Thursday, 13 February 2020

बनारस दिल से (2)





बनारस दिल से (2) - घाट
-    राय साहब पाण्डेय




घाट पर बैठा ही था कि
एक नाई भाई आ गए,
बाबू जी तेल-मालिश चलेगा, सस्ते में,
मैंने पूछ लिया - निपटा दोगे ?
नाई बोला- क्या बाबू जी !
फिर हल्के से मुस्कुराया,
वह भी और मैं भी,
फिर दोनों चल दिए,
वह अपनी राह और मैं अपनी राह हो लिए |

आगे बढ़ा- एक पंडित जी मिले,
मुझसे नहीं, एक और पंडित जी से,
लड़ते हुए ग्राहकों के लिए,
एक दूसरे पर गुर्राते हुए,
लाल गमछे से कंधों को रगड़ते,
और जनेऊ उछालते हुए,
ग्राहक को आगे कर पंडित जी ने
जाते-जाते मुड़ कर देखा पीछे,
एक दूसरे पर मुस्कुराते हुए,
फिर राह पर अपने-अपने हो लिए |


नाव के पास तिलक वाले बाबू जी आये,
लुंगी लगाए, दिया जलाए,
खुद से नहीं दियावाले से ही जलवाए,
पुण्य में उसको भी भागीदार बनाए,
गंगा जल छिड़का उस पर, खुद पर और हम पर |
जाते-जाते मुस्कुराहटें भी खिल गईं ,
हाथ भी उठे हम अनजानों के,
फिर वह अपनी राह और हम
अपनी राह हो लिए  |

लुंगी वाले आए, टोपी लगाए,
गंगा जल से मुँह धुला, आचमन किया,
फिर जेब से यह क्या निकाला ?
जल भरी पॉलिथीन की पन्नियों में,
मुक्ति को तैयार, तैरती सिधरियाँ !
मन्नतें भी पूर्ण होंगी, आज यह पता चला,
बात की बात में दर्द भी इंसान का
छलक पड़ा,
बुरा न मानो भाई तो क्या कुछ पूछ लूं ?
कौन सी मन्नत छिपी उर आप के ?
नज़रों से नज़रें मिलीं, चार नहीं एक हुईं,
फिर दिल मिले, होठों पे मुस्कुराहटें खिलीं,
प्यार का प्रवाह ही होता रहे जल धार में,
है यही अपनी तमन्ना इंसानियत आबाद रहे |

हमने देखा – उसने देखा,
कनखियों की डोर से,
नम हो गईं आँखे, मुस्कुराहटें गायब हुईं,
फिर वह अपनी राह,
और हम अपनी राह हो लिए |

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