Wednesday, 4 October 2017

जमादारिन




जमादारिन
-राय साहब पांडेय


छबिया आ गई है | ख़ुशी के माहौल में एक और ख़ुशी | आखिर छबिया नार काटने पहुँच ही गई | घर में बिना बताए ही आ गई है | मन में अब भी डर लग रहा है कि कहीं रास्ते में किसी ने देख न लिया हो क्योंकि छबिया के गाँव वालों ने मिल कर यह निर्णय लिया था कि गाँव की महिलाएं अब यह काम नहीं करेंगी और कोई भी पुरुष मरे हुए पशुओं को न ही उठाएगा और न ही उसकी खाल निकालेगा | अब ऐसे माहौल में पूरे गाँव की एकजुटता के खिलाफ इस फरमान को न मानने का डर तो होगा ही | जब छबिया की  सास जिन्दा थी तभी से वह उसके साथ कभी-कभी अपने इन जजमानों के घर जाया करती थी और घर की महिलाओं, खासकर कम उम्र की बहुओं से अच्छे से घुल-मिल गई थी | कभी हँसी-मजाक में कहती भी थी कि आपके समय पर मैं ही आऊँगी | उस समय उसे क्या पता था कि यह जिम्मेदारी इतनी जल्दी उसके कंधे पर ही आने वाली थी | अब जिस घर में उसका आदमी हल चला रहा हो, और उसका रोज का वहाँ पर उठन-बैठन हो तो  भला वह उस घर की इस बड़ी ख़ुशी में शामिल हुए वगैर कैसे रह सकती थी? ऐसा नहीं कि उसे गाँव के फरमान की चिंता नहीं थी और वह यह भी समझती थी कि इसका दुष्परिणाम उसे भोगना पड़ सकता है | तमाम आशंकाओं के बावजूद वह अपने को रोक न सकी और अपने मालिक की बहू के प्रसव के वक्त वहाँ   पहुँच ही गई |   

पिछले साल ही उसके सास की अचानक एक रात पेशाब रुक गई | आस-पड़ोस के नीम-हकीम डॉक्टरों और वैद्यों से दवा ली | सारी दवाइयाँ बेकार साबित हुईं और  वह उसी रात गुजर गई | घर की  सारी जिम्मेदारी उस पर आ पड़ी | मेहनत मजदूरी करके घर-परिवार चलाना कोई आसान बात नहीं होती | उसका पति हरखू दूर पंडितों के गाँव में एक संभ्रांत परिवार में हलवाहा था, जहाँ छबिया नार काटने पहुँची थी | जिस दिन खेत में काम होता था उस दिन उसे सेर-सवासेर अनाज मिल जाता था | घर में दो छोटे बच्चे भी थे | जब तक सास थी, उसे बच्चों के बारे में कोई चिंता नहीं होती थी | लेकिन अब उसकी सबसे बड़ी चिंता उसके ये दोनों बच्चे ही थे | मन मसोस कर वह भी खेतिहरों के खेत में काम करने को मजबूर हो गई, मानो बच्चों की सारी जिम्मेदारी उसकी अकेले की ही हो | अक्सर देखा जाता है कि खाते-पीते घरों में बड़े बुजुर्गों के न रहने पर घर का कोई अन्य पुरुष स्वतः जिम्मेदार हो जाता है, लेकिन छबिया जैसे बेहद गरीब परिवार में यह जिम्मेदारी घर की औरतों पर ही आ पड़ती है |

आम तौर पर फागुन(फाल्गुन) महीने में रबी की फसलें पक कर तैयार हो जाती हैं और उनकी लवाई (कटाई) शुरू हो जाती है | इस सीजन में श्रमिकों की माँग बढ़ जाती है | हरखू और छबिया दोनों अब खेत में काम कर रहे थे | घर में बच्चे अकेले  ही रह जाते थे इसलिए दो दिन से उन्हें भी अपने साथ ही लेकर आ जाते थे | खाने के लिए जो कलेवा और भोजन मिलता उसी में उनका भी गुजारा हो जाता था | अपने मजदूर होने के नाते पंडितजी के घर में इनका रुतबा और मजदूरों की तुलना में कहीं अधिक था | जिस दिन अधिक मजदूरों की जरूरत पड़ती थी पंडितजी को कहना नहीं पड़ता था, हरखू और छबिया उसका इंतजाम कर देते थे |

आज होली का दिन था | छबिया और उसका परिवार बेहद खुश थे | अपने पड़ोसियों को रंग लगाने के बाद वह बच्चों के लिए कुछ विशेष पकवान बना रही थी | वह और हरखू तो बिना खाए भी दोपहर के भोज का इंतजार कर सकते थे, लेकिन त्यौहार के दिन बच्चों को दोपहर तक भूखे रोक पाना नामुमकिन था | बच्चे भी गाँव के अन्य बच्चों के साथ पानी और रंग फेंक-फेंक कर खूब खुश हो रहे थे | बड़े बच्चों को अपने से छोटे बच्चों को बार-बार भिगोना कुछ ज्यादा ही मनोरंजक लगता है और छोटे थोड़ी छूट पा जाने पर  और भी ढिठाई से रंग डालने का आनंद लेते हैं | पर जैसे हो किशोरों की टोली मिल जाती है, इन छोटे बच्चों के साथ रंग खेलना कौन चाहेगा? भले ही ये बच्चे गप्प मारते बड़े बच्चों को उनके देखे बिना ही पीछे से पानी की पिचकारी छोड़ रहे हों | पर नन्हें बच्चों का उत्साह इतने जल्दी ठंढा कहाँ पड़ता है | बार-बार घर से पानी ले आते और एक-दूसरे के ऊपर डालने में उन्हें एक असीम खुशी मिलती है जिसे हम और आप तभी महसूस कर सकते हैं जब खुद बच्चे बन जांय |

ग्यारह बजते-बजते धूप काफी तेज हो गई | हरखू तो पंडितजी के घर पहले से ही आ गया था | आज उसे खेत के काम से छुट्टी थी लेकिन घर गृहस्थी में कामों की कमी नहीं होती | वैसे भी आज होली के दिन बैलों को तालाब में ले जा कर नहलाना होता था, उनकी सींगो में कालिख पोत कर और घुँघरू पहना कर उनका श्रृंगार करने में कम वक्त थोड़े ही लगता है | तालाब पर भी मवेशियों की काफी भीड़ होती है, सारे जानवर एक साथ उसमें  नहीं नहलाए जा सकते हैं | हरखू बड़े ही मनोयोग से बैलों की खिदमत में लगा था | उसे कभी भी यह अहसास नहीं होता था कि काश ये बैल उसके अपने होते! उसका तो इन बैलों से ही पारिवारिक रिश्ता बन गया था | हरखू के हाथ में बांस की एक पतली सुटकुन (केन) अवश्य होती थी लेकिन वह कभी भी बैलों के पीठ पर नहीं पड़ी | उसकी कड़क आवाज सुनते ही उसके बैल घोड़ों की तरह पाँव उठा कर मचलने लगते थे | बैलों के सानी-पानी का इंतजाम भी उसे ही करना पड़ता था | इसके लिए पंडितजी ने उसके लिए कुछ अलग मजदूरी की व्यवस्था कर रखी थी | अपने कर्तव्यनिष्ठा के कारण हरखू अब पंडितजी का विश्वासपात्र बन गया था |

तालाब से लौटते-लौटते हरखू को दो बज गए | छबिया और उसके दोनों बच्चे पहले से ही आ गए थे | इस भरी धूप में नंगे पाँव चलने की हरखू को कहाँ परवाह थी लेकिन उसके छोटे बच्चे के पाँव तो जल ही गए थे | छबिया अपने घर में होती तो ठंढे पानी से धो भी देती परंतु यहाँ क्या करे? पंडिताइन से कैसे कहे? बच्चे के बार-बार माँ के पास जा कर अपना पाँव दिखाने पर पंडिताइन समझ गईं और छबिया से बोली कि उसके पैर को थोड़ी देर पानी में डाल कर रखे |

हरखू को बैलों और अन्य पशुओं को चारा-पानी देने के बाद फुर्सत मिली | वह अपने बच्चों और छबिया के पास दरवाजे के सामने नीम की छाया में आ कर बैठ गया | तब तक घर के लगभग सारे पुरुष लोग भोजन कर चुके थे | पंडिताइन को भोजन लाते देख हरखू अपनी थाली ले आया | छबिया अपने और बच्चों के लिए खाने का बर्तन ले कर आई थी | पंडिताइन काफी नरम दिल महिला थीं | प्यार से भोजन परोसवाया और साथ में रात का खाना खा कर जाने को भी बोल गईं | छबिया के परिवार ने आज छक कर दावत उड़ाई | बच्चे बेहद खुश थे | उनके लिए तो यह पहला अनुभव था | इससे पहले शायद ही ऐसी तृप्ति मिली हो | इतनी थकावट और भर पेट भोजन के बाद निद्रा देवी को भला कौन रोक सकता था? छबिया बर्तन धुलने चली गई और आने के बाद तीनों को नींद में बेसुध देख बिना मुस्कराए नहीं रह पाई | उसका भी सोने का मन कर रहा था लेकिन यह कैसे हो सकता था एक औरत को खुले में एक संभ्रांत परिवार के दरवाजे पर? वह जैसे नींद से जग गई हो | उसने सोचा पंडिताइन क्या सोचेंगी? यह सोने के लिए आई है? उसने जा कर पंडिताइन से पूछा, “चाची, कुछ काम हो तो बता दीजिए, मैं कर देती हूँ | अब देर शाम तक यहीं रुकना है तो बैठ के क्या करूंगी?” पंडिताइन ने उसकी तरफ देखा थोड़ा मुस्कुराईं और कहा, “छबिया तुझे क्या हुआ है? मैं भी एक औरत हूँ, तुम्हारा हाल मुझे सब पता है, तुम्हें कभी आराम करने का मन नहीं करता? चल इधर ही चटाई बिछा कर सो जा | छबिया लेट तो गई पर आँख के कोने नम हो गए | थोड़ी देर करवट बदलती रही पर आँखों में नींद कहाँ | अचानक इतना सम्मान और खुशी पाकर भला कोई सोता है? पंडितजी के घर से भोजन कर के अपने घर जाते जाते रात के नौ बज गए | सूर्यास्त के थोड़ी देर बाद ही चाँद निकल आया | चाँदनी  रात में हर चीजें साफ़-साफ़ दिख रही थीं | घर पहुँचने में तक़रीबन बीस मिनट तो लगते ही थे | बच्चे खुशी से आगे-आगे मस्ती में चल रहे थे | छबिया और हरखू आपस में बात करते हुए चल रहे थे | छबिया पंडिताइन की तारीफ़ करते नहीं थक रही थी | दोनों चंद्रमा के निर्मल धवल प्रकाश में एक दूसरे को देखकर  मुस्कुरा रहे थे जैसे सालों बाद ऐसा दुर्लभ सुयोग हासिल हुआ हो | ऐसे में घर पहुँचने की किसे जल्दी होती है?

पूरा परिवार घर पहुँच गया | पर सामने घर की हालत देख कर यकीन नहीं हुआ | छबिया सिर पकड़ कर धड़ाम से जमीन पर बैठ गई | आँखों के आगे अँधेरा छा गया | घर का छप्पर पूरी तरह आग में जल कर ख़ाक हो चुका था | मिट्टी की दीवारें आग के धुएं से काली हो गई थीं | घर में जलने के लिए कुछ ख़ास तो था नहीं, पर कुछ पीतल और एल्युमीनियम के बर्तन थे | मिट्टी के कुछ हँड़िया, नौहड़, कछरी और कछरा थे, जो  दाना-पानी रखने के काम आते थे | बच्चों के कपड़े, जो उनकी दादी ने खरीदे थे, हरखू और छबिया के कपड़े सब जल कर नष्ट हो चुके थे | और लोगों के लिए शायद ये सब चीजें कुछ ख़ास मायने न रखती हों, पर छबिया के लिए तो यही उसकी जमा पूँजी थी, जिसे बनाने के लिए उसने और उसकी सास ने क्या-क्या नहीं किया था | आग तो पूरी तरह बुझ चुकी थी लेकिन कहीं-कहीं कुछ धुएं की लकीर उठती साफ़ दिख रही थी | जैसे ही छबिया और हरखू के आने की  आहट पड़ोसियों को लगी, वे सब एक बार फिर आ गए और विस्तार से आग लगने की घटना का विवरण बताने लगे | आग कब लगी, किसने पहले देखा और किसने चिल्ला कर लोगों को आवाज दी और आग को कैसे बुझाया, यह सब बातें पड़ोसी बता रहे थे | छबिया को कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा था, वह तो एकदम स्तब्ध थी | पहली बार उसे पता चला कि सुनने के लिए केवल कान ही काफी नहीं हैं | ऐसे भी यह सब सुनकर क्या होने वाला था? हरखू ने धीरे से पूछा, “आग लगने की खबर मुझे क्यों नहीं दी? आप सबको पता था हम कहाँ गए है |” पड़ोसी ने बड़ी संजीदगी से जवाब दिया, “भैया, सूखे मौसम में ईंख की पताई से बनी इस छप्पर की छत को जलने में कितनी देर लगती है | चंद मिनटों में ही सब जल कर ख़ाक हो गया | हम सब तो आग बुझाने में इस कदर व्यस्त हो गए थे कि किसी को समझ ही नहीं आया कि क्या करें | आपको खबर भेंजने ही वाले थे कि आप लोग आ गए |

छबिया शांत बैठी रही | बच्चे अवाक् थे | हरखू गुस्से में था | छबिया सोच रही थी, “लोगों के लिए यह एक मड़ई का झोंपड़ा था, लेकिन मेरे लिए तो यही मेरा ताजमहल था | यहीं मैं व्याह कर आई, शादी के जिस जोड़े में मेरी सास ने मुझे उतारा था आज वह भी जल गया | कल मैं आने वाले कल की चिंता कर रही थी, आज मुझे आज की चिंता मिल गई! मैंने किसी का क्या बिगाड़ा था जो मेरे साथ ऐसा हुआ | ईश्वर को मेरी एक दिन की खुशी भी बर्दाश्त न हो सकी | इस समाज को मेरी रोटी की कोई चिंता नहीं, लेकिन अपने फ़रमान की चिंता अधिक है | मेरा घर उजाड़ कर इन्हें क्या मिला? मेरे दो छोटे बच्चों का भी मुँह उन्हें नहीं दिखाई दिया? आखिर यह कैसा समाज है? कल होलिका दहन हुआ, आज मेरे दिल का | इस चाँदनी रात को मेरे लिए अमावास की रात में बदलने वाले कभी खुश नहीं रह सकेंगे |” अचानक छबिया की तन्द्रा भंग हुई | उसमें एक स्फूर्ति सी आ गई | बच्चों के पास गई, माँ को देखते ही बच्चे उससे लिपट गए | बच्चों को समझाया, आश्वस्त किया और उन्हें पड़ोसी के झोंपड़े में सोने के लिए भेंज दिया |

छबिया और हरखू अपने झोंपड़े के आगे बैठे रहे | थोड़ी देर के लिए कल की चिंता छोड़ कर बच्चों के भविष्य के बारे में बात करने लगे | पूरी रात पति-पत्नी का चंद्रमा की दुधिया रौशनी में नहाने का यह पहला अवसर था | मालिनी भी उनका साथ दे रही थी, बिना भूंके | ऐसे मौके पर जानवर अक्सर ज्यादा समझदार हो जाते हैं! छबिया और हरखू प्रकृति के इस अद्भुद नज़ारे का दर्शन करते रात काट रहे थे तो वहीँ सामने बैठी मालिनी अपने आश्रयदाताओं को एक टक देख रही थी, बिना अपनी दुम हिलाए | मालिनी अगर होती तो शायद यह झोंपड़ी आग के हवाले होने से बच सकती थी | उसके भूँकने को भला कौन नज़रअंदाज कर पाता | पड़ोसी के तमाम आग्रह के बावजूद हरखू उनके घर रात गुजारने  नहीं गया | छबिया ने अजीब समझदारी का परिचय देते हुए अपने पति से कहा, “कौन ऐसा है जिसे सदा सुख ही मिला हो और कौन ऐसा है जिसके भाग्य में सदा दुःख ही आया हो | हम सबका भाग्य रथ के पहिए की भांति ऊपर नीचे होता रहता है |”
आखिर रात कट ही गई | अँधेरा भी तो रात भर का ही मेहमान होता है! कब तक रहता? इंसान का वश चलता तो वह रात और दिन का भी बटवारा कर लेता | किसी के हिस्से में केवल अँधेरा ही बाँटता और ईर्ष्या के दावानल को प्रज्ज्वलित कर स्वयं के अहंकार का दंभ भरता | परंतु प्रकृति ऐसा नहीं करती, सबको मौका देती है | हरखू और छबिया समझ नहीं पा रहे थे कि कहाँ से शुरू करें | झोंपड़े की दीवार सूर्य की रौशनी में ध्यान से देखा | फिर सोचने लगे अभी इस पर नया छप्पर डाल कर काम चलाया जा सकता है | छबिया ने झाड़ू उठाया और हरखू ने फावड़ा | हँड़िया, कछरी अलग किया | संयोग से  कुछ चना और चावल सुरक्षित मिल गया | बड़े बेटे को बुलाया और उसे कुछ चावल और चना देकर भड़भूजे के पास जा कर भुनाने के लिए भेज दिया | लड़का गया पर जल्द वापस आ गया, वह भी बिना भुनाए | माँ ने जब पूछा लौट क्यों आए तो लड़के ने मायूसी से कहा, “माँ उसकी भी मड़ई वहाँ नहीं है, लोगों ने होली में डाल कर जला दिया |” माँ क्या कहती? चुपचाप बच्चे को निहारने लगी | आँख के आँसू छिपाते हुए बोली, “कोई बात नहीं, थोड़ी देर में दूसरे भड़भूजे के पास चलेंगे |” “गरीबों की रोजी-रोटी छीनने में लोगों को आखिरकार ऐसा क्या मिलता है?” सोचते हुए फिर अपने काम में लग गई |

सूरज चढ़ आया | नौ बज गए | पंडितजी को खबर लगी अभी हरखू नहीं आया | पंडितजी नाराज नहीं हुए | उनहोंने एक आदमी को साइकिल से पता करने के लिए भेंजा | जब उन्हें कल की घटना के बारे में पता चला तो अत्यंत क्षुब्ध हुए और स्वयं हरखू के घर आ गए | हरखू रुआंसा हो गया, छबिया उनके सामने नहीं आई | पंडितजी थोड़े समय तक सोचते रहे, फिर गंभीर आवाज में बोले, “हरखू, छबिया से कहो अपने बच्चों को लेकर अभी तुम चारो यहाँ से चलो और खेत में पहुँचो |” छबिया कुछ नहीं समझी, पर पंडितजी का आदेश न मानने का सवाल ही नहीं उठता था | छबिया और हरखू ने एक दूसरे को देखा और बच्चों को बुलाया, जो सामान सुरक्षित बचा था उसकी गठरी बनाई और चल दिए | मालिनी भी खुश लग रही थी | वह कभी आगे चलती तो कभी पीछे देख कर भौंकती | ऐसा लग रहा था जैसे वह गाँव वालों को चिढ़ा रही हो, रोक सकते हो तो रोक लो!

इधर पंडितजी ने सारे काम वालों को बुलाया और अपने घर के नजदीक वाले खेत में एक झोंपड़ा बनाने का हुक्म दिया | ईंट और पताई का इंतजाम कर दिया गया | जल्दी ही ईंट जोड़कर उसकी दीवार बना दी गई | शाम होते-होते दीवार पर छप्पर भी चढ़ गया | खेत का काम आज स्थगित कर दिया गया था | हरखू के नए घर में खाने से लेकर रौशनी और चूल्हे-चक्की सबका इंतजाम हो गया | दिया-बत्ती के वक्त पंडिताइन अपनी बहू के साथ आ कर छबिया का हाल-चाल पूछ गईं | इस नए घर में मालिनी सबसे खुश लग रही थी | बार-बार भौंक कर इस खुशी का इजहार कर रही थी | छबिया और हरखू अपने घर और गाँव के छूटने से दुखी लग रहे थे तो बच्चे अपने दोस्तों से बिछुड़ कर उदास थे | अपना गाँव किसे प्यारा नहीं होता? कौन इस तरह अपने लोगों से जुदा होना चाहता है? छबिया खाना बनाने में मशगूल हो गई | बच्चे मालिनी के साथ खेलने में | हरखू नई चारपाई पर बैठ कर अभी-अभी निकले चाँद को निहार रहा था और सोच रहा था कि कल के और आज के चाँद में इतना अंतर क्यों है?

पंडितजी की इस सहृदयता की चर्चा आसपास के सभी गांवों में हो रही थी | भावुक और इंसानियत में यकीन करने वाले उनके इस सुकर्म को एक नेक दिल की दरियादिली बता रहे हैं और कह रहे थे कि “श्रेष्ठ पुरुषों की संपत्ति का यही सदुपयोग है जिससे दुखी जनों का दुःख दूर हो सके” | समाज में हर तरह के व्यक्ति मिल जाते हैं | कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें किसी नेक काम में भी कुछ पेंच दिखाई देने लगता है | ज्यादातर ऐसा सोचने वाले अक्सर ईर्ष्यालु होते हैं या अज्ञानी | उन्हें यही लगता है कि उनसे हट कर कोई और कुछ नया कैसे कर सकता है? मनुष्य अपनी प्रकृति और भावना के वशीभूत हो कर ही कुछ सोचता या करता है | जो भी हो छबिया और हरखू तो बेमोल बिक गए | उनके लिए तो पंडितजी का यह कृत्य देवतुल्य ही है | भाग्य का मोड़ कब किस वक्त किसको कहाँ पहुँचा देगा, इसका इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है? सबसे बड़ा धक्का तो उन लोगों को लगा जिनकी साजिश से छबिया का घर और गाँव छूट गया | लेकिन वे बेबस थे | पंडितजी के प्रभाव के आगे वे कुछ नहीं कर सकते थे | हाँ, कुछ अनर्गल और बेतुकी अफवाहें अवश्य प्रचारित कर सकते थे | अंत में उन्हें भी नीचा ही देखना पड़ा | आखिरकार, व्यर्थ के कार्यों में हाथ डालने वालों का यही हश्र होता है |

छबिया और हरखू तो अगले दिन सुबह से ही अपने काम में लग गए लेकिन दोनों बच्चों के लिए समय काटना मुश्किल हो रहा था | मालिनी के साथ कितना खेलते? पंडितजी के गाँव के बच्चों के साथ अभी उनका कोई तालमेल नहीं बन पाया है और इसकी उम्मीद भी कम ही लगती है | जमादारिन के बेटे के साथ सवर्णों के बच्चे मिलजुल कर खेलें, इसकी कल्पना करना कठिन था | छोटा बेटा अब तीन साल का और बड़ा छह साल का होने वाला था | अभी तक कोई भी स्कूल नहीं जाते थे | छबिया अपने गाँव और दूसरे बच्चों को स्कूल जाते देख मन मसोस कर रह जाती थी | इस नए घर में आये भी तकरीबन एक महीने होने को आये | मौका देख कर छबिया ने एक दिन पंडिताइन से अपने दिल की  बात कह दी | पंडिताइन ने उसकी बात सुनी और बोली- तो ठीक, है भेंज दे स्कूल | छबिया चुप हो गई | दस दिन और बीत गए | एक दिन छबिया घर में चलनी से गेहूँ और सरसों अलग कर रही थी | पंडिताइन की नज़र उस पर पड़ी | उन्होंने पूछा, “क्यों छबिया, बच्चे स्कूल जा रहे हैं? छबिया चुप रही | पंडिताइन समझ गईं और बोलीं, “कल हरखू के साथ बच्चों को स्कूल भेजना और हाँ, तुम भी आना” | पंडिताइन पहले ही स्कूल पहुँच गई थीं और हेड मास्टर को सब समझा दिया था | हेड मास्टर ने पूछा, “बड़े बच्चे का क्या नाम है?” छबिया और हरखू एक दूसरे को देखने लगे, “हरखू अपने सिर को नीचे कर बोला, “नाम तो अभी धरा ही नहीं” | पंडिताइन और शिक्षक दोनों मुस्कराने लगे, “चलो, तो अब धर दो” | आपस में बात करके बड़े बेटे का नाम शिव रख दिया | अध्यापक ने खुद ही छोटे का नाम शंकर रख दिया | बड़े की उम्र ज्यादा थी इसलिए उसे कक्षा एक और छोटे को गदहिया गोल में दाखिला मिल गया | अध्यापक ने दोनों बच्चों के लिए कुछ पुस्तकें भी स्कूल से ही दिलवा दीं |

बच्चे स्कूल जाने लगे | पहले दिन मालिनी भी उनके साथ गई पर स्कूल में उसका क्या काम? भाग कर वापस हरखू के पास आ गई | छबिया आज बहुत खुश थी | पंडिताइन का आभार आजीवन न भूलने का उसने व्रत ले लिया | शिव और शंकर नियमित रूप से विद्यालय जाने लगे | वहाँ उन्हें अपने गाँव के साथी भी मिल गए | दोनों बहुत खुश थे | स्कूल घर से ज्यादा दूर नहीं था, इसलिए बच्चे दोपहर को भोजन के लिए वापस आ जाते  और फिर स्कूल जाते थे | बच्चों के स्कूल जाने और आने की सूचना हरखू को दूर से ही मालिनी के भूँकने से मिल जाती थी | पंडिताइन को बड़ा आश्चर्य हुआ जब उन्होंने जाना कि छबिया के पिल्ली का नाम मालिनी है | एक दिन उन्होंने पूछ ही लिया, “क्यों छबिया, तुमने अपनी पिल्ली का नाम मालिनी रख दिया पर बच्चों का नाम तुझे नहीं सूझा?” छबिया सिर नीचे कर मुस्करा कर चली गई | 
     
बच्चे नियमित स्कूल जाने लगे थे | छबिया और हरखू भी अपने नए घर में आराम से रह रहे थे | दोनों खेत खलिहान में ऐसे काम करते थे जैसे सारे खेत उन्हीं के हों | कहते हैं अच्छा समय गुजरते देर नहीं लगती | बच्चों को भी अच्छी खुराक मिलने लगी थी, उनका भी कद काठी काफी मजबूत हो गया था | इस बीच शिव और शंकर क्रमशः पांचवीं और तीसरी पास कर चुके थे | शिव को अब थोड़ी दूर दूसरे स्कूल में प्रवेश दिलाना पड़ा | दोनों बच्चे अब दो विद्यालयों में जाने लगे | दोनों के जाने और आने का समय भी अलग-अलग हो गया | शंकर तो अपने पढ़ाई पर बराबर ध्यान देता था पर शिव को इसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं होती थी | घर पर भी वह किताबें कम ही खोलता था | अपना बस्ता लेकर स्कूल जाता था, लेकिन रास्ते में अपने गाँव के बच्चों के साथ तालाब में मछलियाँ पकड़ने में स्कूल जाना भूल जाता था | छबिया को जब इसकी खबर मिली तो उसने प्यार से उसे समझाया पर इस प्यार का मतलब उसे समझ नहीं आता था | कुछ समय तक सब कुछ इसी तरह चलता रहा | शिव जैसे तैसे आठवीं तो पास हो गया लेकिन नवीं दर्जा में फेल होने के बाद अपना बस्ता हमेशा के लिए एक कोने में रख दिया | ठीक इसके उलट शंकर को पढ़ाई के आलावा और कुछ नहीं दिखाई देता था | वह अपनी क्लास में अव्वल आने लगा | पंडितजी को जब यह बात मालूम हुई तो उन्होंने उसे बुला कर प्रोत्साहित किया और इसी तरह पढ़ाई करने के लिए प्रेरणा दी | साथ में यह आश्वासन भी कि वह आगे की पढ़ाई के खर्च के बारे में कुछ न सोचे | शंकर पंडितजी की बातें सुनकर गदगद था | उसकी चेतना में मानो नई स्फूर्ति पैदा हो गई |

जाड़े का दिन था | ठंढ बहुत अधिक थी | हरखू और छबिया मालिनी के साथ कौड़ा ताप रहे थे | थोड़ी देर बाद शिव और शंकर भी आ गए | शंकर तो खुश था पर शिव अपना मुँह लटकाए बैठा था | छबिया ने पूछा, “शिव, क्या हुआ? मुँह काहे लटकाए हो?” शिव अब भी कुछ नहीं बोल रहा था | अब हरखू की बारी थी | हरखू ने भी नरमी से पूछा, “बोलो, क्या हुआ?” शिव ने नीचे सिर करके कहा, “अम्मा, हम कब तक दूसरे के खेत में काम करते रहेंगे, क्या हमारा अपना खेत कभी नहीं होगा? जब हम अपने पहले वाले घर में थे तो भी हमारे घर के सामने सारा खेत दूसरों का था | क्या यही हमारी नसीब है?” छबिया और हरखू को काटो तो खून नहीं | इतनी ठंढ में भी पसीना होने लगा | यह कैसा सवाल है? ऐसा तो हमारे भेंजे में कभी आया ही नहीं | वे चुप रहे | छबिया थोड़ी संयत हुई और बोली, “होगा बेटा, पर तुमसे किसी ने कुछ कहा क्या?” शिव इसके बाद कुछ नहीं बोला | पर शंकर के मन पर इसका गहरा असर हुआ | उसने उसी दिन ठान लिया कि चाहे कुछ भी हो भैया को खेत दिला कर रहेंगे | छबिया और हरखू उस रात सो नहीं सके | मालिनी मानो भौंकना ही भूल गई हो | वह अब माँ बन गई थी और उसके पिल्ले भी बड़े हो गए थे | कुछ तो आवारा हो गए थे, कुछ ठंढ को प्यारे हो गए थे, फिर भी कुत्तों की गिनती छबिया के परिवार के बराबर हो गई थी |

आज शंकर के मेट्रिक परीक्षा का परिणाम आने वाला था | पूरे स्कूल समेत पंडितजी भी उसका परीक्षाफल जानने को उत्सुक थे | उस समय परिणाम अखबारों में प्रकाशित होते थे और स्थानीय बाज़ारों में दुकानदार अनुक्रमांक देख कर पास-फेल बताते थे | पास होने वालों से चवन्नी, अठन्नी या एक रुपया तक वसूल लेते थे | शंकर को अपना परिणाम देखने जाने की जरूरत नहीं थी | पंडितजी के आदमी अखबार ले कर आ गए थे | हरखू और छबिया प्रार्थना कर रहे थे कि शंकर पास हो जाय और उसका दाखिला आगे की क्लास में हो जाय | पंडितजी को शंकर के परीक्षाफल कि जानकारी हो गई | आज वह भी बेहद खुश थे | स्वयं छबिया के घर आ कर शंकर को बताया कि वह सूबे में अव्वल पास हुआ है | फिर उसे आशीर्वाद देते हुए इसी तरह आगे पढ़ते रहने का हौशला दिया और उसकी पढ़ाई का सारा खर्च वहन करने का वादा भी | उन्होंने सबके सामने कहा, “कीचड़ में कमल खिलने की कहावत तुमने चरितार्थ कर दी” | शंकर ने पंडितजी के पैर छुए और कहा, “कमल तो कब का मुरझा जाता यदि आप जैसे सूर्य का प्रकाश इसे न मिलता” | यह सुन कर सारे लोग उसकी प्रतिभा और पंडितजी के प्रति आदर भाव को सराहने लगे |

शंकर ने विज्ञान की पढ़ाई के लिए दूसरे विद्यालय में प्रवेश ले लिया | अपनी लगन और अपने मेहनत के बलबूते अपनी पहचान बनाने लगा | अब उसकी जात-बिरादरी उसका पीछा छोड़ने लगी, पर सदियों कि मान्यताएं इतनी जल्दी कहाँ ख़तम होती हैं? गाहे-बेगाहे अभी भी उसे इसके दंश से कटवाना पड़ता था | वह अपनी पढ़ाई में पूरी निष्ठा से जुटा रहा | परिणामस्वरूप, वह आगे भी अव्वल ही आता रहा | देश के नामी-गिरामी संस्थान से पढ़ाई कर शंकर अमेरिका के बोस्टन विश्वविद्याल से पी एच डी की उपाधि प्राप्त की | तदुपरांत अमेरिका की ही एक प्रतिष्ठित कंपनी में तीन वर्षों तक नौकरी की | इस दौरान पंडितजी से उसका लागतार संपर्क बना रहा | जब उसे पता चला कि पंडितजी अब इस दुनियाँ में नहीं रहे तो वह अपने आप को रोक नहीं पाया |

शंकर का विमान दिल्ली के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर आ पहुँचा | हरखू और छबिया सहित शिव और उसकी पत्नी अपने बेटे सत्यार्थ के साथ वहाँ उपस्थित थे | बेटे को देख हरखू शांत खड़ा रहा पर छबिया के आँसू थम नहीं रहे थे | सबसे मिलने के पश्चात शंकर सभी को लेकर सड़क मार्ग से अपने गाँव के लिए रवाना हो गया | गाँव पहुँचने पर शंकर की गाड़ी सबसे पहले पंडितजी के दरवाजे पर पहुँची | शंकर पंडिताइन के पैरों पर लेट गया | सब कुछ भुला कर पंडिताइन ने भी उसे गले से लगा लिया | शंकर के आँसू थम नहीं रहे थे | पंडितजी के प्रति आभार को वह कैसे कहे, यह समझ नहीं पा रहा था | उसने कुछ निश्चय किया और पंडिताइन से पुनः मिलने का वादा कर अनुमति ली |

दो दिन बाद पंडितजी के गाँव जाने वाले मार्ग पर पत्थर गिरने लगे और कुछ कारीगर भी आ गए | कुछ दिनों बाद ही पंडितजी की एक सुंदर प्रतिमा बन कर तैयार हो गई | प्रतिमा के अनावरण का दिन भी आ गया | अगल-बगल के सारे गाँव के निवासियों को निमंत्रण भेंजा गया | पंडिताइन ने सबसे पहले मूर्ति का अनावरण कर माल्यार्पण किया | तत्पश्चात यह सम्मान छबिया को दिया गया | पंडिताइन की यही ख्वाहिश थी | शंकर ने अपना जीवन वृतांत और पंडितजी के निःस्वार्थ आश्रय और इमदाद के प्रति सराहना और कृतज्ञता प्रकट करते हुए विस्तार से पूरी कहानी का जनता के सामने खुलासा किया | उसने कहा, “पंडितजी और उनके परिवार का मृदुल चित्त-वृत्त करुणा और और सरलता से भरा है और उनके इसी स्वाभाव और उदारता के कारण ही मैं जीवन में कुछ भी कर पाया” | अपनी माँ और बापू के कठिन संघर्ष की कहानी भी लोगों के सामने रखते हुए अपने आँसुओं को थाम नहीं पाया |
अपने भाई के लिए पांच बीघे जमीन खरीद कर उसने अपने संकल्प को पूरा किया | शिव का अपनी जमीन पर खेती करने का सपना पूरा हुआ | छबिया को यह सब सच होना जागते स्वप्न के देखने जैसा लग रह था | उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि इस जीवन में यह सब संभव हो सकता है | अपने पुराने घर पर ही एक नया घर बनाने के वादे के साथ शंकर छबिया और हरखू के साथ अमेरिका के लिए पुनः रवाना हो गया |

हरखू और छबिया अब जहाज में सवार थे | आज की रात भी पूर्णिमा की रात थी | छबिया खिड़की के पास बैठी थी | वह लगातार चाँद को निहारे जा रही थी | हरखू और छबिया दोनों अपनी उस भयावह चाँदनी रात को याद करते रहे जो उन्होंने पूरी रात जाग कर काटी थी | हरखू ने शंकर से छबिया के उस विश्वास का जिक्र किया जो उसने उस रात हरखू के सामने व्यक्त किया था | उसके कथन को हरखू ने अक्षरशः इस तरह कहा, “कौन ऐसा है जिसे सदा सुख ही मिला हो और कौन ऐसा है जिसके भाग्य में सदा दुःख ही आया हो | हम सबका भाग्य रथ के पहिए की भांति ऊपर नीचे होता रहता है |” शंकर एक बार फिर अपनी माँ को देखा और उसकी गोंद में अपना सिर रख दिया | छबिया के कांपते हाथ शंकर के सिर पर चलने लगे |

जहाज अब अमेरिका के बोस्टन हवाई अड्डे पर उतरा | बाहर निकलने पर एक सफ़ेद रंग की कार उन्हें लेने के लिए वहाँ खड़ी थी | ड्राईवर कोई एक सुंदर परी सी दिखने वाली महिला थी | महिला ने छबिया और हरखू के पैर छुए | छबिया हैरान थी | यह सब क्या हो रहा है? उसकी समझ से परे था | शंकर ने माँ की स्थिति को भांपते हुए आगे बढ़ कर अपनी माँ को उसकी बहू एमिली से मिलवाया | अब छबिया और हरखू के अवाक् होने की बारी थी |
छबिया कम से कम इस देश में अब जमादारिन होने के अभिशाप से मुक्त थी !   


2 comments:

  1. मेरे अनुसार अब तक की यह आपकी सर्वश्रेष्ठ गद्य रचना है। कृपया इसे प्रकाशित होने हेतु भेजें।

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  2. सामाजिक और आर्थिक विषमता की इस कारुणिक मर्मस्पर्शी कहानी कथा सम्राट प्रेमचंद से करने में मुझे झिझक नही है। दीवाली में दिए जलाने हो तो गरीबों के घरों में रोशनी करने का कोई प्रबन्ध करो --तो बात बने। प्रिय राय साहब आपमे मानवीय सम्वेदना कितनी गहरी बसी है, ओर साहित्यिक रसायन का अमृत घोल भर हुआ है कोई सहपाठी आपके अन्तस को भांप ही नही सकता।
    बहुत ही सुन्दर कहानी है। आपके भतीजे अंकुर ने फेसबुक पे टिप्पणी की तो पढ़ने का धैर्य जुटाया। मगर पढ़ने के दौरान आंसुओं के धधकते प्रवाह को रोक न पाया।
    मै तो ऐसी कहानी सिर्फ आंसुओं से लिख पाऊंगा। ईसलिये लिखने का दुस्साहस नही करता। आप धैर्यवान है। ओर यशस्वी कथाकार की श्रेणी में आ जायेंगे। अनंत शुभकामनाएं।👌👌💐👌👌👌👌

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