Saturday, 28 October 2017

मुक्ति




-राय साहब पांडेय

एक दिन एक राहगीर से मुलाकात हो गई,
थोड़ी जान-पहचान के बाद बात-चीत हो गई,
मैंने पूछा- क्या इस राह रोज का आना-जाना है?
उसने पलट कर सवाल किया- कोई अन्य मार्ग है
इससे मुक्ति का?
मैंने पूछा- क्यों चाहिए इससे मुक्ति?   
देखा मेरी ओर एक बार उसने, हलके से मुस्कराया,
आँख पर मेरे प्रबुद्ध चश्में को निहारते हुए उसने,
फिर वही प्रश्न दोहराया, क्यों? मुक्ति नहीं चाहिए?
अब समझा यह तो गंभीर बात कह रहा है,
जीवन-चक्र से मुक्ति की सोच रहा है,
मैंने अपनी कमजोरी ताड़ ली,
अक्सर बात को देर से पकड़ने की |

अच्छा तो यह आना-जाना कैसे होगा दूर?
है कोई सरल उपाय आपके पास,
हम न तो ध्यानी हैं, न ज्ञानी हैं, न ऋषि और ना ही मुनी,
न साधू, न जोगी, न फ़कीर, न मौला और ना ही कोई सांई,
न भगत, न ओझा, न पंडित और ना ही किसी मंदिर का पुजारी,
न जप, न तप, न पूजा, न पाठ,
है कोई तोड़ आपके पास इस चक्र के चक्कर का?
मैंने सोचा, बच्चू बड़ा मुक्ति-मुक्ति कर रहा है,
अब देखता हूँ कैसे निकलता है इस सवाल के जाल से |

उसने फिर एक बार मेरे प्रबुद्ध चश्मे को घूरा,
वह भी कम घाघ नहीं था, हलके से मुस्कुराया,
पर इस बार बिलकुल सरल, निश्छल, निष्कपट,
आँखों में विशुद्ध प्रेम प्रवाह की उमड़न छलकाते हुए,
धीरे से कहा- हाँ है मेरे पास इस चक्र का सरल तोड़,
अब मेरी बारी थी उसके आँखों में झाँकने की,
पर बिना कुछ कहे, टकटकी लगाए |

जैसे आए थे, वैसे चलो जाओ बस, मुक्त हो जाओगे,
फिर मुस्कुराया, पूछा- है न सरल उपाय?
मैं चुप था एक अज्ञानी की भांति, बिना कुछ कहे,
वह समझ गया, बोला- अबोध आये थे,
जीवन-चक्र से गुजर रहे हो,
जाते समय फिर अबोध बन जाओ,
न हो कोई कड़वाहट, न कोई राग-द्वेष, न खोने का गम,
न पाने की खुशी, बेसुध, बेपरवाह, अज्ञानी, दंभ रहित मन |

ईश्वर ने जैसा भेजा था, बस बिलकुल वैसा ही,
अग्नि में तप कर, शुद्ध होकर, परीक्षा में उत्तीर्ण,
कोई श्रेणी नहीं, डिग्री-विहीन, चक्र पूरा कर मुक्त,
इस आने-जाने से, विदाई-जुदाई के क्रम को तोड़ कर |

वह अपनी राह मुड़ गया, न कोई मुस्कुराहट,
ना ही कोई सलाम-दुआ, एकदम अजनवी,
जैसे कभी मिला ही न हो,
मैं ठिठक सा गया, अवाक, निस्तब्ध, देखता रहा,
उसके आने को, उसके जाने को,
जैसे वह आया ही नहीं, वह मिला ही नहीं ? 
 
       






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