बिन शुद्धक वाली मौत
-राय साहब पाण्डेय
मटरू के लिए आज का दिन अत्यंत कठिन होने वाला था | दादी की धमकी सुबह से बाप
और बेटे को मिल रही थी | दोनों को पता था कि उसकी धमकी का क्या मतलब हो सकता था |
मटरू के बाप ने अपना और बेटे का भला सोचा और माँ की बात मान मटरू का हाथ पकड़ नाई
बस्ती की तरफ चल पड़े |
गाँव का नाई, उस पर मुफ्त
सेवा- किसे रास नहीं आएगी? जिसकी हजामत नहीं भी बढ़ी वह भी लाइन में लगा हुआ
मिलेगा, दाढ़ी खुजलाते हुए | समय बचाने के लिए कहें या लाइन में अपना हक बरकरार
रखने के लिए, कुछ उत्साही नवजवान नाई की अतिरिक्त कटोरी में पानी ले कर स्वयं ही
अपनी हजामत मुलायम करने लगते थे | मटरू के बापू कब तक इन्तजार करते, ‘तुम बैठो,
मैं अभी आता हूँ’, कहकर चले गए | मटरू के पास समय के अलावा और था भी क्या ? खुश
हुए “चलो गोटी खेलते हैं’, खुद ही कह कर खुद ही सुन लिया | नरिया-थपुआ के
छोटे-छोटे टुकड़ों की कोई कमी नहीं थी, एक खोजो सैकड़ों मिलते थे | जल्दी-जल्दी कुछ
टुकड़े इकट्ठे किये और शुरू हो गए | कब उनका नंबर आया, कुछ पता नहीं |
अब मटरू की सांसत शुरू होने वाली थी | फिरारी ने पूरे सिर को पानी से नहलाया |
पहले हाथ की उँगलियों से और फिर पतली होती कंघी से बालों की लट को अलग किया |
बुदबुदाते हुए अपनी आँखों को चश्मे के अंदर सिकोड़ते हुए बालों को काटना शुरू किया |
मटरू के बार-बार अपने सिर को हिलाने-डुलाने की वजह से फिरारी को दिक्कत हो रही थी
| मटरू और फिरारी के बीच एक अनकही दौड़ चल रही थी | मटरू हर दो मिनट में कुछ आगे
खिसक जाता था | फिरारी को भी मटरू के सिर को कैंची की गिरफ्त में रखने के लिए अपनी
ईंट को आगे खिसकाना पड़ता था | चंगुल से छुटकारा पाने की जुगाड़ में मटरू कभी सिर तो
कभी नाक खुजलाने का बहाना करता | फिरारी की झुंझलाहट बढ़ रही थी | एक तो उमर का
तकाज़ा, दूसरे उनका अकेलापन उन्हें अनायास ही बुदबुदाने को मजबूर करते थे | फिरारी
बब्बा ने कस कर मटरू के सिर को अपने पैर के घुटनों के बीच दबोचा और बालों को गढ़ना
शुरू किया | बालों को मिलाते-मिलाते दो इंच लम्बे बाल दो सेंटीमीटर तक छोटे हो
जाते, फिर काहे की मिलावट? मटरू और फिरारी अपने मूल स्थान से लगभग दस मीटर तक आगे खिसक
जाते थे | फिरारी को ख़त काटने के लिए कटोरी और उस्तरा अपने जगह से वापस लाना पड़ा |
मटरू की जान में जान आई | ख़त काटना मतलब बाल कटाने की पीड़ा से मुक्ति | मटरू के
कानों में आवाज आई, “चल, जा “, मटरू को अपने कपड़ों की भी शुध नहीं होती और सीधा
दौड़ कर घर भागते | कमीज या गंजी वापस लाने के लिए दादी हैं न? फिरारी का काम अभी
ख़तम नहीं हुआ | मटरू के गिरे बालों को समेटना अभी बाकी था |
मटरू अब बड़े हो गए हैं | फिरारी के बारे में बातें करते हुए अक्सर भावुक हो
जाते हैं | मटरू बताने लगे, “फिरारी बब्बा शांत सुभाव के थे | जब से उन्हें देखा,
उनकी आँखों पर गांधी बाबा वाला चश्मा चढ़ा होता था | चश्मे के कांचों पर धूल-मिट्टी की न उतरने वाली परत जम कर एक अलग नक्शा बना चुकी थी | कभी-कभार अपने गमछे से
पोंछ कर जरूर साफ़ कर लेते थे और उसी से उन्हें साफ़ दिखने लगता था | कान पर चढ़ने
वाला फ्रेम किसी मेटल का न होकर सूत के मजबूत धागे से बना होता था जिसे आसानी से
कान पर चढ़ाया जा सकता था | मटरू ने दादी से जो भी सुन रखा था उसे दादी के शब्दों
में ही जस का तस बताने लगे |
“फिरारी भी तुम्हारे जैसे ही हट्टे-कट्ठे जवान थे | उनके पिताजी अपनी बिरादरी
के चौधरी माने जाते थे | अपने समाज में उनका मान–सम्मान था | बिरादरी वाले अक्सर
सलाह-मशविरा लेने आया करते थे | खूब जजमानी थी, खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी |
फिरारी की माँ जल्दी ही सरग सिधार गई थी | फिरारी के पिताजी को ही घर का सारा
काम-काज भी निपटाना होता था | ऊपर से जजमानी का बोझ इतना कि अगर रात न हो तो काम
कभी ख़तम ही न हो | फिरारी गाँव के अखाड़े में कुश्ती लड़ने जाता था, लड़ता भी खूब था
| पर गाँव के दबंगों के आगे उसकी कहाँ चलती थी? एक बार एक बड़े घर के नौजवान लड़के
को पठखनी क्या दे दी, सारे दबंगों ने मिल कर नाक-मुँह तोड़ दिया | हल्दी-प्याज और
कड़वे तेल का गरम लेप हप्तों तक लगाना पड़ा तब जा कर कहीं नीला पड़ा खून फटा और
फिरारी फिर से बाहर मुँह दिखाने लायक हुए | जिन लोगों ने फिरारी की यह हालत की थी,
वे शान से गाँव में घूमते रहे | फिरारी की माँ होती तो शायद ओरहन-उलाहना भी ले कर
जाती, फिरारी के पिताजी किसके पास जाते? है न अचरज की बात, जो शख्स अपनी बिरादरी
में इतने मान-सम्मान का हकदार है, लोगों के आपसी झगड़ों को सुलह-सफाई से निपटा सकता
है, अपने खुद के बेटे के साथ इतना सब कुछ हो जाने के बावजूद चुप रहना ही श्रेयष्कर
समझता है | इस घटना के बाद फिरारी का इन लड़कों के साथ उठना-बैठना तो बंद हो ही
गया, उलटे बाप से सख्त हिदायत भी मिल गई कि अगर अखाड़े की तरफ भूल कर भी झाँका तो हाँथ-पैर
भी गवां बैठेंगे | कुछ दिनों तक सब कुछ ऐसे ही चलता रहा, फिर मान-मनौवल के बाद
फिरारी का अखाड़े में जाना आरम्भ तो हुआ लेकिन वे बाकियों की दमकशी कराने के काम
आने लगे |
चौधरी का बेटा अब जवान हो चला था | बिरादरी के संभ्रांत नाई रिश्ता ले कर आने
लगे थे | चौधरी को लोगों के दबाव में आना ही पड़ा और फिर साईत-शगुन देख कर शादी कर
दी गई | चौधरी को अपने पुश्तैनी काम और बिरादरी के काम-काज के लिए अधिक समय मिलने
लगा | फिरारी अब अखाडा-कुश्ती छोड़ घर-बार और जजमानी के कामों में मन लगाने लगा | बहू
के आने से चौधरी के घर में भी समय से दिया-बाती होने लगी | आस-पड़ोस की महिलाएँ भी
आने लगीं और जल्दी ही फिरारी की दुलहिन को ढेर सारी चचिया-ककिया सास, देवर, जेठ,
ननदें और जेठानियाँ भी मिल गईं |
समय को मानों पंख लग गए हों | चौधरी अब बूढ़े हो गए और उनका चलना-फिरना काफी कम
हो गया | सारा काम फिरारी के जिम्मे आन पड़ा | काम की व्यस्तता के चलते फिरारी ने
चौधराई के काम को अस्वीकार कर दिया | दुलहिन अब दुलहिन नहीं रही वरन् एक प्रौढ़ा,
व्यवहार-कुशल एवं चतुर औरत के रूप में निखर चुकी थी | शादी-व्याह, शकुन-अपशकुन,
मरनी-करनी के सारे विधि-विधानों में जजमानों के यहाँ आने-जाने लगी थी | सर पे
पल्लू और मुँह पर आधा घूंघट रख अपने से दूनी उमर के जजमानों से अपने पद-हद की बात
आसानी से कर लेने में पारंगत भी हो चुकी थी | मनचलों के सवालों का जवाब भी सफाई से
देना सीख गई थी | पूरी ठेठ नाईंन | नाईंन अब एक बच्चे की माँ बन गयी थी | चौधरी
दमा के मरीज हो गए थे, फिर भी चीलम नहीं छूट रही थी | फिरारी ने कई बार
गांजा-तम्बाकू छुड़वाने की नाकाम कोशिश भी की | चौधरी का हमेशा एक ही जवाब होता था,
“फिरारी, अब तो यह लत मरने के बाद ही जाएगी” | फिरारी फिर मौन धारण करने में ही
अपना भला समझते थे |
चौधरी स्वर्ग सिधार गए | लोग तो ऐसा ही कहते हैं, देखा किसने है? फिरारी लोक
ढंढन और रिवाजों के फेर में खुद भी फंस गए, सब कुछ धर्म के नाम पर और स्वर्ग में
स्थान सुनिश्चित करने के लिए | बार-बार उनके मन में एक ही ख़याल आता था, “पिता जी
का काम-काज तो मैं कर रहा हूँ, मेरा होगा या नहीं |” मानव जीवन भी अजीब कशमकश से
भरा है, “जब धर्म जिंदगी जीने के
लिए उपयोगी न होकर मौत के पश्चात काल्पनिक खौफ और पारलौकिक उपयोग की
वस्तु बन जाय तो धर्म दर्शन नहीं मात्र प्रदर्शन बन कर रह जाता है |” जजमानों और बिरादरी के सहयोग से सब कुछ अच्छे से निपट गया | फिरारी का लड़का
होनहार निकल रहा था | खेलकूद में पड़ोसी नाईयों और बाभनों के लड़कों को मात दे देता
था | बाप की तरह पिट कर नहीं, पीट कर आता था | गाँव के और बच्चों के साथ स्कूल भी
जाने लगा था | ऐसा लग रहा था कि सब कुछ सामान्य चल रहा है |
फिरारी ज्यादातर
बाहर के कामों में व्यस्त रहने लगे थे | उन्हें सबकी चिंता थी, कब कहाँ नेवता ले
कर जाना है, किसके यहाँ कौन सा परोजन है, इस साल किसके-किसके घर लड़के-लड़कियों की
शादी पड़ने वाली है, सिवाय अपने घर की | उन्हें तो शायद अपनी जोरू का नाम भी याद
नहीं रहता था | सुखवंती अब सुखना बन गई थी | ये जो ऊची जात वाले होते हैं न उन्हें अपने घर काम करने वालों के
अच्छे नाम भी पसंद नहीं आते | नाम बिगाड़ना तो इन लोगों का अधिकार है | भलाई इसी
में है कि जल्दी से जल्दी अपने नए नाम को अंगीकार कर लो | सुखना अपने घर में और घर
से बाहर पंडितों के घर में अकेली पड़ने लगी थी | गरीब की लुगाई जाने-अनजाने कब संभ्रांत
कहे जाने वाले मर्दों की निगाह में आ जाती है, पता ही नहीं चलता | पंडितों की
बिरादरी में भी ढेर सारे ‘बैचलर हिप्पो’ होते हैं जो कहीं भी मुँह मारने में परहेज
नहीं करते | अक्सर संकोच बस प्रतिकार न करना अपने साथ हुई एक तरफ़ा बेहूदगी को मौन
स्वीकार मान लिया जाता है | लालच-लोभ का छलावा धीरे-धीरे अपनी जड़ जमा ही लेता है |
फिर तो कदम डगमगाने का ही इंतजार रहता है | सुखना एक माँ है, वह खुद भी भूल गई | अब
की बार एक पति अपने बेटे, पत्नी और माँ-बाप को नहीं बल्कि एक माँ अपने पति और बेटे
को छोड़ कर रात के सन्नाटे में गायब हो गई |
फिरारी के लिए
एक यह नई मुसीबत थी | कितने दिनों तक इस दुर्घटना पर पर्दा डालते? ‘कुछ दिनों के
लिए मायके गई है’ यही कहते फिर रहे थे | एक-दो दिन की बात होती तो बात कुछ और होती
| चार साल के बेटे को छोड़ कर कौन औरत मायके जाती है? इस प्रतिवाद का जवाब उनके पास
नहीं था | इस बीच अफीमची पंडित भी गायब हो गया था, इस लिए लोगों का शक पक्का हो
गया | लगभग महीने भर बाद अफीमची और सुखना हाज़िर हो गए, सुखना अपने घोसले में अपने
चूजे के साथ और अफीमची अपने भाइयों के घोसलों में उनके चूजों के साथ | अफीमची
परिवार का तो कुछ नहीं हुआ, फिरारी की
बिरादरी वाले जरूर दबे जुबान भोज-भात की बात करने लगे थे | फिर बीच-बचाव और
पंडितों के दबाव में बात आई-गई हो गई | नई बात नौ दिन, लोग फिर अपने-अपने काम पर |
लोग तो अपने काम पर हो गए पर सुखना की जिन्दगी तानों की बौछारों से आहत होने लगी |
छोटू इन बौछारों का मतलब तो नहीं समझता था लेकिन कभी अपने बाप को तो कभी अपनी माँ
को देखता था | अनजाने में ही उसके शब्दकोश में नए शब्दों की भरमार हो गई | “पंडितों
के साथ काम करते-करते पंडिताइन बनने का मन हो गया था तुम्हारी माँ को |” छोटू को
इन बातों से क्या मतलब था? उसे तो बस माँ फिर से मिल गई | सुखना को पति से मिली
जिल्लत सहने के अतिरिक्त और कोई चारा भी नहीं था | जो भी सुखना को पंडिताइन होने
का सुख नहीं मिल सका | नाई से शर्मा बनने का मोह केवल सुखना को ही नहीं था, हिंदुस्तान की जाति व्यवस्था में किसी को भी यह सुख हासिल हो जाय तो कोई भी इसे
प्राप्त करना चाहेगा, भले ही पेट पालने के लाले पड़ रहे हों | चौधरी का पद-भार अब
फिरारी के पड़ोस में ही आ गया था | इसके कारण उनका सामाजिक जीवन थोड़ा शांत हो गया |
घरेलू कलह भी, कुछ समय के लिए ही सही, सुलझ गया था, क्योंकि सुखना सुनाने के बजाय
सुनने में ही अपनी भलाई मान चुकी थी |
मौजूदा चौधरी का
लालन-पालन उनके मामा की देख-रेख में हुआ क्योंकि उनके पिता चौधरी के जन्म के कुछ
समय पश्चात ही गाँव छोड़ कर कमाने निकल गए थे | शायद किसी को पता भी नहीं चलता अगर तीस
साल बाद वे लौट कर नहीं आते | सुबरन एक रात अपने गाँव से दस मील दूर अचानक अपने
रिश्तेदार के यहाँ प्रकट हुए | जूट के चीथड़े में लिपटे हुए चोटिल, असहाय जब रात में
किसी के दरवाजे पर कोई पहुँचेगा तो कोई भी उसे पहचानने और पनाह देने में कई बार
सोचेगा | लोगों को तो सुबरन की सूरत तक भी याद नहीं थी | अधिकतर लोग यह मान बैठे थे
कि “सुबरना तो कहीं मर बिला गया होगा” |
लेकिन नियत की नीयत कुछ और ही थी | सुबरन न तो मरा और न ही बिलाया | सुबरन के
रिश्तेदार ने सुबरन की आवाज पहचान ही ली | अचानक ही इस छोटे से नाई परिवार में
कोहराम छा गया | इस कोहराम में ख़ुशी भी थी और गम भी था | एक अनहोनी का सुखद आश्चर्य
भी कम नहीं था | देखते ही देखते पूरा गाँव इकठ्ठा हो गया | सुबरन के अविरल
अश्रु-प्रवाह रोके नहीं रुक रहे थे | अपनों के बीच होना भी उनके लिए एक स्वप्न जैसा
लग रहा था |
सुबरन तीस साल
पहले किसी मन-मुटाव बस घर-बार छोड़ कर रंगून पहुँच गए थे | नाई तो थे ही, बाल काटने
का हुनर बचपन से ही सीख रखा था | इसी काम में लग गए | दक्षिण-एशियाई वाले बहुसंख्यक
इलाके में लोगों से मेल-जोल भी हो गई और लगभग वहीँ के हो गए | अपना परिवार भी
बसाया या नहीं, इसके बारे में किसी को कोई खबर नहीं हुई | द्वीतीय विश्व युद्ध की
विभीषिका यहाँ भी भयानक रूप से पहुँच चुकी थी | लाखों एशियाई शरणार्थी बर्मा छोड़
चुके थे | दक्षिण एशिया का यह भू-भाग नाटकीय रूप से सेना के गढ़ के रूप में तब्दील
हो चुका था | रसोईये, दर्जी, धोबी, नाई, मैकेनिक, जूते बनाने वाले जैसे गैर-लड़ाके
भारतीय इस महायुद्ध को भेंट हो गए थे | हजारों भारतीय और एशियाई मुल्कों के श्रमिक
जो अत्यधिक ऊँचाई पर सड़कों के निर्माण कार्य में लगे थे, मलेरिया और अन्य
बीमारियों के शिकार हो गए | अक्सर इन मजदूरों के लिए यह बस एक रोजगार मात्र था न
कि देश भक्ति का | उन्हें इसका जरा भी भान नहीं था कि यह एक वीरतापूर्ण ऐतिहासिक
कदम था | इन अशिक्षित श्रमिकों ने अपनी इस सेवा का कोई लेखा-जोखा नहीं रखा यद्यपि
ब्रिटिश एवं अन्य लेखकों ने अवश्य इनके बारे में अनेक संस्मरण लिखे |
सुबरन अपनी आप
बीती सुनाते हुए फफ़क पड़ते थे | सुनने वालों की आँखे भी नम थी | जापानी सेनाएं
रंगून और मंडालय जैसे प्रमुख शहरों पर अपना आधिपत्य काबिज कर लिया था | ब्रिटिश
साम्राज्य की सेनाएं हजारों असैनिक नागरिकों के साथ उत्तर की ओर भारतीय क्षेत्र
में पीछे हट रही थीं | घने जंगलों के मध्य बीमारी और जापानी वायु सेनाओं की लगातार
बमबारी और अमानवीय यातनाओं को झेलते हुए बचे-खुचे लोग इम्फाल पहुँचे | सुबरन भी इन
खुशनसीब लोगों में से एक थे | सुबरन की अंतहीन यात्रा का यह प्रसंग ख़त्म होने का नाम
नहीं ले रहा था |
परिवारों,
दोस्तों, बच्चों एवं बुजुर्गों के साथ अनेक समूहों में चलने वाली यह लाचार यात्रा
बहुतों को दम तोड़ते देख रही थी | अपना सब कुछ कमाया-धमाया गवां कर जान बचा कर
भागने वाले इन समूहों के पास कोई आत्मविश्वास नहीं बचा था | बहुतों ने अपना कमाया
हुआ बहुमूल्य सामान अपने घरों के इर्द-गिर्द जमीन में गाड़ दिए थे, इस उम्मीद में
कि शायद युद्ध के बाद वे फिर लौट सकें | इम्फाल में शरणार्थी कैम्पों में कुछ समय
रुकने के बाद सुबरन की पैदल, और नाव की यात्रा प्रारंभ हुई | अपने बचे-खुचे
सहयात्रियों के साथ अपने जिले में पहुँचने पर उनमे फिर एक आस जगी अपनों के बीच
होने की |
सुबरन लौट आये |
न तो उनका एक बीर सिपाही जैसा स्वागत हुआ और न ही कोई जश्न | पूरा परिवार ग़मगीन था
| वे एक देखने की वस्तु बन गए थे | तीस सालों बाद एक निरीह अवस्था में घर-वापसी
उनके लिए एक आत्मग्लानि से कम नहीं थी | छोटे बेटे, पत्नी और वृद्ध पिता को बिना
किसी सूचना के घर-बार छोड़ कर चले जाने का दुःख उन पर बेहद भारी पड़ रहा था | पंडित
बहुल गाँव में कुछ नाईयों का परिवार बस उपयोग और सहूलियत के लिए बसाया गया था | “अरे
सुबरना आ गया है”, ऐसी ही प्रतिक्रिया थी इन पंडितों की | सुबरन कुछ दिनों के
मेहमान रहे और और शीघ्र ही भगवान् को प्यारे हो गए |
सुबरन के
सुपुत्र, राम बरन, अपने मामा की देख-रेख में पले बढ़े थे | सौभाग्य से राम बरन के
मामा लोगों का परिवार मुंबई महानगर में अच्छी कमाई कर रहा था | राम बरन अब नाईयों
के मौजूदा चौधरी थे | राम बरन मामा के एक निमंत्रण पर मुंबई गए हुए थे | मामा के
छोटे लड़के की शादी थी | शादी में अत्यंत गोपनीयता बरती जा रही थी | मामा और परिवार
के अन्य सदस्य सिल्क कुर्तों और पायजामों में सजे धजे थे | सबके माथे पर सुन्दर
पंडितों वाला गोल टीका भी सजा था | राम बरन और अन्य रिश्तेदारों को बड़ा आश्चर्य लग
रहा था | सभी रिश्तेदारों को लड़की वालों से बात-चीत करने में अत्यंत सावधानी बरतने
का निर्देश दिया गया था | बाद में खुलासा हुआ कि राम बरन अब शर्मा ब्राह्मण बन गए हैं
और किसी भी कीमत पर लड़की वालों को यह बात पता नहीं चलनी चाहिए | राम बरन का मन
मिचला रहा था | भोजन पेट में जाने के बजाय पेट से बाहर आने को मचल रहा था और मन
शीघ्र ही मुंबई से गाँव | एक और नाई परिवार का रूपांतरण हो चुका था | नाई से
शर्मा-नाई और फिर शर्मा- ब्राह्मण |
दिन बीतते गए |
फिरारी अब बूढ़े हो चले थे | छोटू भी अब छोटू नहीं रहा | प्रेम नाम था उसका |
फिरारी की तरह संकोची नहीं था | स्कूल में दाखिला हुआ था उसका | गाँव के अन्य
बच्चों की तरह वह भी पढने में होशियार था | जब तक फेल नहीं हुआ, स्कूल जाने का
क्रम चलता रहा | उसके लिए फेल-पास कोई मायने नहीं रखता था, उसके पास अपना खानदानी
पेशा जो था ! कभी भी छुरा-कैंची पकड़ सकता था | फिरारी का इतिहास फिर से एक बार उनके
ही सामने खड़ा था | पहले के जमाने में शादी की कोई ख़ास उमर नहीं थी | परिवारों की
सहमति से लड़के-लड़कियों की शादियाँ हो जाया करती थीं | फिरारी ने भी प्रेम की शादी
कर दी | फिरारी अपने काम में मशगूल रहा करते थे और प्रेम अपने कामों में | एक बार
स्कूल में फेल और फिर पढ़ाई से मुक्ति |
प्रेम की बीवी
का नाम फूलमती था | कालांतर में उसे भी अपनी सास की भांति फुलना बनना पड़ा | फुलना काम-काज
में दक्ष और नाक-नक्श से सुन्दर थी | प्रेम उसके मोह-पाश में उलझा रहता था | घर
गृहस्थी से जैसे विमुख ही हो गया | दोस्तों से भी बड़ी मुश्किल से मिलता था | कुछ
समय तक तो सब ठीक लगता है, लेकिन नाई के परिवार में यह सब कब तक चलता | प्रेम
हमेशा आशंकाओं से घिरा रहता | जब भी वह घर के बाहर होता, उसके मन में अनजाने ही कुछ
सताने लगता था | फिरारी और प्रेम दोनों अपने-अपने औजारों के साथ सुबह-सुबह जजमानों
की खातिरदारी में निकल जाते और दोपहर के भोजन के अवसर पर ही घर आते थे | प्रेम नए
जमाने का नाई था | हाथ भी सफाई और फुर्ती से चलाता था | जल्दी ही वह युवाओं का
पसंदीदा नाई बन गया | फिरारी अब बूढ़ों और बच्चों तक सीमित हो गए | घर की जरूरतें
बढ़ने लगी | प्रेम के कुछ दोस्तों ने सलाह दी कि वह नजदीक के बाजार में अपना खुद का
एक सैलून खोल ले | प्रेम के दिमाग में यह बात इस कदर बैठ गई कि बाप-बेटे में सैलून
को लेकर मन-मुटाव बढ़ने लगा | फुलना ने भी पति की तरफदारी की और ससुर को समझाया | फिरारी
के न चाहने पर भी प्रेम के जिद के आगे उनकी एक न चली और सैलून खुल गया | सैलून का
नाम भी फूलमती के तर्ज पर ‘रूपा-सैलून’ रख दिया गया |
कहते हैं न कि
जब पैसा आने लगता हैं तो समझदार से समझदार व्यक्ति के भी कदम लड़खड़ाने लग जाते हैं
| प्रेम की दुकान चल निकली | अब दोपहर के भोजन पर भी वह घर नहीं आता था | आस-पास
के दुकानदारों से मेल-जोल बढ़ गया | पता नहीं कुदरत भी कुछ अजीब तरह से वर्ताव करती
है | अच्छी सोहबत का असर कम होता है और बुरी सोहबत अपना रंग जल्द ही दिखाने लगती
है | प्रेम अपने दोस्तों में ‘शर्मा जी’ हो गए | एक अच्छी बाइसिकल के गौरवान्वित मालिक
भी | घर पर पहुँचने से पहले ही बाइसिकल की घंटी बजाने लगते थे | घंटी की आवाज
सुनकर फुलना को यह समझने में देर नहीं लगती थी कि उनके ‘शर्मा जी’ आ गए हैं |
फिरारी को भी बेटे पर गर्व होने लगा था | क्यों न हो आखिरकार नाई के घर में बाइसिकल! जो अधिकतर पंडितों को भी नसीब नहीं थी | ‘शर्मा जी’ अब शाम को भी देर से आने लगे |
कभी खाना खाते, कभी भूख नहीं होती | फिरारी के पास भी उड़ कर ख़बरें आने लगीं, ‘शर्मा
जी’ देशी दारू की दुकान पर दिखने लगे थे |
सुन्दर रूप
स्वयं में ही एक वैभव होता है | संपन्न एवं संभ्रांत महिलाओं में यह सुन्दर रूप
उनकी संपत्ति भी हो सकती है | पर रूप ख़ास कर गरीब और समाज के पिछड़े वर्ग की महिलाओं
के पास हो तो यही संपत्ति कब विपत्ति बन जाय, कहना मुश्किल हो जाता है | रूपा-सैलून
की चर्चा कब 'रूपा' की चर्चा में तब्दील हो गई, इसका पता सबको पहले चल गया पर फिरारी
और प्रेम को सबसे बाद में | दारू के नशे में ‘शर्मा जी’ के ही दोस्तों ने फुलना की
तारीफ़ कुछ ज्यादा ही कर दी, बस ‘शर्मा जी’ भड़क गए और दूसरे दिन से फुलना का जजमानों
के घर जाना बंद हो गया | फुलना के पास अभी तक कोई अपना बच्चा नहीं था | वह अपने
पड़ोसी राम बरन के बच्चे को अपना प्यार देने लगी | जजमानों के घर की महिलाओं के
नाखून बढ़ने लगे थे | उनके पैर भी बिना उबटन और आलता के सूखने लगे थे | लाज़िम था, फिरारी
के पास जजमानों की शिकायतें आने लगी | फुलना का फिर से आना-जाना शुरू हो गया | ‘शर्मा
जी’ अब रोज देर से आने लगे और देशी दारू के नशे में बड़बड़ाते हुए फुलना को कभी
भद्दी-भद्दी गालियों का तो कभी लात-घूसों का 'प्रसाद' देने लगे | फूलमती का फूल जैसा
चेहरा कब कुम्हला गया, उसे खुद भी पता नहीं चला |
शक का इलाज कभी
हो सकता है? फुलना भी इसी का शिकार होने लगी | जब कभी वह अपने पति को रिझाने के
लिए साज-श्रृंगार कर लेती तो उस दिन उसकी और कुटाई हो जाती | “नाई का डरवावन छुरा”,
बात-बात पर ‘शर्मा जी’ छुरा निकाल लेते, फुलना को धमकाते और निर्लज्जता की हदें
पार कर पूछते, ‘कौन आया था’? फूलमती का ‘फूल’ मुरझा गया | उसकी ‘मति’ ने भी काम
करना बंद कर दिया | ठीक-ठाक चलती जिंदगी में ग्रहण लग गया | फिरारी मूक-दर्शक बन
गए | ऐसे में कोई भी फुलना से सहानुभूति पूर्वक बात भी कर ले तो फुलना थोड़ा हल्का
महसूस करने लगती थी | मनचले और बदमाश किस्म के लोगों के लिए यह एक सुनहरा अवसर
होता है, ऐसी महिलाओं के करीब आने का | फुलना भी इसका शिकार हो गयी | फुलना भी रात
के अँधेरे में विलीन हो गई, शायद कभी भी उजागर न होने के लिए |
प्रेम अब प्रेम भी
नहीं रहा | वह भी घर-बार छोड़ दूर शहर प्रस्थान कर गया | फिरारी फिर अकेले हो गए | उमर
हो गई थी | आँख- कान जवाब दे रहे थे | अब खाने-पीने के लिए पूरी तरह राम बरन पर
आश्रित थे | बाल अब भी काटते थे लेकिन मजबूरी में उनकी खुद की तो थी ही, ग्राहक की
मजबूरी अधिक होती थी | जब कोई नाई नहीं मिलता तो लोग अपने छोटे बच्चों को उनके
हवाले कर देते थे | फिरारी घंटे-दो घंटे में बालों को गढ़ कर सुन्दर बना कर अपनी
छाप लगा ही देते थे | धीरे-धीरे प्रेम का भी आना-जाना कम हो गया | शहर में ही उसने
अपना परिवार बसा लिया, पर फिरारी को परिवार का सुख नहीं मिला |
सर्दियों की एक
ठंढ भरी रात में वे चल बसे | प्रेम का कोई अता-पता नहीं था | राम बरन और अन्य
नाईयों के परिवारों ने फिरारी को टिकठी पर लिटाया और गंगा नदी के किनारे दाह
संस्कार कर दिया | जब आगे के संस्कारों की बात चली तो सबने मौन धारण कर लिया |
फिरारी जन्म और कर्म से नाई थे | सैकड़ों लोगों के क्रिया-कर्म में खुद शामिल हुए,
लेकिन उनकी मौत के बाद न तो उनका शुद्धक करने वाला कोई था और न ही तेरही | उनकी
मृतक आत्मा शायद अपनी शुद्धि के लिए आज भी इन्तजार कर रही हो? प्रेम चोरी छुपे आता
रहा | राम बरन पडोसी धरम निभाते रहे | उन्हें भी कुछ आशा थी कि फिरारी की सेवा के
बदले फिरारी के घर का कुछ हिस्सा उन्हें मिल जाय और वे अपना घर बड़ा कर सकें | खैर,
उम्मीद नाउम्मीदी में तब बदल गई जब प्रेम ने दारू और कुछ रुपयों की लालच में अपना
घर द्वार एक पंडित जी के नाम रजिस्टरी कर
दी | पड़ोसी पंडित और नए मालिक के बीच विवाद हो गया | फिरारी का घर अब एक खंडहर बन
गया, जहाँ फिरारी की आत्मा निवास करती है और कोई भी पड़ोसी इस खंडहर को हथियाने की
कोशिश नहीं करता | कहीं कोई अपशकुन न हो जाय!
समय बीतता गया |
राम बरन को फिरारी की सारी जजमानी हाशिल हो गई | उनका दायरा बढ़ गया और रुतबा भी | नाई
के बिना हिंदू समाज में पारंपरिक शादियाँ कहाँ संपन्न होती हैं? लड़के की शादी हो
या लड़की की, परग-परग पर नाई-नाईन की जरूरत पड़ती है | शादियों का मौसम ही उनकी कमाई
का मौसम होता है | राम बरन ऐसे ही एक पंडित बिरादरी की शादी में गए हुए थे | शादी
का बिहान था | राम बरन नित्य-कर्म से लोटे के साथ लौट रहे थे | किसी छोटे से बालक ने
उन्हें आवाज दी | राम बरन ने पहले तो अनदेखा कर दिया लेकिन यह आवाज उनके लिए ही थी
यह सोच कर गफ़लत में पड़ गए कि यहाँ मुझे कौन पुकार सकता है? कुतूहल बस अपने क़दमों
को तेज किया और लड़के का सन्देश सुन कर और चकित हुए | उनका साक्षात्कार एक महिला से
हुआ और उनके होश उड़ गए | “फुलना”, सहसा उनके मुँह से आवाज निकली | “हाँ भैया’,
फुलना बस इतना ही कह पाई और फफ़क-फफ़क कर रोने लगी | राम बरन के लिए यह बिल्कुल
अप्रत्याशित था | जल्दी-जल्दी में हाल-चाल हुआ और राम बरन सोचने लगे, “लोग देखेंगे
तो क्या कहेंगे” | एक पंडिताइन एक अनजाने गाँव के नाई से क्या बात कर रही है? फूलमती
ने अपनी आप-बीती सुनाई, नाईन से पंडिताइन बनने तक की | “मैं क्या करती? और अब क्या
करूँ?”, फूलमती ने अपना सर नीचे कर हलके से कहा | राम बरन सोच में पड़ गए | थोड़ी
देर बाद बोले, “अब मैं एक संभ्रांत पंडिताइन से बात कर रहा हूँ | अब तुम्हारी एक
प्रतिष्ठा है | पति तो पहले भी नहीं था, अब भी नहीं है | छोटे बच्चे तो हैं न? तुमारी
सास ने भी नाईन से पंडिताइन बनने की नाकाम कोशिश की थी | तुम्हे यह सुख ईश्वर ने
शायद सुखना की अधूरी इच्छा पूरी करने के लिए ही दिया हो | इसे ऊपर वाले का प्रसाद
मानों और जहाँ हो वहीँ खुश रहो | अब तुम एक पंडिताइन ही नहीं, पंडित घराने के
वारिशों की माँ भी हो | अंधों ने तुम्हें नहीं पहचाना | अब अंधों को आईना दिखाने
का वक़्त निकल चुका |”
राम बरन और
फूलमती अपने-अपने रास्ते पर हो लिए | फूलमती का अपराध बोध अब शांत हो चुका था और
वह सही मायने में नाईन से पंडिताइन बनने की प्रक्रिया पूरी कर चुकी थी | आंसू पोछते
हुए वह आगे बढ़ गई | राम बरन खुश थे, चलो एक को ही सही, नाईन को भी पंडिताइन बनने का
सुख तो हाशिल हुआ |
वर्ण व्यवस्था के कारण मन में उत्पन्न लालसा ही इस कहानी के पात्रों को अपना मूल वर्ण परिवर्तित करने को बाध्य किया.
ReplyDeleteहालांकि उत्तम कर्म के कारण ही ब्राह्मण बर्ण व्यवस्था में शिखर पर हैं लेकिन इस कहानी में कुछ लोगों का कृत्य कर्महीनता पर आ टिका है.
अर्जित धन को सदुपयोग में लाने के लिए समझदारी की जरूरत होती है, पैसे कमाने के दौरान पारिवारिक प्रेम एवं उनके साथ यथोचित समय व्यतीत करना भी आवश्यक हैं.
भले ही पैसे के कारण कोई अपने को उँचा समझे लेकिन व्यक्तित्व सर्वांगीण विकास पर ही परखा जायेगा.
Thank you Tiwari ji for your positive analysis and encouragement. Regards.
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