबला हुआ आलू, नमक के साथ सबको बाँट दिया गया | महिला नौकरानियों के जिम्मे कलेवा परोसने का काम होता था | कभी-कभी भुना हुआ चना या मक्के का लावा भी मिल जाता था | गग्गू घर के और खेती के काम का मुखिया था | मालिक के नजदीक होने के नाते किसी को कुछ भी बोल देता था | रस पिलाने का काम भी उसी के जिम्मे हुआ करता था | खेत जोतने वाला आदमी अगर नहीं आया तो हल की मुठिया भी उसी के जिम्मे आ जाती थी | सभी नौकर अपना-अपना गिलास या पुरवा-परई रखते थे लेकिन लटदार अपनी अँजुरी रोप लेते थे और एक सांस में कम से कम तीन लीटर गन्ने का रस पी जाते थे | अब इतना रस गिलास से कौन पिलाएगा? डकार लेने के बाद लटदार थोड़ा सुस्ताते थे और फिर एकाध लीटर रस पीने के बाद पानी से हाथ धुलते थे | इतना रस पीने वाले को कौन काम पर लगाएगा? भले ही वह फ्री में काम करे! गग्गू जल भुन जाता था | खरी-खोटी भी सुनाता था | पर कौन क्या सुनता सुनाता है, इसकी किसे परवाह है | “चलो लग जाओ काम पर”, गग्गू उपेक्षा से मुँह बिदका कर कहता | बचा-खुचा काम पूरा करने के बाद लटदार को कोल्हाड़ में ईंख की सूखी पताई, ईंख की खोई और अन्य ईंधन झोकने का काम मिलता था | आग के सामने पूरा समय अपना शरीर तपाते थे | इस काम में वे किसी की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं करते थे | शुक्र था कि ठंढी का मौसम होता था | गन्ने की पेराई के पूरे सीजन भर उनकी यही दिनचर्या होती थी |

लटदार को पानी से जैसे नफरत सी थी | शरीर पर भले पानी छू जाय, सर पर पानी का एक बूँद पड़ने नहीं देते थे | बिखरी, लपटी, जकड़ी लटें इस बात की गवाह थीं | मालिक की नजर कभी-कभार जब पड़ जाती तो उन्हें दूसरी लंगोट और गमछा मिल जाता था | उस दिन वे तालाब पर जाते थे और दुपहरी में डुबकी लगा लेते थे | उसी दिन अपनी लंगोट और पुराने गमछे पर रेह लगाते थे | लंगोट और गमछा इतना मैला हो चुका होता था कि रेह का उस पर बहुत मामूली असर दिखाई देता था | आते जाते यह ‘साफ़’ वस्त्र बच्चों को भी साफ़ दिखाई देने लगता था | बच्चे भी जैसे इस दिन का इन्तजार कर रहे हों | गग्गू तो पीछे ही पड़ जाता था | “क्या बाबा, आज तो चमक रहे हो”, गग्गू मजाक करता | लटदार बच्चों जैसी हंसी अपने होठों पर लाते थे और बिना कुछ कहे ही सब कुछ कह जाते थे | कभी-कभी जब बच्चे ज्यादा पीछे पड़ जाते तो गुस्से में कहते, “हाँ, तुम्हरे बाप ने साबुन दिया था न, उसी से साफ़ किया है | जाओ नहीं तो दूँगा एक डग्गर बस सब टिबिर-टिबिर निकल जाएगा |”

जाड़ा धीरे-धीरे कम होने लगा है | वही गन्ना जो इस लटदार की उदर पूर्ति कर रहा था, आज उसकी बुआई का दिन आ गया | तीन जोड़ी बैल नधेंगे | एक हल से हलकी, कम गहरी नाली बनेगी | दूसरे हल में फाल के दोनों तरफ उपले बांधे जाएंगे | इस जुगाड़ से पहले हल द्वारा बनाई गई नाली और गहरी हो जाएगी | इसके बाद ही गन्ने के कटे हुए तने जिसमें कम से कम एक-दो आँखे (बड्स) हों, बो दिए जाएंगे | तीसरा हल इस गन्ने के ऊपर मिट्टी डालने के लिए प्रयुक्त होता है | लटदार को यह काम करते-करते महारथ हाशिल हो गई थी | गन्ने के इस कटे हुए तने को स्थानीय बोली में ‘गाड़’ कहा जाता है | पानी से भीगे हुए गन्ने के बोझों को खेत में लाना, उन्हें छोटे-छोटे ‘गाड़ो’ में काटना और सही ढंग से हल चला कर इनकी बुआई करना अपने आप में बड़े ही समन्वय का काम होता है | इस कार्य को सफलता पूर्वक संपन्न करने के लिए अनेक लोगों की आवश्यकता पड़ती थी | लोग बोलते कि लटदार तो हैं न, अकेले ही एक जोड़ी बैल का काम करेंगे |

आज होली की रात थी | लटदार बेखबर अपने झोंपड़े में सोए हुए थे | कुछ नए टेन के रंगरूट अपनी शरारतों से कभी बाज नहीं आते | उनका यह झोंपड़ा भी होलिका को भेंट चढ़ गया | तड़के उठने पर उनके सर की छत गायब थी | उन्हें समझ आ गया कि अब उनके चलने का समय आ गया है | बोरे-नुमा एक मिर्जई पहने और हाथ में एक चिमटा लिए सीता-राम बोलते किस दिशा में चल देंगे, लटदार को स्वयं कुछ नहीं पता था |

लटदार हमेशा से ऐसे नहीं थे | प्रत्येक इंसान की तरह उन्हें भी उनकी माँ ने ही जनम दिया था | हिंदू जाति-व्यवस्था में उन्होंने एक धोबी कुल में जन्म लिया था | आठ साल की उम्र में स्कूल का मुहँ देखने का अवसर भी मिला | यहाँ भी उनका कुल उनसे पहले ही स्कूल में दाखिला ले चुका था | पंडित जी की छड़ी और तानों ने उनका यह रास्ता हमेशा के लिए बंद कर दिया | “सारे गधे स्वर्ग चले जाएंगे तो लादी कौन धोएगा?” अक्सर यह ताना सुनने को मिलता था | सुबह-शाम अखाड़े में वर्जिश और बाकी समय में लोगों के कपड़ों को उनके घरों से ला कर, गधे पर लाद कर धोबी घाट ले जाना, रेह लगा कर कपड़ों को तालाब के पानी से साफ़ करना, सुखाना और फिर घर पर लाना उनकी जीवनचर्या का अभिन्न अंग बन गया | स्कूल आते-जाते बच्चे उनके स्कूल छोड़ने के बाद भी अपने तानों से आहात करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते | धोबी घाट के पास पहुँचते ही बच्चे गधे की आवाज में ‘छी-पो-छी-पो’ करने लगते | लटदार तब लटदार नहीं थे | शायद उनका कोई नाम ही नहीं था | स्कूल में दाखिला हुआ होता तो संभव था उन्हें भी कोई ‘नट्टू, तूफानी, पिस्सू’ आदि नाम मिल जाता | सुन्दर, सभ्य, सुशील नामों पर तो केवल अभिजात्य वर्ग के लोगों का ही एकाधिकार था | अध्यापक लोग इन लोगों के माँ-बापू से पूछते भी नहीं थे कि उनके बच्चे का क्या नाम रखना है | जिस जजमान के घर का ज्यादा कपड़ा धोते उस दिन उसी के यहाँ भोजन का इंतजाम हो जाता | अच्छी खुराक और अच्छी दमकशी के साथ बकरी के दूध ने कमाल दिखाया और लटदार का हृष्ट-पुष्ट शरीर शीघ्र ही एक पहलवान युवक के रूप में परिचित हो गया | आस-पास के दंगलों में वे कुश्ती लड़ने लगे लेकिन कुदरत को यह रास नहीं आया | किसी महात्मा के फेर में पड़ कर एक रात घर-बार छोड़ कर निकल पड़े |  

लगभग तीन दशक के बाद अचानक उनका पुनः प्रादुर्भाव हुआ | यह समय लटदार के जीवन –काल का अंध-युग कहा जा सकता है | लटदार इसके विषय में किसी से कुछ बात भी नहीं करते थे | लौट कर आने के बाद वे जटाधारी बन गए थे और भजन आदि में अपना मन लगाते थे | जो भी उनकी पैत्रिक संपत्ति थी उसे बेच-बाच कर देवी के एक पुराने स्थान का जीर्णोद्धार करवाया और कुछ नीम और पीपल के वृक्ष भी लगाए | इस मंदिर का आहाता भी घेरवाया और वहां पर पूजा-पाठ भी करने लगे | कुछ दिनों तक यह सब विधिवत चलता रहा लेकिन फिर उनकी जाति उनके सम्मुख आ खड़ी हुई | पेट की अग्नि ने उन्हें मजदूर बना दिया और वे लटदार साधू के रूप में स्थापित हो गए | गर्मी की प्रचंड धूप हो या जाड़े की तीव्र ठंढ, उनका शरीर सब कुछ सह लेता था | सर का बाल लट में बदल गया और दाढ़ी अपने आप झड़ गई | समय के थपेड़े ने उनकी देह को बज्र सम बना दिया | समय के साथ यह बज्र भी शिथिल होने लगा | धूल-धक्कड़ से आँखों में कीचड़ भरने लगा | बड़ी-बड़ी डरावनी आँखे अब मुंदने लगी थीं | जब कभी-कभार कोई आँख में लगाने के लिए मरहम दे देता था, सीता-राम बोलकर उसका धन्यवाद जरूर करते थे |   

न जाने कितने लटदार इस धरती पर आये और चले गए | लोगों को कुछ फर्क नहीं पड़ा | कुछ लोग सहानुभूति जताते हैं तो अधिकाँश लोग मज़ाक उड़ाते हैं | थोड़े समय बाद तो कोई उनका नाम भी लेने वाला नहीं रहता | मटरू व्यथित मन से उस देवी स्थान पर पहुँच गए जहाँ कभी लटदार बैठा करते थे | हवा की हल्की बयार भी पीपल के पत्तों को हिलने के लिए मजबूर कर देती है | अचानक पत्तों की सरसराहट मटरू के कानों में डूबने लगी | ऐसा आभास होने लगा जैसे यह सरसराहट कुछ कह रही को | बस यही जीवन है | हो सके तो लोगों के जीवन में, लेशमात्र ही सही, शीतलता घोल दो | मटरू की तन्द्रा भंग हुई | मस्ती में हिलती-डुलती पीपल की लटकती हुई एक टहनी को पकड़ा, पत्तों को बड़ी ही कोमलता से सहलाया और छोड़ दिया | टहनी फिर से हिलने लगी | मटरू नम आँखों से टहनी को देखते हुए विदा हो गए |
 

Saturday, 16 March 2019

टिंकू का मुंडन


टिंकू का मुंडन
-डॉ राय साहब पाण्डेय 
ओझा की कृपा कहें या चिकित्सक की दवा का परिणाम, टिंकू की सेहत सुधर गई है | टिंकू अब बड़ा हो रहा है |  छह साल का कब का हो चुका | माँ रामकली को टिंकू के स्कूल में दाखिले की चिंता सताने लगी है | पर इसके पहले टिंकू का बाल उतरवाना होगा और वह भी माता के धाम में |

नवरात्र से अच्छा मुहूरत और क्या हो सकता है? मटरू को मुहूरत से पहले ही घर जाना होगा | सारा प्रोग्राम पहले से ही तय होने के कारण मटरू ने टिकट का इंतजाम कर रखा था | अब ऐसे धार्मिक अनुष्ठानों में पैसा तो खर्च होता ही है, मटरू भी काफी पहले से पैसे इकठ्ठा करने में लगे हुए थे | मटरू के दोस्त राम अगर्दी भी साथ जाने के लिए तैयार हो गए | जो कुछ नोट कमाए थे उसे कपड़े के एक पट्टे में सिल कर कमर में बांध लिया | नोट तो सुरक्षित हो गए, अब पेट के लिए इंतजाम बाकी था | दो दिन की यात्रा के लिए केवल सत्तू से काम न चलने वाला था | चने, चबैने के साथ गुड और नमकीन भी रख लिया | रास्ते में पानी के लिए बार-बार स्टेशन पर उतरने की झंझट कौन पाले, इसलिए पंद्रह लीटर वाला एक कनस्तर भी साफ़ कर सुरक्षित रख लिया | पानी तो घर से निकलने के पहले ही भरा जाएगा |

बाहर गाँव की एक्सप्रेस और मेल गाड़ियाँ शिवसागर से नहीं छूटती थीं | इन गाड़ियों को पकड़ने के लिए तो शिमलगुड़ी जंक्शन ही जाना पड़ता था | तिनसुकिया मेल रात के नौ बजे के करीब शिमलुगुड़ी पहुँचती थी | शिवसागर से शिमलुगुड़ी लगभग पंद्रह किलोमीटर पड़ता है | राम अगर्दी का घर स्टेशन से नजदीक था | मटरू दोपहर में ही राम अगर्दी के घर आ गए और वही से पसिंजर पकड़ कर शिवसागर जाना तय हुआ | स्टेशन पर मटरू के कीर्तन वाले कुछ और दोस्त उन्हें छोड़ने और विदाई देने भी आ गए | कुछ तो पोस्ट-कार्ड और अंतर्देशी भी मटरू को अपने घर के नजदीक डाक में छोड़ने के लिए दे रहे थे जिससे उनकी चिट्ठी उनके घर वालों तक जल्दी पहुँच जाय | छुक-छुक करती पसिंजर गाड़ी शिवसागर के निर्जन स्टेशन पर आ गई | जल्दी-जल्दी में सबने एक-दूसरे से दुआ-सलाम किया और ट्रेन प्रस्थान कर गई |

आधे-पौने घंटे में ही ट्रेन शिवसागर स्टेशन पहुँच गई | सामान सुरक्षित उतार कर मटरू और  राम अगर्दी एक बेंच पर आ कर बैठ गए | तिनसुकिया मेल आने में अभी काफी टाइम था | राम अगर्दी प्लेटफार्म पर चहल कदमी कर रहे थे तभी प्लेटफार्म पर आवाज आई, “यात्री गण कृपया ध्यान दें | आज तिनसुकिया मेल में आरक्षित डिब्बे नहीं लगे हैं | यात्री गण यदि चाहें तो टिकट वापस कर अपना पैसा प्राप्त का सकते हैं |” अगर्दी हाँफते हुए मटरू के पास आए | मटरू थोड़ी देर चुप रहे, “फिर बोले, देखा अगर्दी मैं कहता था न रिजर्वेशन मत कराओ | हमें चालू डिब्बे में ही सहता है | पहली बार तो रिजर्वेशन कराया लेकिन यह भी नसीब में नहीं लिखा था |” राम अगर्दी बोले कोई बात नहीं अब आगे की सोचो | सोचना क्या है, चलना तो है ही, जैसे तैसे घुसेंगे | कम से कम न्यू बोंगाईगाँव  से तो रिजर्वेशन मिल जाएगा | एक दूसरे से बात कर के दोनों ने अपने आप को ढाढस बंधाया | ट्रेन आने में अभी भी काफी वक़्त था | सामान उठाकर एक चाय की दूकान पर पहुँच गए और चाय की चुस्की लेने लगे |

समय को तो बीतना ही था सो बीत गया | ट्रेन स्टेशन पर आ कर खड़ी हो गई लेकिन सारे चालू डिब्बे प्लेटफार्म से दूर अँधेरे में थे | ट्रेन के दरवाजे से घुसना नामुमकिन लग रहा था | मटरू खिड़की से अन्दर घुसे, अगर्दी ने किसी तरह सामान अंदर फेंका और खुद खिड़की में फंस गए | अन्दर से मटरू और बाहर से पब्लिक की जोर आजमाइस के बाद राम अगर्दी धड़ाम से गाड़ी के फर्श पर गिरे | भगवान का शुक्र कहें या अच्छी किस्मत का खेल, चोट नहीं आई | पहले से सीट हथियाए बैठे लोगों से चिरौरी-विनती काम आई और पीठ सीधी करने की जगह मिल गयी | एक किला फतह हुआ, दोनों ने राहत की सांस ली | एक दूसरे की तरफ देखा और मुस्कुराए | पल भर में टेंशन गायब | इस तरह से गाड़ी में चढ़ना इन दोनों के लिए कोई नई बात तो थी नहीं, हाँ रिजर्वेशन वाले डिब्बे में बैठते तो जरूर नई बात होती |
खाली पेट झपकी लेते हुए तथा एक दूसरे पर गिरते पड़ते रात बीत गई | रंगिया होते हुए ट्रेन न्यू बोंगाईगाँव स्टेशन पर धमकी | बड़ी लाइन वाली गाड़ी के खुलने में अभी समय था |  दोनों दोस्तों ने अपना सामान उठाया और पूछते-पाछते वेटिंग हॉल में दाखिल हो गए |  यहाँ भी मुंह धोने से लेकर नित्य क्रिया के प्रत्येक स्तर पर लाइन |  खैर, मशक़्क़त तो करनी पड़ी लेकिन अंततः नित्य क्रिया से फ़ारिग हो ही गए | चाय के बाद सत्तू लपेटा और फिर अगली यात्रा के लिए तैयार | 

राम अगर्दी और मटरू ने पहली बार रिज़र्व डिब्बे में कदम रखा | डिब्बा तो साफ़-सुथरा था लेकिन चालू डिब्बे वाले कोलाहल की कमी थी | यहाँ की शांती अच्छी नहीं लग रही थी | अगले दिन सुबह दस बजे ट्रेन पटना स्टेशन में दाखिल हो गई | इधर का इलाका मटरू के लिए जाना पहचाना था, इसलिए मटरू काफी आश्वस्त थे | केसरिया जाने के लिए पसिंजर गाड़ी आने में वक़्त था | दोनों ने निश्चय किया कि आगे का सफ़र अब बस से ही निपटाया जाय | तकरीबन सौ किलोमीटर की बस यात्रा के लिए दोनों रिक्शा चालक अब रिक्शा पर सवार थे | सौभाग्य से मीठापुर बस स्टैंड पर बस केसरिया जाने के लिए तैयार खड़ी थी | कुछ भी हो, बस से घर जाने का उत्साह, बस में अपने लोगों के बीच बैठ कर बात करने का अपना ही उमंग होता है | बात-चीत करते और बस की खिड़की से गाँव-जेवार का नज़ारा देखते हुए अपने चिर-परिचित बस स्टैंड पर पहुँचने का उतावला पन मटरू की आँखों में साफ़ झलक रहा था |

टिंकू लट्टू नचा रहा था | रमेसर ने आवाज लगाईं, ”टिंकुआ तुम्हारे पापा आने वाले हैं, हमेशा बस से ही आते हैं चलेगा लेने?” टिंकू ने लट्टू एक तरफ फेंका, मामा के साथ बस स्टेशन के लिए तैयार | रामकली और मटरू की माँ घर पर बेटे तथा मेहमान के स्वागत के लिए व्यस्त हो गए | पहली बार दूर-दराज इलाके से मटरू का कोई दोस्त घर आ रहा है, कुछ ख़ास व्यंजन तो होना ही चाहिए | टिंकू और रमेसर बस अड्डे पर दाखिल हो गए, लेकिन बस का क्या? इसका कोई समय थोड़े न होता है | अक्सर लेट ही रहती है | पूछने से कोई फायदा तो होने से रहा | फिर भी डरते-डरते पूछ-ताछ वाली खिड़की पर पहुँच ही गए रमेसर | “अभी कोई खबर नही है, आने की खबर होने पर अनाउंस कर दिया जाएगा |” अपना सा मुँह लेकर लौट आये रमेसर | टिंकू के साथ बैठ कर इंतजार करने के अलावा और क्या कर सकते थे? “अरे रमेसर यहीं बैठे रहोगे क्या? बस आये तो दस मिनट हो गए, मुझे तो कंडक्टर से बाकी के पैसे लेने में टाइम लग गया | ये कंडक्टर लोग भी न जान-बूझ कर पैसा रोक कर रखते हैं ताकि पसिंजर भूल जाय और बाकी का पैसा उनकी जेब मा”, मटरू ने रमेसर को देख कर कहा | हड़बड़ाहट में रमेसर को समझ ही नहीं आया कि क्या कहें पर राम अगर्दी सब समझ गए | पैलगी-अशीष के बाद मटरू बेटे की तरफ झुके औए गोद में उठाया | दुलार से पूछा, “अब कैसे हो बेटवा और बेटे के सर पर लम्बे लहराते बाल निहारने लगे |”

थोड़ी देर में सभी लोग घर पर थे | मटरू की माँ दरवाजे पर ही मिल गई | पाँव छू कर मटरू और राम अगर्दी ने माँ से आशीर्वाद लिया | राम कली दरवाजे के पीछे से पति को देख रही थी, पर अभी उसका वक्त नहीं था | जल-जलपान के बाद स्नान-ध्यान और फिर भोजन-छाजन | शाम को बैठ कर मुंडन के बारे में सलाह-मशविरा करने लगे | दो दिन बाद मुंडन कराने का फैसला लिया गया |

टिंकू आज बेहद खुश था | दोस्तों के साथ खेलकूद के बाद वह अपने दो साथियों के साथ बगल के पम्पिंग सेट वाले नलकूप पर नहाने गया | आज उसके हाथ में खुशबू वाला नया ‘जय’ साबुन था | साबुन देखते ही दोनों दोस्त हाथ में ले कर जोर-जोर से सूंघने लगे | शुक्र है यह साबुन ही था वरना पूरी बट्टी ही खा जाते | श्यामू ने सकुचाते हुए पूछा, “टिंकू, मुझे भी नहाने के लिए साबुन देगा |” “हाँ, क्यों नहीं, जरूर दूँगा पर बस एक बार”, टिंकू ने फ़ौरन हामी भर दी | तीनो दोस्त नलकूप की टंकी पर नहाने लगे | सबसे पहले टिंकू ने ‘जय’ का उदघाटन किया | और डुबकी लगाने लगा | फिर श्यामू और सुन्दर की बारी आई | साबुन से नहाने का अद्भुत आनन्द पहली बार मिल रहा था | टिंकू को बार-बार साबुन लगाते देख श्यामू और सुन्दर भी अपने लोभ पर काबू नहीं कर पा रहे थे | दोनों ने एक जुगत लगाई | वे बार-बार टिंकू को पानी के अंदर देर तक डुबकी लगाने के लिए उकसाने लगे और जब तक वह पानी के अन्दर सांस रोक कर बैठा रहता उसके दोस्त जल्दी-जल्दी साबुन लगा लेते और फिर पानी के अन्दर बैठ जाते | यह सिलसिला कई बार चलने के बाद आखिर में टिंकू दोनों की चाल समझ गया | उसने कोई प्रतिवाद नहीं किया और मन ही मन दोनों की धूर्तता को कोसने लगा | घर लौटते समय वह यही सोचता रहा कि उसके दोस्त अगर उससे पूछ कर साबुन लगाते तो वह मना थोड़े ही करता | उसके लिए जीवन में चालाकी का यह पहला सबक था |

कल सवेरे मुंडन के लिए माता के धाम में जाना था | टिंकू की माँ और दादी ने सारा इंतजाम कर रखा था | पड़ोस की दो छोटी लड़कियों को भी साथ ले लिया गया | पुस्तैनी नाई तो इस नवरात्रि में धाम में ही डटा रहता था | माता के धाम में पंडों और मालियों का एकाधिकार था | मंदिर के आहाते में कई कतारों में क्रम से मिटटी के चूल्हे बने हुए थे, जो मालियों के रख-रखाव में थे | प्रत्येक चूल्हे का कुछ न कुछ किराया देना होता था | इसके लिए कोई निश्चित रकम तय नहीं थी | असामी देख कर रकम का मोल-भाव हो जाता था | मोटे असामी उम्मीद से ज्यादा ही दे दिया करते थे | टिंकू को पहले माता का दर्शन करवाया गया | माँ रामकली ने बड़े प्यार से बेटे के लम्बे लहराते बालों में अपना हाथ फेरा और बेटे को गले से लगाया | अब चुन्नन की बारी आई | उस्तरा तेज करने के बाद धीरे से मुस्कुराते हुए टिंकू की दादी से बोले, “काकी कुछ नेग-सगुन तो निकालो, पोते का मुंडन है | छूछ में उस्तरा आज नाहीं चलेगा |” दादी ने टिंकू की माँ की तरफ देखा और चुन्नन को कोसने लगी, “चल हट निगोड़ा कहीं का, कब तूने छूछ में कोई भी शुभ काम किया है रे? बस जो मन में आएगा, बोल देगा |” रामकली सकुचाते हुए अपने बटुए से दस-दस रुपये के दो नोट निकाले और चुन्नन के पहले से ही फैले हुए धारी-दार लाल अंगौछे में डाल दिए | कहते हैं नाईयों के पास छत्तीस बुद्धी होती है | चुन्नन अरसे से यही काम करता आ रहा था | जजमान की रग-रग से वाकिब था | “अरे काकी आपौ तो कुछ टेट हल्का करौ | ई तो भाभी डाली हैं | टिंकू की दादी भी इन्हीं रशमो-रिवाज में पली-बढ़ी थीं | इस बार उन्होंने कोई हँसी-मजाक नहीं किया | धोती के पल्लू का टोंक खोला और एक-एक रुपये के दो नोट टिंकू के सर के ऊपर घुमा कर चुन्नन के मुँह बाए अंगौछे में डाल दिया | मटरू और राम अगर्दी वहीँ जमीन पर बैठ कर यह सब कलाप देख रहे थे | चुन्नन जानता था कि मटरू तो इसमें कुछ डालने वाला नहीं है, उसने अपना अंगौछा फ़ौरन समेट लिया | चुन्नन की उंगलियाँ टिंकू के सर पर पानी के साथ फुर्ती से फिरने लगीं | बाल गीला और मुलायम होने के बाद चुन्नन ने मुंडन शुरू कर दिया | टिंकू की कोई बुआ नहीं थी इसलिए बाल रोपने का काम साथ आई दोनों लड़कियों ने कर दिया | टिंकू की माँ ने उन्हें भी नेग दिया | चुन्नन ने टिंकू के सर पर सरसों का तेल लगाया | बाल उतरवाने के बाद टिंकू सबका पैर छू कर आशीर्वाद लिया | पूड़ी-हलवा माताजी को चढ़ाने के बाद सबने प्रसाद ग्रहण किया |

दिन ढलने से पहले ही सब लोग घर आ गए | लेकिन मुंडन अभी समाप्त नहीं हुआ था | टिंकू की माँ सबसे बचते-बचाते पूड़ी-हलवा एक प्लेट में सजाकर घर से निकल गई | मटरू को शक हुआ | जब रामकली को लौटने में देर होने लगी तो तो मटरू का शक यकीन में बदलने लगा | रामकली ओझा के घर पहुँच गई | ओझाइन दरवाजे पर ही मिल गईं | रामकली हलवा-पूड़ी ओझाइन के हवाले कर ही रही थी कि उसी समय ओझा महोदय का पदार्पण हो गया | ओझा को हलवा पूड़ी में कोई विशेष रुचि नहीं थी | मांस-मच्छी खाने वाले के लिए इस सबका कोई खास मायने नहीं था | उसके मन में कुछ और चल रहा था | सामने बंधे हुए कई जोड़े बकरे आपस में ही जोर आजमा रहे थे | नजदीक जा कर ओझा ने रामकली को एक मुड़ी हुई सींग वाले बकरे की तरफ ऊँगली दिखाते हुए कहा, “बिटिया, देखो न कितना बड़ा हो गया है? इसको संभालना मुश्किल हो रहा है | खुराक भी बढ़ गई है | अगर तुमने कुछ नहीं किया तो इसका प्रसाद ही बनाना पड़ेगा |” रामकली सोचने लगी, “अभी तो यह बकरा दो महीने पहले मिमिया रहा था, इतने जल्दी कैसे इतना बड़ा हो गया?” ओझा ताड़ गया | झट से बिना रुके एक सांस में बोला, “क्या सोच रही हो बिटिया? यही न कि इतने जल्दी कैसे इतना बड़ा हो गया? इसका बड़ा होना ही तो टिंकू की सेहत सुधरने का प्रमाण है | अभी इसको साल भर और पालन पड़ेगा और फिर...|”

रामकली हकलाने लगी | किसी तरह हिम्मत जुटा कर बोली, “देखती हूँ काका |” और वहां से तुरंत ही निकाल गई | ओझा अपना वार चल चुका था | रामकली तमाम आशंकाओं के बीच अपने बोझिल पैरों को घर की तरफ घसीटने लगी | “बिना बताए चली आई, अब तक तो उन्हें पता भी चल गया होगा, क्या कहूँगी?”, सोचते-सोचते रामकली घर पहुँच गई | सौभाग्य से मटरू उस समय राम अगर्दी के साथ पड़ोस के लोगों से मिलने गए हुए थे | रामकली ने अपनी सास को सारा वाकया बता दिया | “तूँ मत घबड़ा, मैं मटरू और ओझा दोनों को संभाल लूंगी”, सास ने बहू रानी को आश्वस्त किया | मटरू और राम अगर्दी थोड़ी देर बाद आ गए | मटरू कुछ पूछते इसके पहले माँ ने बताया कि उसने ही माता के धाम का प्रसाद ओझा के परिवार के लिए भिजवाया था | मटरू इसके बाद क्या कहते | वे जानते थे कि अम्मा अगर एक बार फट पड़ी तो लेने के देने पड़ सकते हैं | शांत रहने में ही भलाई समझी | मेहमान के सामने बखेड़ा खड़ा करना उचित नहीं था |

भोजन तैयार था | मटरू और राम अगर्दी के भोजन कर चुकने के थोड़ी देर बाद मटरू की अम्मा दोनों के पास आईं और इसके पहले वह कुछ बोलती राम अगर्दी बोले, “अम्मा परसों वियय दशमी है | मैं चाह रहा था कि कल गाँव चला जाऊं |” अम्मा कुछ मिनट के लिए चुप हो गईं फिर बोली, “बेटवा हम तो चाहत रहे कि इहाँ का मेला देख के जाओ लेकिन तुम्हरा भी घर-पलवार है | तुम्हरी भी अम्मा है, जोरू है, बाल-बच्चे हैं, हम कैसे रोक सकत हई |” राम अगर्दी अम्मा की सूझ-बूझ के कायल हो गए | थोड़ी देर सब शांत रहे | फिर मटरू ने पूछा, “अम्मा तुम कुछ कहै चाहत रही है, बताओं न क्या बात है?” अम्मा मटरू के सर पर हात फेरते हुए बोली, “बेटवा, तुम तकदीर वाला है जो तुमको रामकली जैसी जोरू मिली है |” अम्मा कुछ आगे बोलती कि मटरू बोल पड़े, “यही कहे खातिन इतना प्यार दिखा रही है |” “नहीं रे, रामकली ओझा के यहाँ परसाद ले के गई थी, पर वो निगोड़ा तो कुछ और कहानी बना रहा है | बहू जब से ओझा के घर से आई है बहुत परेशान लग रही है |” मटरू ने अम्मा को ढाढस बंधाया और बोला- “अम्मा अब जा कर सो जाओ, कल ओझा से निपट लेंगे |

मटरू और राम अगर्दी ने आपस में आगे इस विषय पर कोई विमर्श नहीं किया और सो गए | दोनों तड़के उठ गए | स्नान-ध्यान से फ़ारिग होने के बाद दही-चिवड़ा का नाश्ता किया और बस स्टेशन की तरफ चल पड़े | लेकिन राम अगर्दी के मन में कुछ और चल रहा था | वे बस स्टेशन के विपरीत वाले रास्ते की तरफ मुड़े और बोले, “थोड़ा ओझा जी से आशीर्वाद ले लेते हैं |” मटरू राम अगर्दी के स्वभाव से परिचित थे | उन्हें आशंका हुई, आज कुछ तो करेगा यह | न चाहते हुए भी मटरू के कदम उसी राह पर चल पड़े | थोड़ी देर में ही दोनों ओझा के दरवाजे पर थे | ओझा उस समय मुँह में दातुन डाल कर चबा रहा था | मटरू ने बड़ी अदब से ओझा जी से राम-राम कही | ओझा ने भी उसी खुशमिजाजी से मटरू का अभिवादन स्वीकार किया | ओझा ने राम अगर्दी का भी परिचय प्राप्त किया | राम अगर्दी का सामान मटरू के पास था | राम अगर्दी लपक कर आगे बढ़े, मोटी और मुड़ी सींग वाले बदबूदार बकरे का पगहा खूँट सहित उखाड़ लिया | एक हाँथ में बकरे का पगहा और दूसरे में खूँटा ले कर चलते बने और मटरू को भी चलने के लिए आवाज लगाई | “हाँ-हाँ, यह क्या कर रहो हो”, मटरू और ओझा दोनों ने एक साथ जोर से पुकारा | जब तक दोनों कुछ समझते, राम अगर्दी ओझा के घर से काफी दूर जा चुके थे |

राम अगर्दी वहीँ रुक गए | दरअसल उनका मकसद ओझा के घर पर कोई बखेड़ा खड़ा करना नहीं था | वह तो उसे सबक सिखाना चाहते थे | ओझा अपने मुँह में आई नीम की कड़वी पीक निगला और दातून फेंक राम अगर्दी के पास पहुँच गया | इसके पहले कि वह कुछ बोलता राम अगर्दी बोल पड़े, “मटरू भैया, हमारे बैग में एक लम्बा सा चाकू है उसे निकालिए | इस बकरे का परसाद बनाना है और इस ओझा के मुँह में ठूस-ठूस कर इसका परलोक सुधारना है | क्यों? यही कहा था न तुमने भाभी से? अभी तुम्हें मजा चखाता हूँ | कामचोर कहीं का | भोले-भाले लोगों को फँसाते हो, इतनी बेशर्मी कहाँ से सीखी है? कहो तो चलता हूँ तुम्हारी जोरू के पास और उसे तुम्हारी सब करतूत बताता हूँ | जितने पैसे तुमने लिए हैं शराफत से वापस कर देना वरना पुलिस भले छोड़ दे, मैं नहीं छोडूंगा |” दूसरों को डराने वाला ओझा आज इस कदर डर जाएगा, उसने कभी नहीं सोचा होगा | ओझा ने मटरू के आगे हाँथ जोड़ लिए | राम अगर्दी भैया, अब जाने दो | इसको अपने किये की सजा मिल गयी है | खूँटा और पगहा दोनों एक साथ फेंकते हुए राम अगर्दी ने ओझा के सामने उसके लटके मुँह पर राम-राम कही और मटरू के साथ चल दिया | बस स्टेशन पर पहुँच कर दोनों ने एक दूसरे को देखा और एक जोरदार ठहाका लगाया | ओझा के पाँव में मानो चकरी सिल गई हो | आतंकित और भारी मन से एक हाँथ में खूँटा और दूसरे में बकरे का पगहा पकड़ अपने घर आ गया |

आज विजय दशमी है | टिंकू उत्साह में है | क्यों न हो अपने पापा के साथ मेला जो देखने जाना है | कुछ भी हो आज के दिन पूड़ी, तरकारी, रसादार भांजी और सेवई या खीर तो मिलेगा ही | त्यौहार हो या कोई अन्य प्रयोजन, अधिकतर समय खाने-पीने और स्वागत-सत्कार में ही निकलता है | महिलाओं का तो जनम ही इसी काम के लिए हुआ है | टिंकू की माँ और दादी भले ही विजय दशमी के मेले में न जाँय पर त्यौहार की सारी तैयारी इनकी ही जिम्मेदारी है | आज भी शुभ दिन है ऐसा मान कर दादी ने मटरू को पंडित जी के पास भेंज दिया | आखिरकार टिंकू कब तक टिंकू रहेगा | उसका भी अपना एक नाम होना चाहिए | घर के नाम के अतिरिक्त स्कूल का भी नाम चाहिए | टिंकू बिना नाम लिखाए ही कभी-कभार स्कूल चला जाता था | थोड़ा बहुत अक्षर भी पहचान लेता था | स्कूल में उसका नाम लिखाना अब जरूरी हो गया था | मटरू भले ही ख़ास पढ़ा-लिखा नहीं था लेकिन ज्ञान का महत्तव वह भली-भांति समझता था |

आज सचमुच टिंकू का ही दिन था | मटरू टिंकू के नामकरण के लिए पंडित जी के पास गए थे और इस बीच ओझा मटरू के घर आ धमका | मटरू की दादी को आवाज लगाई:
ओझा: अरे, मटरू की अम्मा कहाँ हो?
दादी: कौन है? टिंकू जरा देखो तो |
टिंकू: ओझा बब्बा हैं, दादी |
ओझा का नाम सुनकर दादी मन ही मन सहम गई | रामकली भी सकते में आ गई | पता नहीं यह निगोड़ा सवेरे-सवेरे क्यों आ धमका | मटरू भी घर पर नहीं है | गीला हाथ अपने साड़ी में पोछते हुए दादी बाहर आ गई |
दादी: का हुआ सोखा? इधर का रास्ता कैसे भुला गए सवेरे-सवेरे |
ओझा: बस ऐसे ही मन हुआ आप लोगन से मिल लेते हैं, सो आ गए | त्यौहार का दिन है आप तो बड़ी हैं इसलिए आप का आशीर्वाद लेने आ गया |
दादी: (निगोड़ा देखो कैसी बात बना रहा है, मन ही मन कोसते हुए) सुखी रहो, नीके रहो भइया | बताओ झाड़-फूक कैसा चल रहल बा?
ओझा: (बात बदलते हुए) मटरू नहीं दिखाई दे रहे हैं?
दादी: यहीं अगल-बगल ही गए है, कुछ काम था क्या? कहो तो बुलवा दूँ?
ओझा “चलो अच्छा हुआ नहीं है” सोचते हुए टिंकू की तरफ मुड़ा और बोला- टिंकू बेटा आज मेला देखने जाओगे न, ओझा बब्बा की तरफ से यह रख लो | ऐसा कहते हुए कुछ रुपये उसने टिंकू की जेब में रख दिए और अपने घर की तरफ मुड़ गया | टिंकू, दादी और रामकली तीनों उसके इस बदले रुख को देख स्तब्ध थे | आज सूरज पश्चिम में कैसे उग गया, दादी ने आश्चर्य से कहा |  

मटरू खुश थे | सारा काम मन मुताबिक़ चल रहा है | घर पहुँचते ही मटरू ने टिंकू के नए नाम से पुकारा, “सुरिंदर कुमार, बाहर तो आओ |” टिंकू तो नहीं आया लेकिन मटरू की अम्मा और रामकली दोनों एक साथ बाहर आ गए | रामकली कुछ बोलती, अम्मा बोल पड़ी | भइया मटरू आज तो गदोरी(हथेली) पर दूब जम गई | मटरू अम्मा को आँख फाड़ कर देखने लगे | उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि वे मटरू का नया नाम ले कर आये हैं और उनसे कोई कुछ पूछ ही नहीं रहा है |  अम्मा ने एक सांस में ओझा के घर पर आने की खबर बताई | मटरू हँसे बिना नहीं रह सके और मन ही मन राम अगर्दी का शुक्रिया भी कहा | अब रामकली और अम्मा मुँह बाए खड़ी थीं | मटरू ने टिंकू को उसके नए नाम से एक बार फिर पुकारा | अम्मा और रामकली ने भी दुहराया “सुरिंदर कुमार” |

पिता और पुत्र मेले की भीड़ में शामिल थे | मटरू के लिए तो अपने जेवार का यह मेला एक अरसे बाद आया है | रास्ते में जाते हुए मटरू अपने बचपन की यादें ताज़ी कर रहे थे | तब से अब कितना कुछ बदल गया था | मेले में खूब घूमे | पुराने दोस्तों से मिले | दूसरों की सुनी, अपनी सुनाई | मिठाई, रेवड़ी और ककनी खरीदी | बेटे और उसके दोस्तों ने जो भी खाया, दिल खोल कर खिलाया | मेले में घूमते हुए एक हस्तेखा विशेषज्ञ से टकरा गए | अभी ओझा की जाल से छूटे ही थे कि हाथ देखने वाले ने अपने जाल में फंसा लिया | कुछ अच्छी-अच्छी बातें बताई और मोटा-मोटी भविष्य उज्जवल कह कर मटरू की जिज्ञासा शांत की |

सूरज डूबने वाला था | हर साल की तरह इस साल भी रावण जलने वाला है | बुराई पर अच्छाई की जीत होने वाली थी | सूरज डूबा, रावण मरा, दुनियाँ में अच्छाई और सद्गुणों का प्रवेश हो गया | इस तरह रावण के मरने और जीने का एक और क्रम समाप्त हुआ | पहले राम ने रावण का वध किया, शायद इसलिए बुराई ख़त्म हो गयी हो पर आज तो नेता लोग तीर चलाते हैं | क्या कोई नेता उल्टा तीर चलाता है जो खुद उसे ही वेध सके? बुराई भले ही न ख़त्म हुई हो पर थोड़े समय के लिए ही सही मटरू के मन में श्रद्धा का समावेश अवश्य हो गया | घर पहुँच कर सुरिंदर ने सबसे पहले दादी को अपने पिताजी के हाथ दिखाने की बात बताई | अब हंसने की बारी दादी की थी |

अम्मा की निश्छल हँसी सुन मटरू भी हँसने लगे | रामकली भी अपनी हँसी नहीं रोक पा रही थी | आखिर कब तक हँसते | फिर सभी शांत हो गए | पर शांत भी कब तक रहते? अंत में अम्मा बोलीं, “शिवचरन तुम्हारी गदोरी में झौवा भर तो लकीरें हैं, लेकिन टेट खाली ही रहती है | उस रेखा वाले से नहीं पूछा ऐसा काहे है? मैं बताती हूँ | एक ठेठ पुरानी कहावत है: “सरग पाने के लिए मरना होता है” | बेटा रिक्शा के आगे भी सोच | खुद तो नहीं पढ़ा-लिखा अब बेटे को आदमी बना | मटरू माँ के मुख से अपना असली नाम सुनकर बिना कुछ कहे माँ की तरफ  एक टक देखते रहे |