Thursday, 28 March 2019

कोई ऑफ हो गया



कोई ऑफ हो गया
-डॉ राय साहब पाण्डेय 
समय भी क्या चीज है! कोई कहता है अजीब है तो कोई इसे दो पलों के बीच का अंतराल बताता है | पर मटरू को इससे क्या लेना? उनके लिए तो सवेरे सूरज उगा है तो शाम को उसे डूबना है | कुछ दिन पहले वे घर आने की तैयारी कर रहे थे, अब जाने की कर रहे हैं | एक बात तो माननी पड़ेगी कि घर आते वक़्त घर से जाने का ख़याल नहीं रहता है वरना सारा उत्साह बे मजा हो जाय | मटरू एक दिन आये थे अब जाएंगे | फिरहाल उनके लिए तो यही समय है |

शिवसागर जाने से पहले आज वे पड़ोस के गाँव में अपनी बिरादरी के लोगों से मिलने निकले | ढेर सारे लोगों को उसी तरफ जाते देख मटरू ने सहज भाव से एक लड़के से पूछा, ‘भैया सब लोग कहाँ जा रहे हैं?” लड़का यही कोई टिंकू की उम्र का रहा होगा | उसने भी उसी सहजता से जबाब दिया, “कोई ऑफ हो गया है” | लड़के के मुख से यह सुनकर एक क्षण को तो समझ ही नहीं आया कि यह क्या कह रहा है, पर तुरंत दिमाग की बत्ती जली और सब कुछ समझ आ गया | वह भी लोगों के साथ उसी दिशा में चल दिए | दिमाग की बत्ती जल चुकी थी इसलिए सोचते हुए चल रहे थे | पहले लोगों का स्वर्गवास होता था या सरग सिधार जाते थे या इंतकाल हो जाता था या फिर सिर्फ मर जाते थे, अब ऑफ होने लगे हैं | समय का एक और मायने समझ आने लगा | इह लोक से परलोक की यात्रा |

काफी लोग इकठ्ठा हो गए थे | मटरू ने भी उनका अंतिम दर्शन कर लिया | मटरू बचपन से ही उन्हें भलीभांति जानते थे | पर जबसे शिवसागर का रुख किया, बहुत कम बार ही ऐसा हुआ होगा जो इनकी सुध आई हो | लोगों में वे ‘लटदार’ साधू के नाम से प्रचलित थे | खैर उनकी ऑफ हुई काया अब माया मुक्त हो ‘डेड बॉडी’ में तब्दील हो गई थी | लोगों में इस बात को लेकर बहस हो रही थी कि अब इस ‘मिटटी’ का क्या करना है |  उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी | बहुत लोगों के लिए वे बिना गेरुआ वाले साधू थे तो कुछ उन्हें साधू ही नहीं मानते थे क्योंकि वे साधु बनने की औपचारिक दीक्षा से नहीं गुजरे थे |

“जाने वाला तो जा चुका, अब बहस से क्या फायदा”, भीड़ के मध्य से एक संयत आवाज उभरी  | लोग अचानक उसकी तरफ मुड़े | मटरू इस व्यक्ति को नहीं पहचानते थे | पता चला यह निमई थे और लटदार के नजदीकी | निमई ने अपना कथन जारी रखा, “बाबा तो कब से साधु बन गए थे | उनका हर कार्य दूसरों के लिए ही था | मेहनत-मजदूरी में भी दूसरों का ही हित देखते थे | जिसने जो खिला दिया खा लिया, कोई जूना-पुराना चिथड़ा दे दिया, पहन लिया | साधु, आखिरकार कौन होता है?” निमई की व्याख्या और तीव्र होने लगी, “'साध्नोति परकार्यमिति साधुः” | बताइए इस लिहाज से लटदार साधु थे या नहीं? आज के समय में साधु भले ही उनको कहते हों जो सन्यास दीक्षा लेकर गेरुए वस्त्र धारण करते है | वे भजन-कीर्तन अपने ढंग से करते थे, सीता-राम का नाम लेते थे | हाँ, वे कोई विशेष पंथ से नहीं जुड़े थे और न ही उनको इसका ज्ञान था | फिर भी वे साधु ही थे |” कुछ लोग अगल-बगल से कतरा कर चलते बने | जो बच गए, वे निमई से इत्तफ़ाक रखते थे | बचे लोगों में कुछ ऐसे भी थे जिन्हें शायद यकीन था कि कबीर के तरह लटदार की मय्यत भी फूलों में बदल जाय और इस क्रिया-कर्म से छुटकारा हो जाय | कबीर हिन्दुओं और मुसलामानों में बट गए थे | लटदार साधु-असाधु के चक्कर में | खैर, लटदार फूल नहीं बने | उनका संस्कार तो साधुओं की भांति ही करने का निर्णय किया गया | अब हिन्दू परंपरा के मुताबिक साधु-सन्यासियों और बच्चों का दाह-संस्कार तो किया नहीं जाता क्योंकि वे अपनी काया से मोह विहीन होते हैं, इसलिए उनकी माटी को माटी के हवाले ही करना होगा |

निर्जन पुस्तैनी जमीन के एक कोने में छह फीट गहरा और तीन फीट चौड़ा गड्ढा खोदा गया |  लटदार को नहला-धुला कर उनकी लट सवांरने की कोशिश की गई | जीते जी न तो खुद यह साधु अपने लट की कोई परवाह की और न ही किसी अन्य ने | मटरू ने जब भी देखा शरीर का ऊपरी तथा नीचे का भाग वस्त्र-विहीन था | मध्य भाग एक लंगोट से कसा और फटी मैली-कुचैली किसी की दी हुई धोती में लिपटा हुआ रहता था | साबुन तो उनके साधु बनने से पहले ही उनका नसीब छोड़ चुका था | लट, जिसके कारण उनका नाम लटदार पड़ा, किसी के सवांरने से कहाँ संवरने वाली थी? नए परिधान से लंगोटी पहना दी गई | शीतल लेप और सुगंधित इत्र से सज्जित, उदर-रहित, चौड़ी छाती वाले इस छह फुटे लटदार को एक बड़े आम के पीढ़े पर कमलासन में बिठा दिया गया | साधु की ऐसी मुद्रा जीते जी कभी नहीं दिखी थी | ऐसा लगता था यह लटदार बस अब सीता-राम बोलने ही वाला है | निमई और अन्य पड़ोसियों ने लटदार की मृत काया को पीढ़े सहित उठाया और माया-मुक्त माटी को माटी के हवाले सुपुर्द करने ही वाले थे कि निमई के पिता जी हाँफते-हाँफते आ पहुँचे और परशुराम की तरह गरज उठे | “ई सब तूँ लोग का कर रहा है? हमारे बाप-दादाओं में किसी का ऐसा संस्कार नहीं हुआ | लगता है तुम लोगन की मती मारी गई है |” एकाएक सब लोग सकपका गए | जो लोग वहाँ से चले गए थे, फिर इकठ्ठा होने लगे | भीड़ अब हिंदू–मुसलमान में बँट गई | अंत में बहुसंख्यक जीत गए | अब तक लटदार के मालिक का भी पदार्पण हो चुका था | उनसे भी सलाह-मशविरा किया गया | मालिक ने सलाह दी कि साधु की मिटटी का जल-प्रवाह किया जाय | सबने एक राय से उनकी बात मान ली | मालिक ने निमई के पिताजी को इशारे से एक तरफ बुलाया और कुछ रुपये उनके हाथ में रख दिए | लटदार की कमल मुद्रा वाली काया पीढ़े से उतार कर अब हरे बासों की टिकठी वाली शय्या पर लिटा दी गयी | शव को कफ़न से ओढ़ा दिया गया | लोगों ने कन्धा दिया | मटरू ने भी टिकठी को हाथ लगाया | मिटटी का मिटटी से मेल नहीं लिखा था | छह फीट गड्ढे के नसीब में लटदारको निगलना मुमकिन नहीं हो पाया | लटदार को गंगा के पवित्र जल में समाधिस्थ कर दिया गया | लटदार ने भी क्या किस्मत पाई थी | जीते जी मनुष्यों ने इस शरीर का शोषण किया और मरने के बाद मछलियों ने दावत उड़ाई | लटदार चिर समाधि में विलीन हो गए |

मटरू भारी मन से घर की तरफ चल दिए | लटदार के साथ आस-पास के अन्य जीवित और मृत साधुओं के बारे में सोचने लगे | साधु बनने की कोई औपचारिक विधि यहाँ नहीं थी | हाँ, दाढ़ी बढ़ाना एक अनिवार्यता जरूर लगती थी | गेरुआ धारण करना भी अनिवार्य नहीं था | यहाँ जितने भी छुटभैये साधु थे या जिनको लोग साधू कहने लगे थे, उनमे एक सार्वनिष्ठ समानता अवश्य दिखती थी | ये सभी साधू चिलमची थे | चिलम को भोले नाथ का प्रसाद मानते थे | तमाम असाधु और जन साधारण जनता को भी जब चिलम की तलब लगती थी तो वह उन्हें इन्हीं साधुओं के शरण और संरक्षण में आसानी से प्राप्त हो जाती थी | कुछ साधू तो साधु होने की आड़ में गांजे का धंधा भी करते थे | पुलिस को हप्ते का एक और सुनहरा जरिया भी बैठे-बैठाए मिल जाता था | ऐसे अनेक साधुओं को उनका नाम उनके मुख्य नाम के अपभ्रंश से ही सुलभ हो जाता था | मिसाल के तौर पर लोकनाथ लोकई और छबिनाथ छब्बू साधू बन जाते थे | भारतीय परंपरा में बढ़ी दाढ़ी और गेरुआ वस्त्र किसी भी छद्मभेषी को आसानी से पहुँचा हुआ साधु, महात्मा या फकीर बना देता है | ये साधु भभूत देने या झाड़-फूक करने की कला में भी माहिर होते हैं | यह सब कलाएं इन्हें स्वतः हासिल नहीं होती थीं | इसके लिए इन्हें भी चेलहाई करनी पड़ती थी | मंदिर धोना, साफ़-सफाई करना, बड़े अखाड़े के साधुओं की सेवा-टहल से यह सभी गुण इनके अंदर भी प्रस्फुटित होने लगते थे | मंदिरों पर एकाधिकार ज़माना और कमाई करना इन श्रेणी के साधुओं की खूबी बन जाती थी |

लटदार थोड़े अलग थे | स्वभाव से बिलकुल सरल थे | अन्य तथाकथित साधुओं की तरह न तो वे मंदिरों की रखवाली करते थे और न ही कोई दुकान-डलिया चलाते थे | पेट भरने के लिए उन्हें काम करना पड़ता था | गाँव-देहात में खेती में मजदूरी करने के अलावा और क्या काम मिल सकता था? कुछ रसूखदार लोग इसका फायदा उठाते थे | काम के बदले मोटा खाना और अत्यधिक काम लेने के लिए चिलम पकड़ा देना | गांजे के नशे में काम करते वक़्त काम ही दिखाई देता था और नशे में बेख़ौफ़ नीद का आनंद भी | अपना कोई घर द्वार नहीं | जहाँ काम किया वहीँ रस-पानी पी कर पसर गए | न तो खटिया-खटोला की परवाह और न ही ओढ़ना-बिछौना की आवश्यकता |

जाड़े का मौसम आ गया | अब दो महीने उनका गुजारा आसानी से हो जाएगा | गन्ने की पेराई का मौसम | रहने के लिए ईंख की सूखी पत्तियाँ मुफ्त मिल जाएँगी, जिससे उनकी मड़ई बन जायेगी | ठंढ से बचने के लिए कोई पुआल भी दे देगा | पुआल से ही ओढ़ना और बिछौना दोनों का काम हो जाएगा | अगर ठंढ अधिक हुई तो गांजे की एकाध पुड़िया मड़ई की बड़ेरी में मिल जाएगी | कुछ नहीं तो सूखी घास और फसलों की सूखी जड़ें तो मिल ही जाएँगी, जिन्हें जला कर तपनी की आग से ठंढ की ठिठुरन पर कुछ काबू हो जाएगा | उनके लिए समय का विभाजन एकदम पक्का है | सुबह छह बजे से दोपहर दो बजे तक गन्ने की कटाई, छिलाई और खेत से ढो कर पेराई की मशीन तक पहुंचाने का काम | और दो बजे के बाद गन्ने के रस को पकाने का काम | दूसरे अन्य मजदूर भी गन्ना चूसने के साथ-साथ लटदार के श्रम का भी चूषण करने से नहीं चूकते थे | छोटा मजदूर हो या बड़ा, लटदार उनके लिए एक आसान शिकार थे | ऐसा लगता था जैसे वे इन सबका मनोरंजन करने के लिए इस धरती पर आये हों | लटदार को इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता था | मालिक का मुँह लगा नौकर तो जैसे पिछले जनम की दुश्मनी निकाल रहा हो | जान बूझ कर उनका बोझ इतना बड़ा बनाया जाता था जैसे वे कोई इंसान न होकर ऊँट हों |

ऊँट का बोझ दर्जन भर लोगों ने मिलकर इंसान के सर पर लाद दिया | मोंटी गर्दन वाला यह साधु कभी-कभी तो बिना किसी पगड़ी के ही गन्ने के इस महाबोझ को लेकर डगमगाते पैरों से चल देता था | इस तरह लटदार अगर पांच फेरा भी कर दिए तो समझो आधे से अधिक काम तो अकेले इस बन्दे ने ही निपटा दिया | बोझ ले कर वे सीधे रास्ते नहीं चलते थे | जाड़े में नंगे पाँव खेतों के मध्य चलना उनके लिए बिलकुल आम बात थी | गर्दन और सर दोनों पसीने से बिलकुल तर-बतर लेकिन मजाल है कि बोझ अपनी सही जगह के बजाय और कहीं गिर जाय | वाह रे काम! नौकर ऐसा काम कर नहीं सकता, मालिक को ऐसा करने की आवश्यकता नहीं, तो लटदार को कौन सी श्रेणी में रखे? इसका निर्णय तो इस सीता-राम बोलने वाले के सीता-राम ही करें |

कलेवा का टाइम हो गया | उबला हुआ आलू, नमक के साथ सबको बाँट दिया गया | महिला नौकरानियों के जिम्मे कलेवा परोसने का काम होता था | कभी-कभी भुना हुआ चना या मक्के का लावा भी मिल जाता था | गग्गू घर के और खेती के काम का मुखिया था | मालिक के नजदीक होने के नाते किसी को कुछ भी बोल देता था | रस पिलाने का काम भी उसी के जिम्मे हुआ करता था | खेत जोतने वाला आदमी अगर नहीं आया तो हल की मुठिया भी उसी के जिम्मे आ जाती थी | सभी नौकर अपना-अपना गिलास या पुरवा-परई रखते थे लेकिन लटदार अपनी अँजुरी रोप लेते थे और एक सांस में कम से कम तीन लीटर गन्ने का रस पी जाते थे | अब इतना रस गिलास से कौन पिलाएगा? डकार लेने के बाद लटदार थोड़ा सुस्ताते थे और फिर एकाध लीटर रस पीने के बाद पानी से हाथ धुलते थे | इतना रस पीने वाले को कौन काम पर लगाएगा? भले ही वह फ्री में काम करे! गग्गू जल भुन जाता था | खरी-खोटी भी सुनाता था | पर कौन क्या सुनता सुनाता है, इसकी किसे परवाह है | “चलो लग जाओ काम पर”, गग्गू उपेक्षा से मुँह बिदका कर कहता | बचा-खुचा काम पूरा करने के बाद लटदार को कोल्हाड़ में ईंख की सूखी पताई, ईंख की खोई और अन्य ईंधन झोकने का काम मिलता था | आग के सामने पूरा समय अपना शरीर तपाते थे | इस काम में वे किसी की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं करते थे | शुक्र था कि ठंढी का मौसम होता था | गन्ने की पेराई के पूरे सीजन भर उनकी यही दिनचर्या होती थी |

लटदार को पानी से जैसे नफरत सी थी | शरीर पर भले पानी छू जाय, सर पर पानी का एक बूँद पड़ने नहीं देते थे | बिखरी, लपटी, जकड़ी लटें इस बात की गवाह थीं | मालिक की नजर कभी-कभार जब पड़ जाती तो उन्हें दूसरी लंगोट और गमछा मिल जाता था | उस दिन वे तालाब पर जाते थे और दुपहरी में डुबकी लगा लेते थे | उसी दिन अपनी लंगोट और पुराने गमछे पर रेह लगाते थे | लंगोट और गमछा इतना मैला हो चुका होता था कि रेह का उस पर बहुत मामूली असर दिखाई देता था | आते जाते यह ‘साफ़’ वस्त्र बच्चों को भी साफ़ दिखाई देने लगता था | बच्चे भी जैसे इस दिन का इन्तजार कर रहे हों | गग्गू तो पीछे ही पड़ जाता था | “क्या बाबा, आज तो चमक रहे हो”, गग्गू मजाक करता | लटदार बच्चों जैसी हंसी अपने होठों पर लाते थे और बिना कुछ कहे ही सब कुछ कह जाते थे | कभी-कभी जब बच्चे ज्यादा पीछे पड़ जाते तो गुस्से में कहते, “हाँ, तुम्हरे बाप ने साबुन दिया था न, उसी से साफ़ किया है | जाओ नहीं तो दूँगा एक डग्गर बस सब टिबिर-टिबिर निकल जाएगा |”

जाड़ा धीरे-धीरे कम होने लगा है | वही गन्ना जो इस लटदार की उदर पूर्ति कर रहा था, आज उसकी बुआई का दिन आ गया | तीन जोड़ी बैल नधेंगे | एक हल से हलकी, कम गहरी नाली बनेगी | दूसरे हल में फाल के दोनों तरफ उपले बांधे जाएंगे | इस जुगाड़ से पहले हल द्वारा बनाई गई नाली और गहरी हो जाएगी | इसके बाद ही गन्ने के कटे हुए तने जिसमें कम से कम एक-दो आँखे (बड्स) हों, बो दिए जाएंगे | तीसरा हल इस गन्ने के ऊपर मिट्टी डालने के लिए प्रयुक्त होता है | लटदार को यह काम करते-करते महारथ हाशिल हो गई थी | गन्ने के इस कटे हुए तने को स्थानीय बोली में ‘गाड़’ कहा जाता है | पानी से भीगे हुए गन्ने के बोझों को खेत में लाना, उन्हें छोटे-छोटे ‘गाड़ो’ में काटना और सही ढंग से हल चला कर इनकी बुआई करना अपने आप में बड़े ही समन्वय का काम होता है | इस कार्य को सफलता पूर्वक संपन्न करने के लिए अनेक लोगों की आवश्यकता पड़ती थी | लोग बोलते कि लटदार तो हैं न, अकेले ही एक जोड़ी बैल का काम करेंगे |

आज होली की रात थी | लटदार बेखबर अपने झोंपड़े में सोए हुए थे | कुछ नए टेन के रंगरूट अपनी शरारतों से कभी बाज नहीं आते | उनका यह झोंपड़ा भी होलिका को भेंट चढ़ गया | तड़के उठने पर उनके सर की छत गायब थी | उन्हें समझ आ गया कि अब उनके चलने का समय आ गया है | बोरे-नुमा एक मिर्जई पहने और हाथ में एक चिमटा लिए सीता-राम बोलते किस दिशा में चल देंगे, लटदार को स्वयं कुछ नहीं पता था |

लटदार हमेशा से ऐसे नहीं थे | प्रत्येक इंसान की तरह उन्हें भी उनकी माँ ने ही जनम दिया था | हिंदू जाति-व्यवस्था में उन्होंने एक धोबी कुल में जन्म लिया था | आठ साल की उम्र में स्कूल का मुहँ देखने का अवसर भी मिला | यहाँ भी उनका कुल उनसे पहले ही स्कूल में दाखिला ले चुका था | पंडित जी की छड़ी और तानों ने उनका यह रास्ता हमेशा के लिए बंद कर दिया | “सारे गधे स्वर्ग चले जाएंगे तो लादी कौन धोएगा?” अक्सर यह ताना सुनने को मिलता था | सुबह-शाम अखाड़े में वर्जिश और बाकी समय में लोगों के कपड़ों को उनके घरों से ला कर, गधे पर लाद कर धोबी घाट ले जाना, रेह लगा कर कपड़ों को तालाब के पानी से साफ़ करना, सुखाना और फिर घर पर लाना उनकी जीवनचर्या का अभिन्न अंग बन गया | स्कूल आते-जाते बच्चे उनके स्कूल छोड़ने के बाद भी अपने तानों से आहात करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते | धोबी घाट के पास पहुँचते ही बच्चे गधे की आवाज में ‘छी-पो-छी-पो’ करने लगते | लटदार तब लटदार नहीं थे | शायद उनका कोई नाम ही नहीं था | स्कूल में दाखिला हुआ होता तो संभव था उन्हें भी कोई ‘नट्टू, तूफानी, पिस्सू’ आदि नाम मिल जाता | सुन्दर, सभ्य, सुशील नामों पर तो केवल अभिजात्य वर्ग के लोगों का ही एकाधिकार था | अध्यापक लोग इन लोगों के माँ-बापू से पूछते भी नहीं थे कि उनके बच्चे का क्या नाम रखना है | जिस जजमान के घर का ज्यादा कपड़ा धोते उस दिन उसी के यहाँ भोजन का इंतजाम हो जाता | अच्छी खुराक और अच्छी दमकशी के साथ बकरी के दूध ने कमाल दिखाया और लटदार का हृष्ट-पुष्ट शरीर शीघ्र ही एक पहलवान युवक के रूप में परिचित हो गया | आस-पास के दंगलों में वे कुश्ती लड़ने लगे लेकिन कुदरत को यह रास नहीं आया | किसी महात्मा के फेर में पड़ कर एक रात घर-बार छोड़ कर निकल पड़े |  

लगभग तीन दशक के बाद अचानक उनका पुनः प्रादुर्भाव हुआ | यह समय लटदार के जीवन –काल का अंध-युग कहा जा सकता है | लटदार इसके विषय में किसी से कुछ बात भी नहीं करते थे | लौट कर आने के बाद वे जटाधारी बन गए थे और भजन आदि में अपना मन लगाते थे | जो भी उनकी पैत्रिक संपत्ति थी उसे बेच-बाच कर देवी के एक पुराने स्थान का जीर्णोद्धार करवाया और कुछ नीम और पीपल के वृक्ष भी लगाए | इस मंदिर का आहाता भी घेरवाया और वहां पर पूजा-पाठ भी करने लगे | कुछ दिनों तक यह सब विधिवत चलता रहा लेकिन फिर उनकी जाति उनके सम्मुख आ खड़ी हुई | पेट की अग्नि ने उन्हें मजदूर बना दिया और वे लटदार साधू के रूप में स्थापित हो गए | गर्मी की प्रचंड धूप हो या जाड़े की तीव्र ठंढ, उनका शरीर सब कुछ सह लेता था | सर का बाल लट में बदल गया और दाढ़ी अपने आप झड़ गई | समय के थपेड़े ने उनकी देह को बज्र सम बना दिया | समय के साथ यह बज्र भी शिथिल होने लगा | धूल-धक्कड़ से आँखों में कीचड़ भरने लगा | बड़ी-बड़ी डरावनी आँखे अब मुंदने लगी थीं | जब कभी-कभार कोई आँख में लगाने के लिए मरहम दे देता था, सीता-राम बोलकर उसका धन्यवाद जरूर करते थे |   

न जाने कितने लटदार इस धरती पर आये और चले गए | लोगों को कुछ फर्क नहीं पड़ा | कुछ लोग सहानुभूति जताते हैं तो अधिकाँश लोग मज़ाक उड़ाते हैं | थोड़े समय बाद तो कोई उनका नाम भी लेने वाला नहीं रहता | मटरू व्यथित मन से उस देवी स्थान पर पहुँच गए जहाँ कभी लटदार बैठा करते थे | हवा की हल्की बयार भी पीपल के पत्तों को हिलने के लिए मजबूर कर देती है | अचानक पत्तों की सरसराहट मटरू के कानों में डूबने लगी | ऐसा आभास होने लगा जैसे यह सरसराहट कुछ कह रही को | बस यही जीवन है | हो सके तो लोगों के जीवन में, लेशमात्र ही सही, शीतलता घोल दो | मटरू की तन्द्रा भंग हुई | मस्ती में हिलती-डुलती पीपल की लटकती हुई एक टहनी को पकड़ा, पत्तों को बड़ी ही कोमलता से सहलाया और छोड़ दिया | टहनी फिर से हिलने लगी | मटरू नम आँखों से टहनी को देखते हुए विदा हो गए |
 

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