Wednesday, 19 April 2017

बनारस के घाटों का एक और पहलू









ऑन द रॉंग साइड ऑफ़ द घाट्स

बनारस में गंगा के घाटों पर घूमने का आनंद ही अनूठा होता है | अस्सी घाट पर आयोजित “सुबहे बनारस” का नित्य का कार्यक्रम अपने आप में तरोताजा करने वाला होता है, ख़ासकर संगीत का | पुरानी यादों को ताजा करने का दिल हुआ और इस बार उत्तर की तरफ पक्के घाटों पर न जाकर सोचा दक्षिण की तरफ कच्चे घाटों का लुत्फ लिया जाए, जहाँ सत्तर के दशक में फूलों की खेती हुआ करती थी, पानी बिलकुल साफ़ होता था, स्नान करने में मजा आ जाता था | जैसे ही अस्सी घाट से संत रविदास पार्क के घाटों की ओर बढ़ा, कुछ लोग पंक्तिबद्ध होकर बैठे मिले | यकीन नहीं हो रहा था कि ये लोग सचमुच शौच क्रिया में तल्लीन थे | इन्हें  नज़र अंदाज़ करते हुए हिम्मत करके आगे बढ़ा | रविदास पार्क के पक्के घाटों पर पहुँचा, वहाँ तीन विदेशी पर्यटक भ्रमण कर रहे थे | इस घाट पर बने यज्ञशाला जैसे भवन में बैठे कुछ बनारसी लोगों ने उत्सुकता बस इनसे बात करनी चाही | तीनों पर्यटकों में सबसे अधिक उम्र वाला पर्यटक, जो एक काले लम्बे कुर्ते में था, लोगों को हाथ जोड़ कर अभिवादन किया और मुस्करा कर आगे बढ़ गया | 

बहार से देखने पर रविदास पार्क एक विशाल और भव्य पार्क प्रतीत हो रहा था | पहले यहाँ कभी गया नहीं था अतः इसे अंदर से देखने की उत्सुकता हुई जागृत हुई | प्रवेश द्वार पर पहुँचने पर ज्ञात हुआ कि पार्क सात बजे ही खुलेगा | मैंने अपनी जिज्ञासा को विराम दिया और पुनः कच्चे घाटों की और लौट पड़ा | अस्सी नाले को पार करते हुए नगवा घाट पर, जहाँ नाले का पानी गंगाजल में विलीन होकर पवित्र हो जाता है, पहुँच गया | यहाँ का नज़ारा तो अद्भुत था | पक्के नाले की आड़ में बैठे एक सज्जन गंगा को निहारते हुए स्वयं को हल्का कर रहे थे | काफी देर तक मैं सोचता रहा कि यह व्यक्ति कब उठेगा, लेकिन आस-पास बैठे सह शौच-वन्धुओं से बेखबर बैठा ही रहा | इस बीच शौच करने वालों की कई खेप आई और निवृत्त हो कर चली भी गई | एक परिवार की तीन पुश्तें भी आकर चली गई- इनमें दो छोटे बच्चे भी शामिल थे, जो बड़ों के संरक्षण और निगरानी में शौच कर्म कर रहे थे |

मैं सोचने लगा आखिर ये कौन लोग हैं, क्यों स्वच्छ भारत के अभियान का हिस्सा नहीं बन पा रहे हैं? इनकी कुछ मजबूरियाँ हो सकती हैं | मुझे आश्चर्य हुआ कि ये लोग पार्क के पास, इनके घरों के समीप बने शौचालयों का इस्तेमाल नहीं करते | गंगा के किनारे शौच करते हुए नदी को निहारने की लालसा शायद इनकी दिनचर्या में इस तरह शुमार हो गयी है जिसका लोभ ये लोग छोड़ नहीं पा रहे हैं | पक्के घाटों पर इक्का-दुक्का लोग पेशाब करते हुए दिख जाते हैं लेकिन इन कच्चे घाटों पर शौच करना लोगों की न छूटने वाली आदत बन गई है | बनारस का शासन-प्रशासन कड़ाई से पेश आकर ही काशी के इस प्रभाग को संभवतः इस अंधकार से निजात दिला सकता है |

नाले और नदी के संगम के समीप ही कुछ लोग स्नान कर रहे थे | उनमें से एक व्यक्ति नहाते हुए अपने दाँतों से शैम्पू का छोटा पाउच काट कर अपने बदन को मल-मल कर नहा रहा था | नहाते समय “गंगा बड़ी गोदावरी तीरथ बड़ा प्रयाग, सबसे बड़ी अयोध्या जहाँ राम लिए अवतार” गुनगुना रहा था | उसके तीन साथी पहले ही स्नान कर तरो-ताजा हो गए थे और चीलम तैयार करने में लग गए थे | श्री हनुमान चालीसा की कुछ पंक्तियों का उच्चारण करने के बाद यह व्यक्ति भी शर्ट-पैंट पहन बाकी साथियों में शामिल हो गया | चीलम तैयार थी | पहला नंबर इस शर्ट-पैंट वाले का ही था | जैसे ही इसने चीलम चढ़ाई, उसे खाँसी आने लगी | यह देख टीम का सबसे कम उम्र वाला सदस्य मेरी तरफ देखा और मुस्कराया | शायद यह कहना चाह रहा हो कि अरे यह व्यक्ति इस फन में नौसिखिया है | चारों ने गांजे का कश लिया और चलते बने | मैं खड़े-खड़े यह देख कर हैरान था कि स्नान-ध्यान और पूजा-पाठ के तुरंत बाद चीलम की भी आवश्यकता पड़ सकती है?  

अब मैं आगे बढ़ा उन गेंदे के फूलों की लालसा में | पर आगे रास्ता दुर्गम था | ऐसा नहीं कि यहाँ ऐसी कोई कठिन चढ़ाई है या रास्ता पथरीला, जंगली या कंटीला है | आप शायद समझ गए होंगे कि मनुष्य के मल-मूत्र को निहारे बिना यहाँ पैर रखना मुश्किल था | नीचे-नीचे जाना कठिन हो रहा था अतः मैं ऊपर चढ़ गया | गाय-भैंस के तबेलों को पार करता हुआ श्री श्री १०८ श्री करतलिया  बाबा धाम होते हुए अघोर फाउंडेशन पहुँच गया | रास्ते में चोरी-छुपे कुछ घर भी बन रहे थे, नदी से पच्चीस-तीस मीटर की दूरी पर ही और प्राधिकरण के सारे नियमों को ताक पर रख कर | इस रास्ते में अघोर फाउंडेशन ही एकमात्र ऐसी जगह मिली जहाँ कोई भी व्यक्ति शांति से दस-पाँच मिनट बैठ सकता है |

यदि आप किसी से इस बात का जिक्र करेंगे तो प्रायः लोग कहेंगे कि अरे यही तो बनारस का अल्हड़पन है | इसमें नया क्या है? इतना चलने के बाद मैं समझ गया था, “गंगा तो माँ है, माँ के आँचल को मैला करने में कैसा संकोच?”  आप जब भी बनारस आना, अस्सी घाट से दक्षिण की और नदी के किनारे घूमने के लिए अपने मन को पूरा पक्का कर के ही आना क्योंकि घाट पक्के नहीं हैं इसलिए मन का पक्का होना जरूरी होगा | 
-राय साहब 

2 comments:

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  2. बहुत ही आनंददायक वर्णन किया आपने, प्रातः कालीन घाट भ्रमण के नजारे को बेबाकी और मासूमियत से स्वंकेत करते हुए।। बड़ा ही विनोदी रुख आपकी भाषा ने अख्तियार किया- जब स्वच्छ भारत के नग्न रूप को सुंदर मखमली भाषा में लपेट कर कहा कि "पक्के नाले की आड़ में बैठे एक सज्जन गंगा को निहारते हुए स्वयं को हल्का कर रहे थे | काफी देर तक मैं सोचता रहा कि यह व्यक्ति कब उठेगा, लेकिन आस-पास बैठे सह शौच-वन्धुओं से बेखबर बैठा ही रहा | इस बीच शौच करने वालों की कई खेप आई और निवृत्त हो कर चली भी गई |"
    धीमी सी हंसी मन को गुदगुदा गयी। राय साहब आपकी कथा शैली बड़ी रोचक है। बनारसी तबियत के लोगों को जरूर स्पर्श करेगी। ओर सुंदर प्रतिसाद प्राप्त करेगी। बहुत सी शुभकामनाएं!!��������

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