विष हीन
-राय साहब पाण्डेय
गरल हीन विषधर तुम
अब बस एक खिलौना,
कठपुतली बन पुंगी की
रह गए हो एक नाचौना |
खाल तुम्हारी उतर चुकी
तुम अपने अतीत की छाया,
वर्तमान सर चढ़ कर बोले
बिसरो भूत की दमकी काया |
व्यर्थ हुई फुंकार तुम्हारी
प्राण युक्त पर प्राण हीन,
शैया न रहे ना रहे हार अब
नील-कंठ माधव विहीन |
धारा का वेग न रोक सको
तो धारा की राह ही श्रेयष्कर,
मुरझाए फन की शिथिल हड्डियाँ
सह सकें कहाँ अब भार है दुष्कर?
है यही कथा, है यही व्यथा
दुनियाँ की, दुनियाँ दारी की,
घर-बारों की, रिश्तेदारों
की
अपनो की और परायों की |
मन मारो या कोसो मन को
निश्चिंत काल में रोड़ा क्यूँ ?
चलते-चलते बस चलना है
रुकते-रुकते भी रुकना क्यूँ ?
नियत समय की निर्बाध गतिज
स्थिरता की हो बू या खुशबू ,
हाथों में कल्पित ले लगाम
सहते क्यूँ भार, जो काँपे बाजू ?
क्या पाया जब थे विष समेत
क्या खोया जब हो विष विहीन ?
दंभ का पर्दा-फाश हुआ बस
जड़ नाश हुआ कारण सृजन |
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