संतुलन
-डॉ राय साहेब पाण्डेय
रात है ढलने
वाली, जागने का वक़्त हो गया,
पर अब जग
के भी क्या,
कोई सुनने
वाला नहीं हमारा कलरव,
गायब हैं सड़कों
पर चलने वाले,
लुप्त हैं
पेड़ों के नीचे भी बैठने वाले,
यह कैसी
बयार? जो जा रही व्यर्थ है|
अभी कुछ
दिन पहले की ही तो बात थी-
चारों तरफ
थी चहल-पहल,
इन
आदमियों का भी न?
कुछ चलता नहीं पता,
कब क्या
करते हैं ?
लगता है
कुछ तो बुरा हाल है |
एक कौए ने
दूसरे से कहा –
अब हमारी
पंचायत भी,
देखने-सुनने
वाला है नहीं कोई,
कुछ दिन
पहले हम इनकी शोरगुल से थे,
और अब हैं
परेशान बिना शोरगुल के |
कुछ
चिड़ियों ने सोचा,
शायद अब
ये मनुष्य रात के वक़्त निकलते होंगे,
पर सूरज
ढलने के पहले ही अब शाम होती है,
और रातें?
वह तो अब पहले ही घिर आती हैं |
सुदूर
आसमानों में उड़ने वाले पक्षी भी,
अब हैरान
हैं, परेशान हैं,
अब किस से
स्पर्धा करते
ऊपर भी
कोई शोरगुल नहीं,
नीचे भी
सुनसान है,
और
कहीं-कहीं तो बस शमशान है |
कुछ के
दिमाग की बत्ती में आग लगी,
वह जल
उठा,
अपनों से
मुलाक़ात करने को मचल उठा,
जो दूर
जंगलों में बसेरा डाल चुके थे,
भाई-चारा ही
सही, अपनों के संग,
मिल-बैठने
और दुख-दर्द बांटने का अवसर,
आखिर
मुश्किल से नसीब हुआ था |
कुछ ने
न्योता भी दे दिया,
अपने
घोसलों को जो उजड़ गए थे,
सुधारेंगे, नया बनायेंगे,
बिना रोक-टोक
फिर से,
बसायेंगे अपना घर
और बसेरा |
हमने तो अब
तक बबूल पर घोंसले बनाये हैं,
डालियों
से लटके, हवा में लहराते हुए,
हमेशा खौफ
में कि आँधियों ने
हमारे
चूजों का क्या हाल किया होगा?
इंसानों
के पत्थरों ने घायल तो नहीं किया होगा?
बबूल के
काँटों से चलते हैं दूर,
पीपल की
हरी-भरी पत्तियों के बीच,
अब बेख़ौफ़
एक नया बसेरा बनाने,
लेकिन यह
क्या ?
अब मेरे
चूजों को कोई डर नहीं,
क्योंकि
इंसान बेबस है अकेला,
पीपलों के
तने से लिपट कर,
आँसुओं से
सराबोर, लाठी को छोड़,
एक वृद्ध
निहारता है एकटक घोंसले को |
काल का
गाल कभी सूक्ष्म, तो कभी विशाल,
कभी करता
आहत तो कभी लेता संभाल,
कैसी है
दुविधा? जो देता हमें जीवन,
जो छीन भी
लेता है हमसे जीवन,
उसे ही कहते हैं हम निर्जीव?
दौर आता
है, तो दौर जाता भी है,
हम लड़ें
या फिर रहें खामोश खड़े,
काल के चक्र
में पिसते-पिसाते,
कभी डगमगाते,
कभी लड़खडाते,
खड़े
रहेंगे, एक-एक कदम ही सही,
फिर चलेंगे
और फिर दौड़ेगे भी |
No comments:
Post a Comment