Saturday, 16 March 2019

टिंकू का मुंडन


टिंकू का मुंडन
-डॉ राय साहब पाण्डेय 
ओझा की कृपा कहें या चिकित्सक की दवा का परिणाम, टिंकू की सेहत सुधर गई है | टिंकू अब बड़ा हो रहा है |  छह साल का कब का हो चुका | माँ रामकली को टिंकू के स्कूल में दाखिले की चिंता सताने लगी है | पर इसके पहले टिंकू का बाल उतरवाना होगा और वह भी माता के धाम में |

नवरात्र से अच्छा मुहूरत और क्या हो सकता है? मटरू को मुहूरत से पहले ही घर जाना होगा | सारा प्रोग्राम पहले से ही तय होने के कारण मटरू ने टिकट का इंतजाम कर रखा था | अब ऐसे धार्मिक अनुष्ठानों में पैसा तो खर्च होता ही है, मटरू भी काफी पहले से पैसे इकठ्ठा करने में लगे हुए थे | मटरू के दोस्त राम अगर्दी भी साथ जाने के लिए तैयार हो गए | जो कुछ नोट कमाए थे उसे कपड़े के एक पट्टे में सिल कर कमर में बांध लिया | नोट तो सुरक्षित हो गए, अब पेट के लिए इंतजाम बाकी था | दो दिन की यात्रा के लिए केवल सत्तू से काम न चलने वाला था | चने, चबैने के साथ गुड और नमकीन भी रख लिया | रास्ते में पानी के लिए बार-बार स्टेशन पर उतरने की झंझट कौन पाले, इसलिए पंद्रह लीटर वाला एक कनस्तर भी साफ़ कर सुरक्षित रख लिया | पानी तो घर से निकलने के पहले ही भरा जाएगा |

बाहर गाँव की एक्सप्रेस और मेल गाड़ियाँ शिवसागर से नहीं छूटती थीं | इन गाड़ियों को पकड़ने के लिए तो शिमलगुड़ी जंक्शन ही जाना पड़ता था | तिनसुकिया मेल रात के नौ बजे के करीब शिमलुगुड़ी पहुँचती थी | शिवसागर से शिमलुगुड़ी लगभग पंद्रह किलोमीटर पड़ता है | राम अगर्दी का घर स्टेशन से नजदीक था | मटरू दोपहर में ही राम अगर्दी के घर आ गए और वही से पसिंजर पकड़ कर शिवसागर जाना तय हुआ | स्टेशन पर मटरू के कीर्तन वाले कुछ और दोस्त उन्हें छोड़ने और विदाई देने भी आ गए | कुछ तो पोस्ट-कार्ड और अंतर्देशी भी मटरू को अपने घर के नजदीक डाक में छोड़ने के लिए दे रहे थे जिससे उनकी चिट्ठी उनके घर वालों तक जल्दी पहुँच जाय | छुक-छुक करती पसिंजर गाड़ी शिवसागर के निर्जन स्टेशन पर आ गई | जल्दी-जल्दी में सबने एक-दूसरे से दुआ-सलाम किया और ट्रेन प्रस्थान कर गई |

आधे-पौने घंटे में ही ट्रेन शिवसागर स्टेशन पहुँच गई | सामान सुरक्षित उतार कर मटरू और  राम अगर्दी एक बेंच पर आ कर बैठ गए | तिनसुकिया मेल आने में अभी काफी टाइम था | राम अगर्दी प्लेटफार्म पर चहल कदमी कर रहे थे तभी प्लेटफार्म पर आवाज आई, “यात्री गण कृपया ध्यान दें | आज तिनसुकिया मेल में आरक्षित डिब्बे नहीं लगे हैं | यात्री गण यदि चाहें तो टिकट वापस कर अपना पैसा प्राप्त का सकते हैं |” अगर्दी हाँफते हुए मटरू के पास आए | मटरू थोड़ी देर चुप रहे, “फिर बोले, देखा अगर्दी मैं कहता था न रिजर्वेशन मत कराओ | हमें चालू डिब्बे में ही सहता है | पहली बार तो रिजर्वेशन कराया लेकिन यह भी नसीब में नहीं लिखा था |” राम अगर्दी बोले कोई बात नहीं अब आगे की सोचो | सोचना क्या है, चलना तो है ही, जैसे तैसे घुसेंगे | कम से कम न्यू बोंगाईगाँव  से तो रिजर्वेशन मिल जाएगा | एक दूसरे से बात कर के दोनों ने अपने आप को ढाढस बंधाया | ट्रेन आने में अभी भी काफी वक़्त था | सामान उठाकर एक चाय की दूकान पर पहुँच गए और चाय की चुस्की लेने लगे |

समय को तो बीतना ही था सो बीत गया | ट्रेन स्टेशन पर आ कर खड़ी हो गई लेकिन सारे चालू डिब्बे प्लेटफार्म से दूर अँधेरे में थे | ट्रेन के दरवाजे से घुसना नामुमकिन लग रहा था | मटरू खिड़की से अन्दर घुसे, अगर्दी ने किसी तरह सामान अंदर फेंका और खुद खिड़की में फंस गए | अन्दर से मटरू और बाहर से पब्लिक की जोर आजमाइस के बाद राम अगर्दी धड़ाम से गाड़ी के फर्श पर गिरे | भगवान का शुक्र कहें या अच्छी किस्मत का खेल, चोट नहीं आई | पहले से सीट हथियाए बैठे लोगों से चिरौरी-विनती काम आई और पीठ सीधी करने की जगह मिल गयी | एक किला फतह हुआ, दोनों ने राहत की सांस ली | एक दूसरे की तरफ देखा और मुस्कुराए | पल भर में टेंशन गायब | इस तरह से गाड़ी में चढ़ना इन दोनों के लिए कोई नई बात तो थी नहीं, हाँ रिजर्वेशन वाले डिब्बे में बैठते तो जरूर नई बात होती |
खाली पेट झपकी लेते हुए तथा एक दूसरे पर गिरते पड़ते रात बीत गई | रंगिया होते हुए ट्रेन न्यू बोंगाईगाँव स्टेशन पर धमकी | बड़ी लाइन वाली गाड़ी के खुलने में अभी समय था |  दोनों दोस्तों ने अपना सामान उठाया और पूछते-पाछते वेटिंग हॉल में दाखिल हो गए |  यहाँ भी मुंह धोने से लेकर नित्य क्रिया के प्रत्येक स्तर पर लाइन |  खैर, मशक़्क़त तो करनी पड़ी लेकिन अंततः नित्य क्रिया से फ़ारिग हो ही गए | चाय के बाद सत्तू लपेटा और फिर अगली यात्रा के लिए तैयार | 

राम अगर्दी और मटरू ने पहली बार रिज़र्व डिब्बे में कदम रखा | डिब्बा तो साफ़-सुथरा था लेकिन चालू डिब्बे वाले कोलाहल की कमी थी | यहाँ की शांती अच्छी नहीं लग रही थी | अगले दिन सुबह दस बजे ट्रेन पटना स्टेशन में दाखिल हो गई | इधर का इलाका मटरू के लिए जाना पहचाना था, इसलिए मटरू काफी आश्वस्त थे | केसरिया जाने के लिए पसिंजर गाड़ी आने में वक़्त था | दोनों ने निश्चय किया कि आगे का सफ़र अब बस से ही निपटाया जाय | तकरीबन सौ किलोमीटर की बस यात्रा के लिए दोनों रिक्शा चालक अब रिक्शा पर सवार थे | सौभाग्य से मीठापुर बस स्टैंड पर बस केसरिया जाने के लिए तैयार खड़ी थी | कुछ भी हो, बस से घर जाने का उत्साह, बस में अपने लोगों के बीच बैठ कर बात करने का अपना ही उमंग होता है | बात-चीत करते और बस की खिड़की से गाँव-जेवार का नज़ारा देखते हुए अपने चिर-परिचित बस स्टैंड पर पहुँचने का उतावला पन मटरू की आँखों में साफ़ झलक रहा था |

टिंकू लट्टू नचा रहा था | रमेसर ने आवाज लगाईं, ”टिंकुआ तुम्हारे पापा आने वाले हैं, हमेशा बस से ही आते हैं चलेगा लेने?” टिंकू ने लट्टू एक तरफ फेंका, मामा के साथ बस स्टेशन के लिए तैयार | रामकली और मटरू की माँ घर पर बेटे तथा मेहमान के स्वागत के लिए व्यस्त हो गए | पहली बार दूर-दराज इलाके से मटरू का कोई दोस्त घर आ रहा है, कुछ ख़ास व्यंजन तो होना ही चाहिए | टिंकू और रमेसर बस अड्डे पर दाखिल हो गए, लेकिन बस का क्या? इसका कोई समय थोड़े न होता है | अक्सर लेट ही रहती है | पूछने से कोई फायदा तो होने से रहा | फिर भी डरते-डरते पूछ-ताछ वाली खिड़की पर पहुँच ही गए रमेसर | “अभी कोई खबर नही है, आने की खबर होने पर अनाउंस कर दिया जाएगा |” अपना सा मुँह लेकर लौट आये रमेसर | टिंकू के साथ बैठ कर इंतजार करने के अलावा और क्या कर सकते थे? “अरे रमेसर यहीं बैठे रहोगे क्या? बस आये तो दस मिनट हो गए, मुझे तो कंडक्टर से बाकी के पैसे लेने में टाइम लग गया | ये कंडक्टर लोग भी न जान-बूझ कर पैसा रोक कर रखते हैं ताकि पसिंजर भूल जाय और बाकी का पैसा उनकी जेब मा”, मटरू ने रमेसर को देख कर कहा | हड़बड़ाहट में रमेसर को समझ ही नहीं आया कि क्या कहें पर राम अगर्दी सब समझ गए | पैलगी-अशीष के बाद मटरू बेटे की तरफ झुके औए गोद में उठाया | दुलार से पूछा, “अब कैसे हो बेटवा और बेटे के सर पर लम्बे लहराते बाल निहारने लगे |”

थोड़ी देर में सभी लोग घर पर थे | मटरू की माँ दरवाजे पर ही मिल गई | पाँव छू कर मटरू और राम अगर्दी ने माँ से आशीर्वाद लिया | राम कली दरवाजे के पीछे से पति को देख रही थी, पर अभी उसका वक्त नहीं था | जल-जलपान के बाद स्नान-ध्यान और फिर भोजन-छाजन | शाम को बैठ कर मुंडन के बारे में सलाह-मशविरा करने लगे | दो दिन बाद मुंडन कराने का फैसला लिया गया |

टिंकू आज बेहद खुश था | दोस्तों के साथ खेलकूद के बाद वह अपने दो साथियों के साथ बगल के पम्पिंग सेट वाले नलकूप पर नहाने गया | आज उसके हाथ में खुशबू वाला नया ‘जय’ साबुन था | साबुन देखते ही दोनों दोस्त हाथ में ले कर जोर-जोर से सूंघने लगे | शुक्र है यह साबुन ही था वरना पूरी बट्टी ही खा जाते | श्यामू ने सकुचाते हुए पूछा, “टिंकू, मुझे भी नहाने के लिए साबुन देगा |” “हाँ, क्यों नहीं, जरूर दूँगा पर बस एक बार”, टिंकू ने फ़ौरन हामी भर दी | तीनो दोस्त नलकूप की टंकी पर नहाने लगे | सबसे पहले टिंकू ने ‘जय’ का उदघाटन किया | और डुबकी लगाने लगा | फिर श्यामू और सुन्दर की बारी आई | साबुन से नहाने का अद्भुत आनन्द पहली बार मिल रहा था | टिंकू को बार-बार साबुन लगाते देख श्यामू और सुन्दर भी अपने लोभ पर काबू नहीं कर पा रहे थे | दोनों ने एक जुगत लगाई | वे बार-बार टिंकू को पानी के अंदर देर तक डुबकी लगाने के लिए उकसाने लगे और जब तक वह पानी के अन्दर सांस रोक कर बैठा रहता उसके दोस्त जल्दी-जल्दी साबुन लगा लेते और फिर पानी के अन्दर बैठ जाते | यह सिलसिला कई बार चलने के बाद आखिर में टिंकू दोनों की चाल समझ गया | उसने कोई प्रतिवाद नहीं किया और मन ही मन दोनों की धूर्तता को कोसने लगा | घर लौटते समय वह यही सोचता रहा कि उसके दोस्त अगर उससे पूछ कर साबुन लगाते तो वह मना थोड़े ही करता | उसके लिए जीवन में चालाकी का यह पहला सबक था |

कल सवेरे मुंडन के लिए माता के धाम में जाना था | टिंकू की माँ और दादी ने सारा इंतजाम कर रखा था | पड़ोस की दो छोटी लड़कियों को भी साथ ले लिया गया | पुस्तैनी नाई तो इस नवरात्रि में धाम में ही डटा रहता था | माता के धाम में पंडों और मालियों का एकाधिकार था | मंदिर के आहाते में कई कतारों में क्रम से मिटटी के चूल्हे बने हुए थे, जो मालियों के रख-रखाव में थे | प्रत्येक चूल्हे का कुछ न कुछ किराया देना होता था | इसके लिए कोई निश्चित रकम तय नहीं थी | असामी देख कर रकम का मोल-भाव हो जाता था | मोटे असामी उम्मीद से ज्यादा ही दे दिया करते थे | टिंकू को पहले माता का दर्शन करवाया गया | माँ रामकली ने बड़े प्यार से बेटे के लम्बे लहराते बालों में अपना हाथ फेरा और बेटे को गले से लगाया | अब चुन्नन की बारी आई | उस्तरा तेज करने के बाद धीरे से मुस्कुराते हुए टिंकू की दादी से बोले, “काकी कुछ नेग-सगुन तो निकालो, पोते का मुंडन है | छूछ में उस्तरा आज नाहीं चलेगा |” दादी ने टिंकू की माँ की तरफ देखा और चुन्नन को कोसने लगी, “चल हट निगोड़ा कहीं का, कब तूने छूछ में कोई भी शुभ काम किया है रे? बस जो मन में आएगा, बोल देगा |” रामकली सकुचाते हुए अपने बटुए से दस-दस रुपये के दो नोट निकाले और चुन्नन के पहले से ही फैले हुए धारी-दार लाल अंगौछे में डाल दिए | कहते हैं नाईयों के पास छत्तीस बुद्धी होती है | चुन्नन अरसे से यही काम करता आ रहा था | जजमान की रग-रग से वाकिब था | “अरे काकी आपौ तो कुछ टेट हल्का करौ | ई तो भाभी डाली हैं | टिंकू की दादी भी इन्हीं रशमो-रिवाज में पली-बढ़ी थीं | इस बार उन्होंने कोई हँसी-मजाक नहीं किया | धोती के पल्लू का टोंक खोला और एक-एक रुपये के दो नोट टिंकू के सर के ऊपर घुमा कर चुन्नन के मुँह बाए अंगौछे में डाल दिया | मटरू और राम अगर्दी वहीँ जमीन पर बैठ कर यह सब कलाप देख रहे थे | चुन्नन जानता था कि मटरू तो इसमें कुछ डालने वाला नहीं है, उसने अपना अंगौछा फ़ौरन समेट लिया | चुन्नन की उंगलियाँ टिंकू के सर पर पानी के साथ फुर्ती से फिरने लगीं | बाल गीला और मुलायम होने के बाद चुन्नन ने मुंडन शुरू कर दिया | टिंकू की कोई बुआ नहीं थी इसलिए बाल रोपने का काम साथ आई दोनों लड़कियों ने कर दिया | टिंकू की माँ ने उन्हें भी नेग दिया | चुन्नन ने टिंकू के सर पर सरसों का तेल लगाया | बाल उतरवाने के बाद टिंकू सबका पैर छू कर आशीर्वाद लिया | पूड़ी-हलवा माताजी को चढ़ाने के बाद सबने प्रसाद ग्रहण किया |

दिन ढलने से पहले ही सब लोग घर आ गए | लेकिन मुंडन अभी समाप्त नहीं हुआ था | टिंकू की माँ सबसे बचते-बचाते पूड़ी-हलवा एक प्लेट में सजाकर घर से निकल गई | मटरू को शक हुआ | जब रामकली को लौटने में देर होने लगी तो तो मटरू का शक यकीन में बदलने लगा | रामकली ओझा के घर पहुँच गई | ओझाइन दरवाजे पर ही मिल गईं | रामकली हलवा-पूड़ी ओझाइन के हवाले कर ही रही थी कि उसी समय ओझा महोदय का पदार्पण हो गया | ओझा को हलवा पूड़ी में कोई विशेष रुचि नहीं थी | मांस-मच्छी खाने वाले के लिए इस सबका कोई खास मायने नहीं था | उसके मन में कुछ और चल रहा था | सामने बंधे हुए कई जोड़े बकरे आपस में ही जोर आजमा रहे थे | नजदीक जा कर ओझा ने रामकली को एक मुड़ी हुई सींग वाले बकरे की तरफ ऊँगली दिखाते हुए कहा, “बिटिया, देखो न कितना बड़ा हो गया है? इसको संभालना मुश्किल हो रहा है | खुराक भी बढ़ गई है | अगर तुमने कुछ नहीं किया तो इसका प्रसाद ही बनाना पड़ेगा |” रामकली सोचने लगी, “अभी तो यह बकरा दो महीने पहले मिमिया रहा था, इतने जल्दी कैसे इतना बड़ा हो गया?” ओझा ताड़ गया | झट से बिना रुके एक सांस में बोला, “क्या सोच रही हो बिटिया? यही न कि इतने जल्दी कैसे इतना बड़ा हो गया? इसका बड़ा होना ही तो टिंकू की सेहत सुधरने का प्रमाण है | अभी इसको साल भर और पालन पड़ेगा और फिर...|”

रामकली हकलाने लगी | किसी तरह हिम्मत जुटा कर बोली, “देखती हूँ काका |” और वहां से तुरंत ही निकाल गई | ओझा अपना वार चल चुका था | रामकली तमाम आशंकाओं के बीच अपने बोझिल पैरों को घर की तरफ घसीटने लगी | “बिना बताए चली आई, अब तक तो उन्हें पता भी चल गया होगा, क्या कहूँगी?”, सोचते-सोचते रामकली घर पहुँच गई | सौभाग्य से मटरू उस समय राम अगर्दी के साथ पड़ोस के लोगों से मिलने गए हुए थे | रामकली ने अपनी सास को सारा वाकया बता दिया | “तूँ मत घबड़ा, मैं मटरू और ओझा दोनों को संभाल लूंगी”, सास ने बहू रानी को आश्वस्त किया | मटरू और राम अगर्दी थोड़ी देर बाद आ गए | मटरू कुछ पूछते इसके पहले माँ ने बताया कि उसने ही माता के धाम का प्रसाद ओझा के परिवार के लिए भिजवाया था | मटरू इसके बाद क्या कहते | वे जानते थे कि अम्मा अगर एक बार फट पड़ी तो लेने के देने पड़ सकते हैं | शांत रहने में ही भलाई समझी | मेहमान के सामने बखेड़ा खड़ा करना उचित नहीं था |

भोजन तैयार था | मटरू और राम अगर्दी के भोजन कर चुकने के थोड़ी देर बाद मटरू की अम्मा दोनों के पास आईं और इसके पहले वह कुछ बोलती राम अगर्दी बोले, “अम्मा परसों वियय दशमी है | मैं चाह रहा था कि कल गाँव चला जाऊं |” अम्मा कुछ मिनट के लिए चुप हो गईं फिर बोली, “बेटवा हम तो चाहत रहे कि इहाँ का मेला देख के जाओ लेकिन तुम्हरा भी घर-पलवार है | तुम्हरी भी अम्मा है, जोरू है, बाल-बच्चे हैं, हम कैसे रोक सकत हई |” राम अगर्दी अम्मा की सूझ-बूझ के कायल हो गए | थोड़ी देर सब शांत रहे | फिर मटरू ने पूछा, “अम्मा तुम कुछ कहै चाहत रही है, बताओं न क्या बात है?” अम्मा मटरू के सर पर हात फेरते हुए बोली, “बेटवा, तुम तकदीर वाला है जो तुमको रामकली जैसी जोरू मिली है |” अम्मा कुछ आगे बोलती कि मटरू बोल पड़े, “यही कहे खातिन इतना प्यार दिखा रही है |” “नहीं रे, रामकली ओझा के यहाँ परसाद ले के गई थी, पर वो निगोड़ा तो कुछ और कहानी बना रहा है | बहू जब से ओझा के घर से आई है बहुत परेशान लग रही है |” मटरू ने अम्मा को ढाढस बंधाया और बोला- “अम्मा अब जा कर सो जाओ, कल ओझा से निपट लेंगे |

मटरू और राम अगर्दी ने आपस में आगे इस विषय पर कोई विमर्श नहीं किया और सो गए | दोनों तड़के उठ गए | स्नान-ध्यान से फ़ारिग होने के बाद दही-चिवड़ा का नाश्ता किया और बस स्टेशन की तरफ चल पड़े | लेकिन राम अगर्दी के मन में कुछ और चल रहा था | वे बस स्टेशन के विपरीत वाले रास्ते की तरफ मुड़े और बोले, “थोड़ा ओझा जी से आशीर्वाद ले लेते हैं |” मटरू राम अगर्दी के स्वभाव से परिचित थे | उन्हें आशंका हुई, आज कुछ तो करेगा यह | न चाहते हुए भी मटरू के कदम उसी राह पर चल पड़े | थोड़ी देर में ही दोनों ओझा के दरवाजे पर थे | ओझा उस समय मुँह में दातुन डाल कर चबा रहा था | मटरू ने बड़ी अदब से ओझा जी से राम-राम कही | ओझा ने भी उसी खुशमिजाजी से मटरू का अभिवादन स्वीकार किया | ओझा ने राम अगर्दी का भी परिचय प्राप्त किया | राम अगर्दी का सामान मटरू के पास था | राम अगर्दी लपक कर आगे बढ़े, मोटी और मुड़ी सींग वाले बदबूदार बकरे का पगहा खूँट सहित उखाड़ लिया | एक हाँथ में बकरे का पगहा और दूसरे में खूँटा ले कर चलते बने और मटरू को भी चलने के लिए आवाज लगाई | “हाँ-हाँ, यह क्या कर रहो हो”, मटरू और ओझा दोनों ने एक साथ जोर से पुकारा | जब तक दोनों कुछ समझते, राम अगर्दी ओझा के घर से काफी दूर जा चुके थे |

राम अगर्दी वहीँ रुक गए | दरअसल उनका मकसद ओझा के घर पर कोई बखेड़ा खड़ा करना नहीं था | वह तो उसे सबक सिखाना चाहते थे | ओझा अपने मुँह में आई नीम की कड़वी पीक निगला और दातून फेंक राम अगर्दी के पास पहुँच गया | इसके पहले कि वह कुछ बोलता राम अगर्दी बोल पड़े, “मटरू भैया, हमारे बैग में एक लम्बा सा चाकू है उसे निकालिए | इस बकरे का परसाद बनाना है और इस ओझा के मुँह में ठूस-ठूस कर इसका परलोक सुधारना है | क्यों? यही कहा था न तुमने भाभी से? अभी तुम्हें मजा चखाता हूँ | कामचोर कहीं का | भोले-भाले लोगों को फँसाते हो, इतनी बेशर्मी कहाँ से सीखी है? कहो तो चलता हूँ तुम्हारी जोरू के पास और उसे तुम्हारी सब करतूत बताता हूँ | जितने पैसे तुमने लिए हैं शराफत से वापस कर देना वरना पुलिस भले छोड़ दे, मैं नहीं छोडूंगा |” दूसरों को डराने वाला ओझा आज इस कदर डर जाएगा, उसने कभी नहीं सोचा होगा | ओझा ने मटरू के आगे हाँथ जोड़ लिए | राम अगर्दी भैया, अब जाने दो | इसको अपने किये की सजा मिल गयी है | खूँटा और पगहा दोनों एक साथ फेंकते हुए राम अगर्दी ने ओझा के सामने उसके लटके मुँह पर राम-राम कही और मटरू के साथ चल दिया | बस स्टेशन पर पहुँच कर दोनों ने एक दूसरे को देखा और एक जोरदार ठहाका लगाया | ओझा के पाँव में मानो चकरी सिल गई हो | आतंकित और भारी मन से एक हाँथ में खूँटा और दूसरे में बकरे का पगहा पकड़ अपने घर आ गया |

आज विजय दशमी है | टिंकू उत्साह में है | क्यों न हो अपने पापा के साथ मेला जो देखने जाना है | कुछ भी हो आज के दिन पूड़ी, तरकारी, रसादार भांजी और सेवई या खीर तो मिलेगा ही | त्यौहार हो या कोई अन्य प्रयोजन, अधिकतर समय खाने-पीने और स्वागत-सत्कार में ही निकलता है | महिलाओं का तो जनम ही इसी काम के लिए हुआ है | टिंकू की माँ और दादी भले ही विजय दशमी के मेले में न जाँय पर त्यौहार की सारी तैयारी इनकी ही जिम्मेदारी है | आज भी शुभ दिन है ऐसा मान कर दादी ने मटरू को पंडित जी के पास भेंज दिया | आखिरकार टिंकू कब तक टिंकू रहेगा | उसका भी अपना एक नाम होना चाहिए | घर के नाम के अतिरिक्त स्कूल का भी नाम चाहिए | टिंकू बिना नाम लिखाए ही कभी-कभार स्कूल चला जाता था | थोड़ा बहुत अक्षर भी पहचान लेता था | स्कूल में उसका नाम लिखाना अब जरूरी हो गया था | मटरू भले ही ख़ास पढ़ा-लिखा नहीं था लेकिन ज्ञान का महत्तव वह भली-भांति समझता था |

आज सचमुच टिंकू का ही दिन था | मटरू टिंकू के नामकरण के लिए पंडित जी के पास गए थे और इस बीच ओझा मटरू के घर आ धमका | मटरू की दादी को आवाज लगाई:
ओझा: अरे, मटरू की अम्मा कहाँ हो?
दादी: कौन है? टिंकू जरा देखो तो |
टिंकू: ओझा बब्बा हैं, दादी |
ओझा का नाम सुनकर दादी मन ही मन सहम गई | रामकली भी सकते में आ गई | पता नहीं यह निगोड़ा सवेरे-सवेरे क्यों आ धमका | मटरू भी घर पर नहीं है | गीला हाथ अपने साड़ी में पोछते हुए दादी बाहर आ गई |
दादी: का हुआ सोखा? इधर का रास्ता कैसे भुला गए सवेरे-सवेरे |
ओझा: बस ऐसे ही मन हुआ आप लोगन से मिल लेते हैं, सो आ गए | त्यौहार का दिन है आप तो बड़ी हैं इसलिए आप का आशीर्वाद लेने आ गया |
दादी: (निगोड़ा देखो कैसी बात बना रहा है, मन ही मन कोसते हुए) सुखी रहो, नीके रहो भइया | बताओ झाड़-फूक कैसा चल रहल बा?
ओझा: (बात बदलते हुए) मटरू नहीं दिखाई दे रहे हैं?
दादी: यहीं अगल-बगल ही गए है, कुछ काम था क्या? कहो तो बुलवा दूँ?
ओझा “चलो अच्छा हुआ नहीं है” सोचते हुए टिंकू की तरफ मुड़ा और बोला- टिंकू बेटा आज मेला देखने जाओगे न, ओझा बब्बा की तरफ से यह रख लो | ऐसा कहते हुए कुछ रुपये उसने टिंकू की जेब में रख दिए और अपने घर की तरफ मुड़ गया | टिंकू, दादी और रामकली तीनों उसके इस बदले रुख को देख स्तब्ध थे | आज सूरज पश्चिम में कैसे उग गया, दादी ने आश्चर्य से कहा |  

मटरू खुश थे | सारा काम मन मुताबिक़ चल रहा है | घर पहुँचते ही मटरू ने टिंकू के नए नाम से पुकारा, “सुरिंदर कुमार, बाहर तो आओ |” टिंकू तो नहीं आया लेकिन मटरू की अम्मा और रामकली दोनों एक साथ बाहर आ गए | रामकली कुछ बोलती, अम्मा बोल पड़ी | भइया मटरू आज तो गदोरी(हथेली) पर दूब जम गई | मटरू अम्मा को आँख फाड़ कर देखने लगे | उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि वे मटरू का नया नाम ले कर आये हैं और उनसे कोई कुछ पूछ ही नहीं रहा है |  अम्मा ने एक सांस में ओझा के घर पर आने की खबर बताई | मटरू हँसे बिना नहीं रह सके और मन ही मन राम अगर्दी का शुक्रिया भी कहा | अब रामकली और अम्मा मुँह बाए खड़ी थीं | मटरू ने टिंकू को उसके नए नाम से एक बार फिर पुकारा | अम्मा और रामकली ने भी दुहराया “सुरिंदर कुमार” |

पिता और पुत्र मेले की भीड़ में शामिल थे | मटरू के लिए तो अपने जेवार का यह मेला एक अरसे बाद आया है | रास्ते में जाते हुए मटरू अपने बचपन की यादें ताज़ी कर रहे थे | तब से अब कितना कुछ बदल गया था | मेले में खूब घूमे | पुराने दोस्तों से मिले | दूसरों की सुनी, अपनी सुनाई | मिठाई, रेवड़ी और ककनी खरीदी | बेटे और उसके दोस्तों ने जो भी खाया, दिल खोल कर खिलाया | मेले में घूमते हुए एक हस्तेखा विशेषज्ञ से टकरा गए | अभी ओझा की जाल से छूटे ही थे कि हाथ देखने वाले ने अपने जाल में फंसा लिया | कुछ अच्छी-अच्छी बातें बताई और मोटा-मोटी भविष्य उज्जवल कह कर मटरू की जिज्ञासा शांत की |

सूरज डूबने वाला था | हर साल की तरह इस साल भी रावण जलने वाला है | बुराई पर अच्छाई की जीत होने वाली थी | सूरज डूबा, रावण मरा, दुनियाँ में अच्छाई और सद्गुणों का प्रवेश हो गया | इस तरह रावण के मरने और जीने का एक और क्रम समाप्त हुआ | पहले राम ने रावण का वध किया, शायद इसलिए बुराई ख़त्म हो गयी हो पर आज तो नेता लोग तीर चलाते हैं | क्या कोई नेता उल्टा तीर चलाता है जो खुद उसे ही वेध सके? बुराई भले ही न ख़त्म हुई हो पर थोड़े समय के लिए ही सही मटरू के मन में श्रद्धा का समावेश अवश्य हो गया | घर पहुँच कर सुरिंदर ने सबसे पहले दादी को अपने पिताजी के हाथ दिखाने की बात बताई | अब हंसने की बारी दादी की थी |

अम्मा की निश्छल हँसी सुन मटरू भी हँसने लगे | रामकली भी अपनी हँसी नहीं रोक पा रही थी | आखिर कब तक हँसते | फिर सभी शांत हो गए | पर शांत भी कब तक रहते? अंत में अम्मा बोलीं, “शिवचरन तुम्हारी गदोरी में झौवा भर तो लकीरें हैं, लेकिन टेट खाली ही रहती है | उस रेखा वाले से नहीं पूछा ऐसा काहे है? मैं बताती हूँ | एक ठेठ पुरानी कहावत है: “सरग पाने के लिए मरना होता है” | बेटा रिक्शा के आगे भी सोच | खुद तो नहीं पढ़ा-लिखा अब बेटे को आदमी बना | मटरू माँ के मुख से अपना असली नाम सुनकर बिना कुछ कहे माँ की तरफ  एक टक देखते रहे |   
  
   

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