Friday, 15 December 2017

बनारस - दिल से



-राय साहब पाण्डेय

जो बात बनारस को अन्य नगरों से जुदा करती है, उसमे तीन-चार बातें बेहद ख़ास हैं | प्रथम तो यह कि इसकी गिनती विश्व के अति प्राचीनतम नगरों में की जाती है और इसके इतिहास में एक निरंतरता है | दूसरे यह कि यह नगरी हिन्दुओं के लिए हमेशा से एक सबसे पवित्र धार्मिक स्थल के रूप में स्थापित है | इन दो प्रमुख कारणों के अलावा भी एक और कारण है जो इस शहर को अतिविशिष्ट बनाता है- एक वह है बनारसी अल्हड़पन और यहाँ के घाट, खासकर धार्मिक अनुष्ठानों और पर्यटन की दृष्टि से | क्या देशी, क्या विदेशी सभी सैलानी घाटों पर मुस्कुराते हुए ही मिलते हैं | विदेशी पर्यटक भले ही धार्मिक क्रिया कलापों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा न लेते हों पर गंगा के लिए उनकी श्रद्धा और मान्यता किसी से कम परिलक्षित नहीं होती | हर कोई यहाँ के पल-पल को कैमरे में कैद करने से बाज नहीं आता |

आज घाट पर दो फ्रांसीसी पर्यटकों से मुलाकात हो गई | दोनों ने आदरपूर्वक माथे पर भरपूर तिलक लगा रखे थे | उनमें से एक के हाथ में गिटार जैसा एक वाद्य यन्त्र भी था जिसे वह गंगा के पवित्र जल से बार-बार स्पर्श कर रहा था और उसका दोस्त इसका वीडियो बना रहा था | ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह गंगा और गंगा जल के प्रताप से भलीभांति परिचित हो | जरा भी संशय की गुंजाइश नहीं | आस-पास के क्रिया-कलापों से सर्वथा बेखबर | उनके इस भाव की तल्लीनता को निहारते हुए मैं आगे बढ़ गया |  

आगे का दृश्य अद्भुत था | एक नाव दशाश्वमेध घाट की तरफ से आ रही थी | बिकुल खाली | केवल अकेला नाविक उसे खेता हुआ तुलसी घाट की तरफ अपने में मस्त सबसे बेखबर | उसके लापरवाह निर्गुण आलाप के स्वर और लय की मधुरता किसी को भी बरबस अपनी ओर आकर्षित कर सकती थी | ऐसे में मैं क्या कोई भी उसकी उपेक्षा नहीं कर सकता था | निर्गुन के बोल कानों में गूंजते रहते हैं:
भंवरवा के तोहरे संग जाई,
आवत बेरियां सब कोई जाने,
देत रहे हैं बधाई,
अरे जाते वकत केहू ना जाने,
कोऊ ना गोहराई,
भंवरवा के तोहरे संग जाई |
इसके लिखने वाले का तो पता नहीं लेकिन गाने वाले का नाम मैंने अवश्य जान लिया | भौमे निषाद का अपना एक अलग अस्तित्व है, वे निषाद राज तो नहीं पर जिन निषाद के नाम पर निषादराज घाट है, उनके सच्चे वंशज अवश्य हैं |



घाटों का आनंद लेते हुए आगे बढ़ा | यहाँ साधुओं का जलवा खूब है | भारी-भरकम चन्दन लिप्त माथा और प्रबाहु, बगल में त्रिशूल और बढ़ी हुई जटाओं और कमंडल  से लैस घाटों की सीढ़ियों और चबूतरों पर बैठे, जाड़े की ठंढ में धूप सेंकते, कुछ गंगा को तो कुछ पर्यटकों, खासकर विदेशी पर्यटकों, को निहारते हुए बहुतायत की संख्या में मिल जाएंगे | ये साधू विदेशियों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र होते हैं | इनके साथ सेल्फी लेना और इनका फोटो खींचना इन पर्यटकों का मनभावन काम होता है | ये साधू भी अपनी उपयोगिता और कीमत जानते हैं और उचित मूल्य भी वसूलते हैं | आख़िरकार, बेवजह कौन किसी के कैमरे और ड्राइंग रूम की शोभा बनना चाहेगा? हाँ, अगर कोई विडियो बनाना चाहता है तो मोटी फीस तो बनती ही है ! ये पर्यटक भी कम उस्ताद नहीं हैं | कुछ आशीर्वाद की मुद्रा में इनका फोटो खींच लेते हैं और बदले में आशीर्वाद लेने के लिए इनका पैर भी छू लेते हैं | अब बताइए, भला कौन साधू नहीं पिघल जाएगा? गद्गद साधू आशीर्वाद तो देता ही है, साथ में फीस में मनचाही रियायत भी, मतलब फीस श्रद्धानुसार | एक कैनेडियन पर्यटक के साथ कुछ देर तक टहलते हुए ऐसा ही नज़ारा देखने को मिला | बाद में एक दिलचस्प दृश्य भी देखने को मिला |

एक साधू बनारस की तंग गलियों के मध्य एक खाली पड़े बेंच पर बैठा था | सामने से कुछ विदेशी पर्यटकों का हुजूम गुजर रहा था | सबसे पीछे वाले पर्यटक ने जैसे ही उस साधू का फोटो लेने के लिए अपना कैमरा सेट किया, साधू ने आशीर्वाद की मुद्रा में अपना दाहिना हाथ उठा कर पोज़ दे दिया | पर्यटक ने ‘थैंक यू’ कहा और आगे बढ़ा ही था कि साधुजी ने अंग्रेजी में कहा, “Give me money” | पर्यटक भी घाघ था | पैंट की जेब से एक सिक्का निकाला और साधु के हाथ में थमा दिया | साधू की प्रतिक्रिया देखते ही बन रही थी | साधू ने सिक्के को पर्यटक की तरफ उछालते हुए फेंक दिया | घोर अपमान और ऐसा तिरस्कार ! वह भी किसी साधू का ! पर्यटक, बिना पीछे देखे, आगे बढ़ चुका था | साधू खिसियाते हुए बुदबुदा कर बोला, “एक रुपया कौन देता है?” मैंने भी वहाँ से खिसकने में ही भलाई समझी | पता नहीं साधू ने रास्ते में पड़ा एक रूपये का वह सिक्का उठाया या नहीं | यह देखने का दुस्साहस मुझमें तो नहीं था |
ऐसे ही थोड़े न सदियों से बनारस के घाटों का आकर्षण बना हुआ है ! बनारस के घाट सचमुच हर तरह से सार्वलौकिक हैं |

 
  

  

1 comment:

  1. बनारस निस्संदेह प्राचीनतम हिन्दू धार्मिक शहर है। यहाँ कुछ लोग आशीर्वाद के नाम पर धनार्जन करते हैं फिर भी इस स्थल का महत्व कम नही हुआ है। एक बात तो बनारस के माहौल में तो है ही कि यहाँ हर कोई दूसरी जगह से ज्यादा खुश रहता है।

    विश्लेषण बहुत ही सामयिक एवं निष्पक्ष है।

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