Thursday, 18 June 2020

कमीनी चवन्नी



कमीनी चवन्नी
-डॉ राय साहब पाण्डेय 
आप कह सकते हैं कि क्या चवन्नी भी कभी कमीनी हो सकती है? जी हाँ, हो सकती है | यह देने और लेने वाले की मंशा पर ही नहीं बल्कि उसकी दशा पर भी निर्भर करता है | यदि आप सोच रहे हैं कि भला कमीनेपन से रुपये-पैसे और सिक्कों का क्या लेना देना, तो आप सही सोच रहे हैं | कमीनापन तो हम इंशानों की ही बपौती है | गिरते तो सभी हैं पर गिरने की एक हद होती है | हम जिसकी बात आज करने वाले हैं, उसकी हद तो आप ही तय करेंगे |

चवन्नी बोल पड़ी | यह वाकया उन दिनों का है जब हमारी भी शान हुआ करती थी | जब हम चार हो जाती थीं और किसी के हाथ लग जाती तो हमारी शान और भी बढ़ जाती थी | हमारी खनखनाहट तो बहुतों को जेब साफ़ करने को भी उकसा देती थी | और आज तो हमारी चाहत ने हमारे चाहने वाले को इतना कमीना बना दिया कि मुझे अपने आप से ही नफरत हो गई | डूब मरने का भी मन किया, लेकिन मेरे भाग्य में ऐसा होना ही नहीं लिखा था | चवन्नी चुप हो गई | कुछ बोल ही नहीं पाई | आगे की कहानी अब मटरू की जुबानी |

हाँ, दादी पर बुढापे का असर बुरी तरह हावी हो चुका था | शुरू में किसी के सहारे और फिर बाद में लकड़ी के सहारे चल कर अपनी जगह तलाश ही लेती थी | परिवार में सब ले दे के एक पोती ही तो बची थी | बाकी  सब हैजे को भेंट चढ़ चुके थे | घर के नाम पर एक कच्ची कोठरी थी | पोती जब स्कूल चली जाती तो वह बाज़ार से मौसम के हिसाब से जामुन, बेर, आम का अमावट, अमरुद जैसे फलों को खरीद कर एक स्कूल के सामने बैठ जाती थी | इक्का-दुक्का ग्राहकों के अतिरिक्त कोई ख़ास खरीदार नहीं आते थे | बस स्कूल में रिसेस कब हो, इसका इंतजार करती रहती थी | आम, और महुआ के पत्ते बगल की पोटली में तैयार रखे रहते थे | एक पत्ते पर कितने बेर रखने हैं, वह सब हिसाब पहले से ही तैयार होता था |

समय के मुताबिक स्कूल में रिसेस हुआ | बच्चों का रेला गेट से बाहर निकला | आज पत्तों पर पांच-पांच बेर रखे हुए हैं | पांच-पांच पैसों की बौछार होने लगी | दादी की पोटली सिक्कों से भरने लगी, और देखते ही देखते सभी बेर खल्लास | दादी संतुष्ट, और बच्चों का क्या, उन्हें संतुष्ट होने में कितना वक़्त लगता है | दादी और बच्चों का यह रोज का खेल था | दादी के लिए दृष्टि बाधित होना कभी-कभी बच्चों के लिए परेशानी का कारण बन जाती थी | अक्सर बच्चे पांच पैसे की चीज के लिए पांच पैसे फुटकर ही देते थे, लेकिन हमेशा ही ऐसा हो इसकी कोई गारंटी नहीं थी | सिक्कों की पहचान करना दादी बखूबी जानती थी | सभी सिक्कों की गोलाई टटोल कर वह उसे पहचान लेती थी | अठन्नी हो या चवन्नी, पांच पैसे का सिक्का हो या दस पैसे का, हाथ में रखा नहीं कि दादी तुरंत उसका मूल्य समझ जाती थी | ज्यादातर बच्चों के पास पांच या दस पैसे के ही सिक्के होते थे, पर कभी-कभी कुछ बच्चे चवन्नी भी ले आते थे | अठन्नी का सिक्का तो बिरले ही बच्चों के पास और वह भी यदा-कदा ही दिखता था | चवन्नी का गोल होना उसकी ख़ास खासियत थी, और वही उसकी पहचान भी |

कहते हैं न कि एक मछली पूरे तालाब को गन्दा कर देती है | ठीक इसी तरह स्कूल में एक काफी सयाना बच्चा था | दादी की इन गतिविधियों से वह पूरी तरह वाकिब था | आप कहेंगे कि अरे इस सयाने का कुछ नाम भी तो होगा, तो मैं जरूर कहूँगा कि हाँ क्यों नहीं नाम तो था पर नाम का क्या? राम या कृष्ण नाम रखने से कोई राम या कृष्ण तो नहीं हो जाता ! तो चालिए इस सयाने का नाम ही ‘सयाना’ रख देते हैं | सयाना भी कभी-कभी पांच पैसा खर्च कर देता था, और जिस दिन उसने बेर या अमरुद खा लिए, पूरी क्लास को उसका यह गुणगान सुनना पड़ता था | क्लास के बच्चों में गुटबंदी करा देना, झगड़े लगा देना उसके अत्यंत प्रिय खेल थे | मजे की बात तो उस समय होती थी जब वह अपने इन गुणों का बखान स्कूल के बाद अपने संगी-साथियों से मजे ले कर किया करता था |  

‘सयाने’ के मस्तिष्क में कुछ दिनों से ‘कुछ’ चल रहा था | उसने एक जुगत निकाली | जुगत चाहे जैसी हो, मेहनत तो करनी ही पड़ती है | उसने (वजन वाले)पांच पैसे का एक सिक्का लिया और उसे घिसना शुरू किया और इतनी सफाई से घिसा कि पांच पैसे का चौकोर सिक्का चवन्नी माफिक वृत्ताकार गोलाई के रूप में निखर गया | एकदम चिकना, खुरदरेपन का नामो निशान तक नहीं | आँख बंद कर खुद भी अपनी उँगलियों को कई बार फिराने के बाद ही घिसाई के  काम को अंजाम देता था | काश, इतनी मेहनत कभी अपनी पढाई पर करता !

आज रिसेस न जाने कब का समाप्त हो चुका था | सयाने का कहीं अता-पता नहीं था | वैसे भी क्लास मिस करना उसके लिए कोई नई बात नहीं थी | सयाना घात लगाए दादी को डसने के लिए अवसर का इंतजार कर रहा था | दादी को अब यकीन हो चला था कि अब कोई गिराहक नहीं आएगा और वह अपना ताम-झाम समेटने में व्यस्त थी | तभी सयाने का आक्रमण हुआ |

“दादी, अभी तो बहुत बेर बची है, अभी क्यों जा रही हो?”, सयाने ने बड़े ही आदर भाव से पूछा |
“का करूँ बेटवा, अब तो केहू नाहीं आवत बा | बिटिया घर पर अकेले है”, दादी ने भी उसी भाव से जबाब दे दिया |  
“अच्छा तो हमहूँ के पांच पैसा क बेर देइ द, जात-जवावत”, सयाने ने वही मेहनत वाली चवन्नी हलके से दादी की हथेली पर रखते हुए कहा |

दादी ने बड़े चाव से महुए के पत्ते पर पांच के बजाय छह बेर रखे और सयाने को थमा दिया | पांच-पांच पैसे के चार सिक्के वापस किया और सामान उठा कर घर की तरफ चल दी | सयाने ने बेर खाई और परम सुख को प्राप्त हुआ | बीस पैसे मुफ्तखोरी के ऊपर से मिल गए | सयाना अपने आप को धन्य मानते हुए, अपनी अकल की दाद देते हुए ख़ुशी-ख़ुशी अकेले ही घर की तरफ रवाना हो गया |

सयाने का मनोबल सातवें आसमान पर था | पर वह सावधान था | जोश में होश खोने का यह वक़्त नहीं था | अब रोज-रोज यह कारनामा तो कर नहीं सकता था, इसलिए अपना समय मुफ्त में मिले पांच पैसे के सिक्कों को चवन्नी बनाने में लगाने लगा | जल्दी ही कई चवन्नियां उसके स्टॉक में जमा हो गईं | तीन चवन्नी चल चुकने के बाद उसके सब्र का बांध टूटने लगा | आखिर कब तक अपनी होशियारी से खुद ही खुश होता रहता | औरों से तारीफ़ मिलने की चाह किसे नहीं होती? सयाना भी मजे लेकर अपने कारनामे अपने साथियों को बताने लगा |

जल्दी ही स्कूल में उसके इन सद्गुणों का डंका पिट गया | दादी को तो इसका पता भी नहीं चलता अगर वह सौदा खरीदने बाज़ार नहीं जाती | लाठी के सहारे चल कर दादी आखिरकार  स्कूल में दाखिल हो गई | किसी का दाखिला कराने नहीं, स्कूल को आईना दिखाने | दादी की आँखों से अश्रु धारा बह रही थी | पहली बार लोगों ने अंधी आँखों को रोते हुए देखा था | विद्यालय नतमस्तक था | छात्र हैरान थे | विद्यालय प्रशासन दो दिन तक खामोश था | सयाने को कोई खबर नहीं थी | तीसरे दिन शनिवार को सभी कक्षाओं में एक नोटिस घुमाई गई | शाम के वक़्त चार बजे सभी छात्र विद्यालय के प्रांगण में एकत्र हो गए | ऐसा लग रहा था जैसे कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन होने वाला है | सयाने को सबके सामने बुलाया गया | ‘शारीरिक व्यायाम’ के प्रशिक्षक ने सबके सामने सयाने के कारनामों का गुणगान किया | अध्यापकों और छात्रों ने तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत किया |

‘शारीरिक व्यायाम’ प्रशिक्षक ने सयाने के गले में फूल-माला पहनाई | एक खाली पड़ी कुर्सी पर रखे बेंत को उठाया और दनादन सयाने पर बरसाने लगे | सयाना माई-बाप चिल्लाता रहा | ‘पांच पैसे की चवन्नी’ बनाते हो, कहते रहे और बेंत बरसाते रहे | किसी ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया | मजबूत बेंत के दो टुकड़े हो गए | सभी छात्र अवाक् थे | सयाना जमीन पर पड़ा हुआ था | स्कूल की छुट्टी की घंटी बज गई | बच्चे अपने अपने बस्ते लिए और विद्यालय गेट से निकलने लगे | बिलकुल शांत, कोई कोलाहल नहीं | कुछ बच्चे सयाने को घेर कर खड़े थे | एक ने उसका बस्ता पकड़ाया और उसके गाँव के बच्चे उसके साथ अपने घरों के लिए रवाना हो गए | थोड़ी देर मौन चलने के बाद बच्चे आपस में बात करने लगे | सयाना भी शरीक हो गया, बेशर्मी की हंसी चेहरे पर लिए | ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे कुछ हुआ ही न हो |

निर्लज्जता की भी कोई हद होती है, पर सयाने के लिए यह बिलकुल बेमतलब था | ‘मार-मार हिकना, मैं जितना का तितना’ यह कहावत शायद सयाने के लिए ही बनी होगी | कहते हैं कि सात ठग मरते हैं तो एक कमीना पैदा होता है, लेकिन यहाँ तो यह कहावत भी इंसाफ करती नहीं दिखती |
सयाने का तो कुछ नहीं बिगड़ा, चवन्नी ही कमीनी हो गई |

2 comments:

  1. यह कहानी वास्तविकता की कसौटी पर खरी उतरी है, उतर रही है और भविष्य में उतरती रहेगी. कुछ लोग तो समाज में दो नंबर के काम के लिए अपने दिमाग को हमेशा लगा ही देते हैं जो मनोवैज्ञानिक विकृति का एक स्वरूप है. उनके लिए अमीर एवं गरीब के आह एवं नुकसान का कोई मतलब नहीं होता है. "सयाना" को तो स्कूल में जो दंड मिला वह सहर्ष ही उसे सहन कर गया, अगर उसे सुधरना होता तो सार्वजनिक तौर की गयी पिटाई से शर्मशार होता लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

    "सयाना" ने अपने कुचक्र की बुद्धि से अपने को गलत काम के लिये तो जरूर तराशा लेकिन बूढ़ी दादी के विश्वास को सामाजिक एवं सार्वजनिक तौर पर बहुत कुठाराघात दिया.

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  2. The comments are far worthier than the plot of the story itself. Thanks a lot for an encouraging comment.

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