
सुनसान राहें
कुछ राहें, कुछ
गलियाँ अकसर सुनसान होती हैं,
उन पर चलने वाले भी
बिना कुछ कहे ही निकल जाते हैं,
इन राहों के साथ रिश्ता
जोड़ना आसान होता है क्या?
आखिर भीड़ से अलग चलने
को हौसले की दरकार जो है |
क्या अकेली सुनसान
राहें सचमुच मौन होती हैं,
या वहाँ केवल भीड़-भाड़
का शोर नहीं होता?
सुना है मौन की भी एक
भाषा होती है,
जो बिना कहे ही सब
कुछ स्पष्ट कह देती है |
सुनसान रास्ते और
सुनसान जिंदगियां जब मिलती होंगी
तो क्या सचमुच एक घोर
सन्नाटा होता होगा,
क्या सचमुच कभी न
टूटने वाली निस्तब्धता छा जाती होगी,
या इस घन-घोर
सन्नाटे के बीच कोई संवाद होता होगा !
सन्नाटे की आवाज
किसे सुनाई देती है?
शोर सुनने के लिए तो
कान चाहिए होते हैं
पर सन्नाटे के लिए
तो बहरों की और
कलेजे पर वार सहने वालों
की जमात चाहिए |
सोचता हूँ सुनसान
राहों पर एकाएक भीड़ आ जाए
और उसकी अनछुई धूल को
रौंद दी जाए,
फिर निकली हुई आह शोर
में तबदील हो जाए
तो शायद सन्नाटे की
वेदना शांत हो जाए?
पर ये राहें तो
सुनसान हैं, बोलेंगी कैसे?
लेकिन इन पर चलने
वाले, इनका उपभोग करने वाले
कभी-कभार ही सही,
कुछ गुनगुना दें तो शायद
ये रास्ते भी कुछ समय
के लिए ही सही गुलजार हो जाएँ |
-राय साहब पांडेय
Kya baat hai. Aise hi likhte rahiye.
ReplyDeleteAut ise bhi dekhiye www.ashishtripathi.com
Kaafi bheetar tak chaap chodti hai ye kavita
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