तनहाई की ज़िद
सांझ ढलती है, चिराग जलते हैं बिन बाती से,
रोशनी फिर भी निकलती है दिल के बुझने से,
कोई आए न आए पर क़दमों की धमक होती है,
आह निकले न निकले, फिर भी कसक होती है |
कोई होगा न यहाँ फिर भी ये आहट क्यों है ,
घनघोर अँधेरा है फिर भी ये परछाईं क्यों है |
मुझे मालूम है कि ये तो बस मन का वहम है,
पर इस दिल को क्या कहें, क्यों इसको भरम है|
मन के उड़ने से भी खामोश चीख क्यों निकली?
जबकि कोई दर्द नहीं पर ये हमने क्यों सुन ली?
अब तो बेसुध हूँ मैं, कैसे लूँ सुध उनके सुध की,
बात कैसे कहूँ, क्योंकि ए ज़िद तो है तनहाई की|
-राय साहब

आपके कवि हृदय की आहट और धमक सुन के अच्छा लगा।👌👌💐💐
ReplyDeleteBeautiful
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