नासमझ मन
-राय साहब पांडेय
मेरी हसरत तो थी दीदार की बादलों में चाँद की,
उनको तो अबूझ प्यास है शबनम के बारिशों की |
ऊँची उड़ान भरते रहे वे तोड़ लाने को सितारे,
निकम्मा बना फिरता रहा मैं साया तलाशने में |
चार क़दम साथ चलने से कोई अपना नहीं होता,
नादानी में ओझल इसे क्यों मीलों समझ लिया?
तसवीर साथ देख कर हमने अपना बना लिया,
खुदगर्ज हो गए वो कल का सपना संवार कर |
गफलतों में उम्र काट दी हमने उनको परखने में,
होश आया, जकड़ा मिला नासमझी के आलम में |
फिर मुद्दतों में जाना कि राहें हैं क्यों
जुदा-जुदा,
मेरा खुदा कोई और है उनका खुदा कोई और था |
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