Saturday, 29 December 2018

दर्पण क्यों टूटा ?




दर्पण क्यों टूटा?


- राय साहब पाण्डेय 
माँ ने शिद्दत से ही सही,
फिर भी शौक से बेटी को दुल्हन बनाया,
विदाई में फ्रेम से मढ़ा हुआ,
फूल-पत्तियों से कढ़ा हुआ,
टीने के बक्से में साया और साड़ी में लपेट कर,
टूटे न इसलिए सहेज कर,
श्रृंगार के एक दर्पण को पहले खुद सीने से लगाया,
उसे ही बेटी का सुहाग मान, गर्म आंसुओं से पिघलाया,
कोई देख न ले, बेटी को बुलाया,
दर्पण को इंगित कर, खुद करके बंद नेत्र, बेटी को दिखाया |

हास में, उपहास में, आस की प्यास में,
चाहत की चाह में, कनखियों की निगाह में,
दर्पण को साफ़ कर, स्वयं को निहार कर,
आँखों में कल के लिए सपने सजाकर,
चुटकियों से माँग को सीधी बनाकर,
सामने जब देखा तो हथेलियों से मुख को छिपा कर,
लाज से शरमा कर, मुड़ती हुई भाग कर,
लड़खड़ाती संभल कर,
जब गिरती तो पाती पिया के हाथ माथ पर |

चुन्नू और मुन्नू की किलकारियों के गूँजे स्वर,
अपने, बेगानों के उलाहनों से पकते कर्ण,
वक़्त कब फुर्र हुआ, आज कब लुप्त हुआ,
भविष्य के तब्दील होते आज का पता न चला,
कल की सुखद आस, झपट गई सख्य साथ,
दुधमुहों की जठर-आग, कर गई बेवश आज,
दुल्हन अब मजदूरिन में कैसे बदल गई?  

स्वामी की राह को निहारती पथराई आँख,
दर्पण में झाँक-झाँक खुद ही मुरझाई आँख,
आँचल से बार-बार दर्पण क्यों साफ़ करे?
सुघर और सुभग रूप अपरिचित क्यों हो चले?
नेत्रों के रक्त तार, अधरों की लालिमा,
कालिमा में कब और कैसे बदल गए?
शिशु की रुदन सुन हो गई तन्द्रा भंग,
ठोकर खा दर्पण भी सह न सका खुद का भार,
सामने ही गिर पड़ा बीचो-बीच चटक कर |

चटके हुए आईने में देख कर सिन्दूरी माँग,
माँग क्यों टेढ़ी हुई?
सालने लगा क्यों दिल को, आया पी का ख़याल,
आईने के टुकड़ों को जल्दी में उठाया,
रहा होश न हवास, कब हो गई लहू-लुहान |

माँ का दिया एक दर्पण ही तो था,
ममता की निशानी वह, प्रीत का सहचर भी,
कैसे फेंक देती?
एक बड़े टुकड़े को संभाल कर रख लिया,
चुटकियाँ अब कांपती थीं, आईने का काम बढ़ गया,
धार को सिन्दूर की डिबिया में डुबाया,
माँग को फिर एक बार में ही सीधी सजाया |

मन को तसल्ली हुई, चलो पिया नहीं रूठा,
पर ख़यालों की दुनियाँ में, ख़याल हुआ झूठा,
मजदूरिन को काम मिले, इसकी गारंटी क्या?
होने लगे फांके अब, फिक्र हुई औलादों की,
मजदूरिन से बनते भिखारिन न देर लगी |

पुनवासिया की जोरू अब गली-गली घूमती,
एक की ऊँगली पकड़, दूसरे से गोंद भरती,
किसी के आह का तो किसी के धिक्कार का,
किसी की फब्तियों का तो किसी की फटकार का
पात्र बनती, हंसी और ठिठोली का दंश सहती,
पालती है बच्चों को, पर नाम उसका नहीं |

इन्तजार ख़त्म हुआ, स्वामी से मिलन की
अब आस जागी, टूटे हुए दर्पण में माँ की  
परछाईं देख आँख भी भर आई,
माँग को सीधी सजाकर, हथेलियों से बंद आँखों
को छुपा कर, टकटकी मन की लगाकर,
बुदबुदाती याचना में जाप कर हरिनाम का |

दोनों की आँख मिली एक क्षण को,
फेर ली निगाह, क्यों इन्तजार व्यर्थ हुआ?
मैंने क्या गुनाह किया ? तुम गुनाहगार क्यूँ ?
कौन सा है लाईलाज रोग पाला ?
आँख तो पथरा गयी थी,
तन-मन भी पथरा गया,
फुसफुसाहटों के वार अब चुभने लगे,
पगली है विधवा तो कब की हुई थी,
पर आज बस उजागर हुआ |
  
खटिया के सिरहाने बैठ,
निस्तब्ध मन सोचने लगा,
दर्पण क्यों टूटा ? माँग तो सीधी सजाई,
पर देव मेरा क्यों रूठा ?
निर्झरो से बहने लगी अविरल बह अश्रु धारा,
माथ का सिन्दूर नहीं, क्या करूँ इस देह का,
टूटा हुआ दर्पण फिर याद आया,
एक नहीं एक साथ अब दो चिताएं जल उठीं |












     










Sunday, 2 December 2018

वृद्ध की दुबिधा




     वृद्ध की दुबिधा
           

सांझ की दुपहरी हो या दोपहर की सांझ,
आँखों में झांकते अनकहे ख़यालों की बात,
मन में लिए आशंका उदासी का प्रतिबिम्ब,
कल की कोई परवाह नहीं आज की है बात |

डर लगता नहीं रात के अंधेरों से बेवजह,
बेगानों का हो मरहम, या अपनों की हो दुत्कार,
बेबस तो कर जाती हैं उजालों की परछाइयाँ,
बेनकाब होती है डंक सनी मन की मधुमक्खियाँ |

बंधनों में जकड़ित रूह, चाहतों की चाह बाकी,
उलझनों में उलझे मन को सुलझने की प्यास बाकी,
तिरष्कृत निगाहों से कूक भरी तामसी मृदुल बात,
असह्य होती सख्त पीड़ा, सहता क्यों शिथिल गात?

कर्ण-हीन, नेत्रहीन बोझ बन काँपते हैं खुद के पाँव,
किस पे करूँ भरोसा आज, कल की करूँ किससे आस?
देह-हीन तन-मन को, ज्योति की हो क्यों पुकार?
मुक्त हो उड़ जाएगा कल, बे-पर ही मालिक के द्वार |


                                                                 - -राय साहब पाण्डेय


Friday, 30 November 2018

अनुपम असम -बिहू


बिहू 
-राय साहब पाण्डेय
रंगाली बिहू की एक झांकी 


मटरू जब पहली बार न्यू बोंगाईगाँव  स्टेशन पर पहुँचे तो वहाँ का नज़ारा कुछ अलग सा दिखा | उस समय वहाँ से आगे जाने के लिए छोटी लाइन ही थी | सभी यात्रियों को अपना-अपना सामान लेकर दूसरे प्लेटफार्म पर खड़ी गाड़ी में पुनः स्थापित होना था | मटरू को इसकी कोई चिंता नहीं थी, अब यह काम उनके लिए उनके नए दोस्त ही ख़ुशी-ख़ुशी कर रहे थे | वैसे भी उनके पास कोई सामान तो था नहीं, और न ही आरक्षण पाने की जद्दोजहद | बड़ी लाइन से छोटी लाइन पर जाते समय मटरू ने देखा कि महिलाओं और पुरुषों का एक ग्रुप, जिसमे छोटी लड़कियों के साथ कुछ वयस्क और अधेड़ उम्र की महिलाएं और पुरुष भी शामिल थे, विशेष असमियाँ परिधान में सजे-संवरे ढोलक के थाप पर नाच रहे थे | पुरुष बीच-बीच में एक अलग तरह की आवाज भी निकाल रहे थे | तुरही वाला पुरुष तो ऐसा व्यस्त था कि उसे कुछ होश ही न हो | सुदूर गाँव-जेवार से पहली बार बाहर निकले मटरू के लिए यह एक अनोखा, अद्भुत और अत्यंत मनोरम दृश्य था | मटरू की नजरें जैसे हटने का नाम नहीं ले रही थीं | उन्हें लगा जैसे यही उनकी मंजिल हो | उनके सहयात्रियों ने लगभग झकझोरते हुए कहा, ‘क्या मटरू जी, यहीं बसने का इरादा है?” उनकी तन्द्रा भंग हुई | अलसाए से मटरू साथियों के साथ चल दिए | छोटी लाइन की इस गाड़ी के सामान्य डिब्बे में इतनी आपाधापी नहीं थी | लोग अपने सहयात्रियों के लिए आसानी से खिसक कर सिकुड़ जा रहे थे | घर से दूर, परिवार छोड़ कर जा रहे इन यात्रियों में लड़ने-झगड़ने के लिए न कोई चाहत थी और न ही आवश्यकता | आखिर अपना वतन छोड़ परदेश कौन जाना चाहता है? सबकी अपनी-अपनी मजबूरियाँ थी | परिवार का भरण-पोषण ही मंजिल और उद्देश्य था | उनकी निर्धनता ही उनके पलायन का एकमात्र कारण था | आखिरकार संपन्न घराने का कोई व्यक्ति मेहनत मजदूरी करने बाहर क्यों जाएगा? यह बात जुदा है कि अपना धर-बार छोड़ जो बाहर निकाल गया, आज वह चार पैसे का मालिक हो गया और जो संपन्न था, शराब और दूसरी लतों का शिकार बन कंगाली के कगार पर पहुँच गया |

साथियों के बीच अन्यमनस्क बैठे मटरू पर सबकी निगाहें थी | कुछ विनोदी स्वभाव के पुरुष भी आस-पास बैठे हुए थे | उनमे से किसी ने मुसुराते हुए टोंका, “लगत बा भैया जी के भाभी याद आवतानी |” किसी अन्य ने फिर चुटकी ली, “नाहीं भैया, ई बात नइखे | ई भैया जी न ऊ नचनियन के बड़ा ध्यान से टुकुर-टुकुर निहारत रहलेन ह, शायद ओन्हनै इयाद आवतानी |” आस-पास के सभी मुसाफिर ठहाका लगाने लगे | मटरू भी अब मुस्कुराए बिना नहीं रह सके | इन सबके मध्य अब तक चुपचाप बैठे एक असमिया मानुष भी मुस्कुरा पड़े | अपना नाम अमित बोरा बताते हुए अपना परिचय दिया और यह भी बताया कि पेशे से वे एक शिक्षक हैं और सामाजिक विषयों में उनकी रुचि रहती है | मटरू ने उनकी तरफ कृतज्ञता का भाव दिखाते हुए हाथ जोड़ कर उनका अभिवादन किया | थोड़ी देर के लिए शांति छा गई |

लम्बी यात्रा में लोग बहुत देर तक चुपचाप बैठे नहीं रह सकते | शांति भंग करते हुए मटरू के साथ बैठा यात्री बोरा जी से मुखातिब हुआ, “अच्छा बोरा जी आप तो असम के ही रहने वाले हैं, आप के पुरखे भी सदियों से यहाँ रहते रहे हैं, आप से अच्छा इस असमिया डांस के बारे में भला और कौन बता सकता है? बोरा जी सोचने लगे और फिर मौन तोड़ते हुए कहने लगे, “आप लोग जिस डांस का जिक्र कर रहे हैं वह असम की एक लोक नृत्य की परंपरा में आता है और जिसे हम लोग बिहू नृत्य कहते हैं | लोक नृत्यों की विशेषता है कि बहुत थोड़े या नाम-मात्र के अभ्यास से ही इसे कोई भी कर सकता है | मुस्कुराते हुए बोरा जी ने मटरू के पास बैठे यात्री को ही खड़े होने के लिए कहा | फिर दोनों हाथों को फ़ैलाने के लिए और फिर कमर पर रखने के लिए कहा | इसके बाद दाएं या बाएं झुक कर घूम जाने के लिए कहा और फिर हँसते हुए बताया कि यही बिहू डांस है | साथ बैठे सभी यात्रियों ने एक जोरदार ठहाका लगाया |

बोरा जी एक बार फिर से मुखातिब हुए, पर इस बार गंभीर होकर | बोले, “बिहू असम प्रदेश का एक मुख्य त्यौहार है, जिसे बिहू के नाम से जाना जाता है | असम में तीन अवसरों पर बिहू त्यौहार मनाया जाता है और ये सभी किसी न किसी प्रकार से प्रकृति से ही जुड़े हुए हैं | पहला और मुख्य बिहू रंगाली या बोहाग (बैसाख) बिहू है, जो अभी आप लोग देख कर आये हैं | रंगाली बिहू एक रंगीला, हंसी-ख़ुशी बांटने वाला, हर्ष-उल्लास के साथ नए वर्ष का स्वागत करने वाला वसंतोत्सव है | रंगाली बिहू देश और विदेश के अनेक त्योहारों के साथ सन्निपतित होता है | पंजाब का बैसाखी, कश्मीर का ट्यूलिप फेस्टिवल, मेघालय की प्रमुख जनजाति खासी का ‘शाद सुक माइनसिएम’, तमिलनाडु का ‘चिथिराई’, केरल का कद्म्म्निता, चाइनीज नव-वर्ष तथा थाईलैंड का पोई-संग्कें आदि प्रमुख हैं | इन सभी त्योहारों का जुड़ाव किसी न किसी रूप में प्रकृति की निराली छटा, कला, सौंदर्य, संस्कृति एवं कृषि से ही है | दूसरा कंगाली या काती (कार्तिक) बिहू अक्टूबर महीने में आता है और तीसरा यानी भोगली या माघ बिहू जनवरी महीने में पड़ता है | बोहाग बिहू फसल बोने ( विशेष रूप से धान की रोपाई ) से, काती बिहू फसल की सुरक्षा और पूजा से तथा माघ बिहू फसल की कटाई से सम्बंधित हैं |    

बिहू का जो आधुनिक रूप अब प्रचलित है, वस्तुतः वह विविध संस्कृतियों के समन्वय और मेल-जोल के परिणाम स्वरुप विकसित हुआ है | इसमें आस्ट्रोएशियाटिक, टिबेटो-बर्मन, आर्यन और टाई-शान प्रजातियों का योगदान प्रमुख है | ऐसा माना जाता है कि बिहू शब्द की व्युत्पत्ति देउरी जुबान के बिसू शब्द से हुई है | देउरी मूलतः बोडो-कचारी जनजाति द्वारा बोली जाने वाली जुबान थी | ऊपरी असम की सोनोवाल, कचारी, शुटिया, ठेंगल-कचारी, मोरन, मोटोक, कईबारटा, खासी और जयंतिया इत्यादि जन-जातीय समुदाय बिहू को इस रूप में मनाते थे | बोडो लोग बिहू को बैसागू और दिमासस, तिवा. और राभा जन-जातीय समुदाय इसे बुशु,पिसू या डूमसी के नाम से मनाते हैं |

बिहू परम्परा का प्रथम सन्दर्भ देवधानी बुरांजी (इतिहास) में मिलता है | इसके अनुसार चुटिया राज्य की राजधानी, सदिया पर बिहू के प्रथम दिन ही सन् 1523 में अह्मों द्वारा अचानक उस समय आक्रमण हुआ जब लोग बिहू उत्सव मनाने में मग्न थे | इससे काफी हद तक इस बात को बल मिलता है कि बिहू का मूल(ओरिजिन) सादियाल कचारी और मूल ऑस्ट्रिक समुदायों की परम्पराओं में निहित है | बिहू नृत्य का आधुनिक स्वरुप ढकुआखाना, लखीमपुर के फाट बिहू नृत्य से उत्पन्न हुआ प्रतीत होता है, जो मिशिंग्स, कईबार्टा और देउरी समुदायों की परम्परों में मिलता है | फाट बिहू नृत्य के कलकारों को अहोम रजा रूद्र सिंहा के शाही रंगभूमि ‘रंग घर’ में नृत्य करने के लिए सन् 1694 में आमंत्रित किया गया था | अह्मों के हाथों मात खाने के बाद बचे-खुचे सादियाल-कचारी लोग राज्य के अन्य भागों जैसे हर्थी-सपोरी, ढकुआखाना आदि स्थानों पर विस्थापित हो गए | ये लोग अपने साथ देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी ले कर आये, जो बाद में इनके द्वारा स्थापित देवालयों में प्रतिष्ठित कर दी गईं | इनमे से एक प्रमुख मंदिर ‘हर्थी देवलोई’ भी है | उन्नीसवीं सदी के आते-आते बिहू का आधुनिक रूप पूरी तरह विकसित हो चुका था, जिसे यहाँ के स्थानीय समुदायों के अतिरिक्त अन्य समुदाय के लोग, असमियाँ ब्राह्मण, कायस्थ एवं उच्च कुलीन अभिजात्य वर्गों ने भी अंगीकार कर लिया |

बोरा जी द्वारा विस्तार से बिहू नृत्य के इतिहास के बारे में जान कर आस-पास के सहयात्री प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके | कुछ लोग जम्हाई भी लेने लगे थे | मटरू, जो कि पहली बार इन परम्पराओं और रीति-रिवाजों से गुजरने वाले थे, बड़ी दिलचस्पी से सब सुन रहे थे | उनमे और अधिक जान्ने की उत्सुकता विद्यमान लग रही थी | इस बीच स्टेशन आ गया और चाय वाले ने पुकार लगाई | बोरा जी ने अपने साथ बैठे यात्रियों को चाय पिलाई | बोरा जी अब तीनों बिहू के बारे में और उनके मनाने के तरीकों पर भी बताना प्रारंभ किया |

बोहाग (बैसाख) बिहू  
बैसाख बिहू असमियाँ कैलेंडर के मुताबिक बोहाग माह में ( मध्य अप्रैल ) में मनाया जाता है |  तीनों बिहू में यह बिहू सबसे रंग-विरंगा होने के कारण वसंतोत्सव के रूप में मनाया जाता है और इसी लिए इसका नाम भी रंगाली बिहू है | सात दिनों तक अलग-अलग रीति-रिवाजों में मनाया जाने वाला यह त्यौहार लोगों के जोश का भी परिचायक है | इस बिहू से खेती के सीजन का भी आगाज होता है | किसान धान की फसल के लिए अपने खेतों को तैयार करते हैं | महिलायें स्वादिष्ट व्यंजनों के साथ असम का विशेष व्यंजन चावल का ‘पीठा’ भी बनाती हैं | बिहू का प्रथम दिन ( बैसाख शुरू होने के पहले का दिन) ‘गोरु बिहू’ के रूप में मनाया जाता है, जिसमे गायों को नदियों में नहलाया-धुलाया जाता है | नहलाने के लिए रात में ही भिगो कर रखी गई कलई दाल और कच्ची हल्दी का इस्तेमाल किया जाता है | उसके बाद वहीं पर उन्हें लौकी, बैंगन आदि खिलाया जाता है | माना जाता है कि ऐसा करने से साल भर गाएं कुशलपूर्वक रहती हैं | शाम के समय जहां गाय रखी जाती हैं, वहां गाय को नई रस्सी से बांधा जाता है और नाना तरह के औषधि वाले पेड़-पौधों की टहनियों को जला कर मच्छर-मखियों को भगाया जाता है | इस दिन लोग दिन में केवल दही-चिवड़ा खाते हैं |
बिहू का दूसरा दिन (15 अप्रैल) मानू (मनुष्य) बिहू और नव वर्ष के पहले दिन के रूप में भी मनाया जाता है | हर व्यक्ति कच्ची हल्दी के जल से स्नान कर नए कपड़े पहनता है | पूजा-पाठ करने के बाद ही अन्य पकवानों के साथ पीठ-लड्डू का भोग करते हैं | सात दिन के अन्दर 101 प्रकार की हरी पत्तियों वाला साग खाने का भी रिवाज प्रचलित है | परिवार के बड़े-बुजुर्गों का नया वस्र और गमछो देकर सम्मान किया जाता है | संस्कृत के मन्त्रों को ‘नाहर’ पत्तों पर लिख कर छुपाने की भी प्रथा है | ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से भगवान् शिव प्रकृति की आपदाओं से संरक्षण प्रदान करते हैं | बिहू से सम्बद्ध गीत ‘बिहू गीत’ के रूप में जाने जाते हैं | इन गीतों के रूप, लय एवं ध्वनि में अलग-अलग क्षेत्रों के मुताबिक अनेक विभिन्नताएं पाई जाती है | इस बिहू के अन्य महत्व भी हैं | इस  समय धरती पर बारिश की पहली बूंदें पड़ती हैं और पृथ्वी नए रूप में सजती है | जीव-जंतु भी नई जिन्दगी की शुरुवात करते हैं | इस बिहू के अवसर पर संक्रांति के दिन से बिहू डांस नाचते हैं | 20-25 युवक-युवतियों की मण्डली ढोल, पेपा, गगना, ताल, एवं बांसुरी के साथ अपने पारंपरिक वस्त्रों में सज-धज कर बिहू नृत्य करते हैं | बिहू के दौरान ही युवक एवं युवतियां अपने मनपसंद जीवन साथी का चुनाव करते हैं | इसलिए असम में बैसाख महीने में ज्यादातर विवाह संपन्न होते हैं | बिहू गीत की एक बानगी:
फूल फुलिसे बोक्षोनतोर
तुमि जन्मोनी बोहागोर
प्रतितु बोहागोटेस मोरोम
जासु तुमक अंतरोर....फूल फुलिसे |
गुन गुनकोई भुमुरा फुले फुले पोरिसे
थुम्पा थुम्पा नाहोर टगोर डाल भोरी फुलिसे |
जन्मोनी तुमई मूर कामोना बाक्षोना.....
तुमई मूर जीवनोर बाक्षोना.........
तुमई मूर बुकुरे कोली .............  |
गांवो में विभिन्न तरह के खेल तमाशों का आयोजन भी होता है | एक अन्य मान्यता के अनुसार ढोल की आवाज से आकाश में बदल आ जाते हैं और बारिश होने लगती है और अच्छी फसल होने की सम्भावना बढ़ जाती है |
बिहू का तीसरा दिन गोसाई (देव) बिहू के नाम से मनाते हैं | घर की साफ़-सफाई के पश्चात देवताओं की मूर्तियों की पूजा की जाती है, इस विशवास के साथ कि आने वाला नया साल बेहद खुशहाल रहेगा |
‘राति’ बिहू चैत्र मास की अंतिम रात्रि को मनाया जाता है | इस अवसर पर स्थानीय महिलाएं एक खुले खेत में एकत्र होकर मशाल जलाती हैं और पुरुष वर्ग बांस और भैंस की सींग से बने वाद्य यंतों को बजाते हैं | ‘कुटुम’ बिहू के दिन लोग अपने सगे-सम्बन्धियों के घर जाते हैं और एक साथ खाना-पीना करते हैं | ‘सनेही’ बिहू मुख्यतः प्रेमी युगलों के लिए खास दिन होता है | यह दिन प्रेम और प्रजनन का प्रतीक है | युवक-युवतियां आपस में मिलते हैं और उपहारों का आदान-प्रद्दन करते हैं | इस विशेष उपहार को बिहुवान कहते हैं | बिहू के अंतिम दिन को ‘मेला’ बिहू के नाम से जानते हैं | पुराने जमाने में राजा अपनी प्रजा के साथ मेले में शरीक होता था | आज भी मेलों का आयोजन होता है और बड़ी संख्या में लोग इसमें बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं |



काति (कार्तिक) बिहू

यह साल का दूसरा बिहू है और कार्तिक (मध्य अक्टूबर) महीने में आता है | यह ‘कंगाली’ बिहू के नाम से अधिक प्रसिद्ध है | इन दिनों किसान की फसल खेत में होती है और वर्धिष्णु (बढ़ने वाली) अवस्था में होती है | घरों में अन्न की कमी हो जाती थी, शायद इसी लिए इसे कंगाली बिहू कहा जाता है | लोगों में फसल को लेकर मन में एक विषादपूर्ण स्थिति रहती है | धान की फसल में कीड़े न लगें, इसके लिए घर के आँगन में तुलसी का पौधा लगा कर पूजा की जाती है और प्रसाद चढ़ा कर दीपक जलाया जाता है ताकि खेती ठीक-ठाक रहे | बढ़ते हुए धान के पौधों को कीड़ों-मकोड़ों और बुरी नज़र से बचाने के लिए ‘रोवा-खोवा’ मन्त्र का उच्चारण किया जाता है | शाम के वक़्त पशुओं को चावल से बना पीठा खिलाया जाता है | ‘बोडो’ जन-जाति के लोग ‘सिजू’ वृक्ष के नीचे दिया जलाते हैं | इस बिहू के दिन एक लम्बे बांस के ऊपरी छोर पर 'आकाशदीप' दिया जलाया जाता है | ऐसी मान्यता है कि इससे मृत आत्माओं को स्वर्ग का रास्ता दिख जाता है | इस प्रथा का प्रचलन कई अन्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में भी पाया जाता है |     
भोगली (माघ) बिहू 

भोगाली (माघ) बिहू की एक झांकी
मध्य जनवरी या माघ महीने की संक्रांति के पहले दिन माघ या भोगाली बिहू मनाया जाता है | इस बिहू का नाम भोग शब्द से बना हुआ है इस कारण इसे भोगाली बिहू कहा जाता है | यह समय असम और पूर्वोत्तर क्षेत्रों में धान की कटाई का होता है | किसान धन-धान्य से भरपूर होता है | अनेक प्रकार के व्यंजन पकाए जाते हैं, जिनमे चावल प्रमुख होता है | इसके अतिरिक्त तिल, नारियल और गन्ना भी इन व्यंजनों का मुख्य भाग होता है | फसल घर में होती है और किसान कृषि-कार्य से मुक्त | लोग रिश्तेदारों के यहाँ जाते है | इस दिन पूरे भारत वर्ष में संक्रांति, खिचड़ी, लोहड़ी, पोंगल आदि त्यौहार भी धूम-धाम से मनाया जाता है | माघ बिहू की पूर्व संध्या (उरुका) पर पुरुष वर्ग (विशेष कर युवा वर्ग) किसी नदी के किनारे खेत में एक अस्थायी झोंपड़ी बना लेते हैं | झोंपड़ी प्रधानतः पुवाल से से बनाई जाती है, जिसे ‘भेलाघर’ कहते हैं | लकड़ी जला कर भोजन बनाया जाता है | हर तरफ सामुदायिक भोज का बोलबाला होता है | आपस में लोग मिठाईयों का आदान-प्रदान भी करते हैं | ‘मेजी’ (अलाव या तपनी) जला कर उरुका की पूरी रात लोग उसके चारों तरफ बिहू गीतों के थाप पर नृत्य करते हैं | असमियाँ लोगों का प्रमुख वाद्य ढोल इस गीत-संगीत का अभिन्न हिस्सा होता है | कुछ नव-युवक रात का फायदा उठा कर इधर-उधर से लकड़ी और सब्जी भी चुरा लेते हैं और इस कार्य में सफल होने पर अति प्रसन्न होते हैं | सुबह होने पर नदी, तालाब या किसी कुंड में स्नान कर मुख्य ‘मेजी’ के चारों ओर एकत्र हो जाते हैं | प्रज्वलित अग्नि में ‘पीठा’ और सुपारी अर्पण करते हैं | अग्नि देव की पूजा की जाती है और इस रश्म के साथ ही फसल के इस मौसम का तिरोधान किया जाता है | अपने-अपने घरों को लौटते हुए अधजले लकड़ी के लट्ठे भी साथ लाते हैं और सुखद परिणाम की अपेक्षा में फलदार वृक्षों के बीच रख देते हैं | दिन में अनेक प्रकार के खेलों जैसे साड़ों, मुर्गों, और बुलबुल की लड़ाई इत्यादि का आनन्द लेते हैं |
एक लम्बी साँस लेते हुए बोरा जी संक्षिप्त में अपना बिहू वृत्तांत समाप्त करते हैं | उनके सारे सहयात्री उनकी तरफ कृतज्ञ भाव से आँखें फाड़कर देखने लगे | कोई उनकी विद्वता तो कोई उनकी वाक्पटुता तो कोई उनकी इस कहानी शैली की तारीफ़ करने लगा | कुछ उत्साही युवक तालियाँ भी बजाने लगे | मटरू अपने घर-द्वार की चिंता, कुछ समय के लिए ही सही, भूल गए | उनकी यह यात्रा इस जीवन की एक सुखद यात्रा बन गई |


Friday, 23 November 2018

बोल बम


बोल बम
प्राचीन काल से ही मनुष्य अपनी रोजी-रोटी के लिए अपने ठिकानों को बदलता रहा है | खुद को नए माहौल में ढालने तथा स्थानीय लोगों द्वारा स्वीकार किए जाने के बीच जद्दोजहद चलती रहती है | वह अपनी परम्पराओं और त्योहारों के साथ बेमेल समझौता भी करता है | समय के साथ कुछ सीखता है, कुछ सिखाता है और फिर वहीँ का हो जाता है | परंपरा और त्यौहार भी मनुष्यों के साथ चलायमान होते हैं |
सावन मास के आते ही शिव भक्तों में विशेष उत्साह संचरित हो जाता है | जगह-जगह शिव मंदिरों में लम्बी कतारें नजर आने लगती हैं | बम-बम भोले एवं हर-हर महादेव के जयघोष से शिवालय गुंजायमान हो जाते हैं | मटरू के लिए भी सावन का महीना किसी वार्षिक त्यौहार से कम नहीं है | शिव भगवान के लिए जलाभिषेक करना उनकी परंपरा का अटूट हिस्सा है | आज मटरू एक कावड़िया के रूप में पवित्र नदी के जल के साथ भगवान शिव का अभिषेक करने को उत्सुक हैं | परम्पराओं का निर्वहन करते हुए सुदूर असम के शिवसागर कसबे में भी कावड़ियों की चहल-पहल है |  कावड़ियों  के लिए कांवड़ यात्रा एक वार्षिक तीर्थ यात्रा है जिसमे शिव भक्त हिंदुओं के पवित्र तीर्थ स्थानों, यथा उत्तराखंड में हरिद्वार, गौमुख और गंगोत्री तथा बिहार में सुल्तानगंज से पवित्र गंगाजल भर कर सैकड़ो किलोमीटर दूर स्थित शिवालयों में श्रद्धालु एकत्र होते हैं और अपने आराध्य को अर्पित करते हैं | मेरठ में पुरा महादेव तथा औघढ़नाथ, वाराणसी में काशी विश्वनाथ एवं झारखण्ड में बैजनाथ और देवघर आदि कुछ प्रमुख शिव मंदिर हैं,  जहाँ लाखों कावड़ियों की भीड़ एकत्र होती है |

कांवड़ यात्रा में कावड़िया एक बांस के डंडे के दोनों सिरों से लटके हुए लगभग दो बराबर मटकों में भरे पवित्र जल को अपने एक कंधे पर या दोनों कंधों पर संभाल कर चलता है | कांवड़ शब्द मूलतः संस्कृत के कावाँरथी (कांवर ले कर चलने वाला) शब्द से ब्युत्पन्न हुआ है, जिसमे अनेक कावड़िया एक साथ जुलूस के रूप में यह तीर्थ यात्रा निष्पादित करते हैं | पुराणों के अनुसार इस यात्रा का सम्बन्ध क्षीरसागर मंथन से माना जाता है | जब मंथन से निकले विष की ऊष्मा से संपूर्ण विश्व जलने लगा तब महादेव ने विषपान कर विश्व को इसके प्रभाव से बचाया परंतु स्वयं इसकी नकारात्मक उर्जा से बच नहीं सके | विष के प्रभाव को दूर करने के लिए शिवभक्त रावण ने तप करने के उपरान्त कांवड़ में जल लाकर पुरा महादेव में शिवजी का जलाभिषेक किया | इसके बाद शिव जी विष के प्रभाव से मुक्त हुए | ऐसा माना जाता है कि तभी से कांवड़ यात्रा शुरू हुई | दूसरी मान्यता के अनुसार भगवान राम पहले कांवड़िया थे | कहते हैं कि श्री राम ने झारखंड के सुल्तानगंज से कांवड़ में गंगाजल लाकर बाबाधाम के शिवलिंग का जलाभिषेक किया था | कुछ विद्वानों का मानना है कि सबसे पहले भगवान परशुराम ने कांवड़ से गंगाजल लाकर उत्तर प्रदेश के बागपत के पास स्थित 'पुरा महादेव' का जलाभिषेक किया था | वह शिवलिंग का अभिषेक करने के लिए गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाए थे | इस कथा के अनुसार आज भी लोग गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाकर पुरा महादेव का अभिषेक करते हैं | अब गढ़मुक्तेश्वर को ब्रजघाट के नाम से जाना जाने लगा है | एक अन्य किवदंती के अनुसार श्रवण कुमार ने त्रेता युग में कांवड़ यात्रा की शुरुआत अपने दृष्टिहीन माता-पिता की गंगा जल से स्नान की अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए की थी |


प्रारंभ में यह यात्रा काफी छोटे स्तरों पर आयोजित होती थी और मुख्यतः भारत के उत्तरी भूभागों में ही सम्पादित होती थी | जिस प्रकार छठ का आयोजन बिहार एवं पूर्वी उत्तरप्रदेश के कुछ इलाकों तक ही सीमित था और पलायन के चलते अन्य क्षेत्रों में भी इसका प्रचार-प्रसार खूब  बढ़ा तथा बाद में राजनीतिक रूप भी लेने लगा, उसी तरह कांवड़ यात्रा भी देश के अन्य भागों में भी खूब प्रचारित हो रहा है | अंग्रेज सैलानियों के अनुसार उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में कांवड़ तीर्थ यात्री उत्तरी भारत के मैदानी हिस्सों में देखे जाते थे | शुरुआत में वृद्धों एवं कुछ साधू-महात्माओं द्वारा ही इस यात्रा का विवरण मिलता है, परंतु पिछली सदी के आठवें दशक से तीर्थ यात्रियों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है और इस यात्रा पर भी राजनीतिज्ञों की नज़र पड़ चुकी है | अब यह यात्रा उत्तर के कुछ मैदानी भागों तक ही सीमित नहीं है बल्कि छतीसगढ़, हरि- याणा, दिल्ली, पंजाब राजस्थान, मध्यप्रदेश एवं असम प्रदेश तक फ़ैल चुकी है | 

कावड़ियों की मदद के लिए अनेक गैर-सरकारी संगठन अस्तित्व में आ गए हैं जो इन यात्रियों को मुफ्त सेवा प्रदान करते हैं तथा रास्ते में इनके लिए मुफ्त खान-पान, शयन-विश्राम और चिकित्सा संबंधी सेवाएं मुहैया करवाते हैं | ऐसा नज़ारा उत्तरी गुजरात में अम्बाजी के दर्शन हेतु यात्रियों के लिए आम हुआ करता है जिसमे तीर्थ यात्री नंगे पांव सैकड़ों किलोमीटर पैदल यात्रा करते हैं | कावड़ियों में अधिकतर पुरुष होते है पर अब महिलाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी देखी जा रही है |

आज सोमवार है | मटरू आज के दिन हमेशा केसरिया से देवघर अपनी मण्डली के साथ जाते थे | केसरिया निवासी केसरिया बाना में सुलतानगंज से पवित्र गंगाजल भगवन बैजनाथ को चढाते थे | आज वे अत्यंत भावुक हैं | अपने साथियों के साथ पुरानी यादें ताज़ा कर रहे हैं | दिखू का जल कांवड़ में भर कर शिव मंदिर में चढ़ाने के लिए अपने अपने कांवड़ संभालते आगे बढ़ रहे थे और शिव की महिमा में उद्घोष कर रहे थे:
बोल बम का नारा है, बाबा एक सहारा है |
मटरू सबसे पहले बोलते: बोल बम का नारा है | इसके पीछे सभी बोलते :बाबा एक सहारा है  |

जो भी हो, मटरू जहाँ भी हैं पूरी श्रद्धा से भोले नाथ का अभिषेक तो कर ही रहे हैं | समय के साथ कावड़ियों की परंपरा में भी बदलाव दिखाई दे रहा है | जहाँ पहले ये कावड़िया भोला यानी निष्कपट, सीधा-सादा और दुनियादारी से बेखबर भक्ति के वशीभूत हो कर तीर्थ यात्रा संपन्न करते थे वहीँ आज इन कावड़ियों के मध्य शरारती तत्वों और पाखंडियों की भरमार हो गई है | आज कावड़िया ज्यादातर ऐसे युवा हैं जो किसी काम-काज में नहीं लग पाए हैं और आर्थिक विकास के अवसर में पीछे रह गए हैं | इनके लिए इस यात्रा का मकसद साफ़ नहीं है बस समाज में दिखावे के लिए भागीदार हो जाते हैं | आए दिन गाड़ियों में और सड़कों पर इनका उपद्रव इसी मानसिकता को दर्शाता है |




Thursday, 15 November 2018

नामघर




       नामघर: मटरू का भजन-कीर्तन

-राय साहब पाण्डेय
मटरू अब शिवसागर में रम गए थे | उनकी अपनी मंडली बन गई थी | ट्रेन के सहयात्रियों से उनकी दोस्ती प्रगाढ़ हो रही थी | साथियों के सहयोग से ही आज उनके पास अपना एक सायकिल रिक्शा हो गया था और वे भी दो पैसा कमा कर गाँव में रह रहे अपने परिवार का भरण-पोषण कर पा रहे थे | उनकी चिट्ठी-पत्री भी दोस्तों के पते पर आती थी | धीरे-धीरे स्थानीय परम्पराओं से भी वाकिफ़ हो रहे थे | भजन-कीर्तन में रुचि होने के कारण दोस्तों में उनकी लोकप्रियता बढ़ गई थी | अक्सर रविवार शाम मंडली की बैठक होती थी | कभी गोस्वामी तुलसी रचित रामचरितमानस का सस्वर पाठ तो कभी चैतन्य महाप्रभू के भजनों का संकीर्तन या फिर कबीर के निर्गुन इन बैठकों में सुनाई पड़ता था | ऐसी ही एक भजन संध्या में मटरू की मुलाकात एक भद्र जन से हो गई | इन महाशय का नाम काली प्रसाद शर्मा था | मटरू का भक्ति-भाव और स्वर का मधुर लालित्य देख-सुनकर काफी प्रभावित हुए | शर्माजी ने पूरी मंडली को नामघर में संकीर्तन के लिए निमंत्रित किया |  

नामघर मूलतः एक प्रार्थना सभागार होता है | नाम का अर्थ है प्रार्थना | पंद्रहवीं सदी के भक्ति आंदोलन के समय के असमिया भाषा के एक प्रसिद्ध कवि, नाटककार तथा वैष्णव समाज सुधारक श्रीमंत शंकरदेव ने ‘एक शरण धर्म’  की स्थापना की | इस धर्म को 'नववैष्णव धर्म' या 'महापुरुषीय धर्म' के नाम से भी जाना जाता है | यह हिन्दू या सनातन धर्म से भिन्न नहीं है बल्कि उसी का एक पंथ है, जिसमे मूर्तिपूजा की प्रधानता न होकर श्रवण-कीर्तन को विशेष महत्व दिया जाता है | इस पंथ के अधिकांश अनुयायी असम प्रदेश के उजिनी (ऊपरी) तथा नोमिनी (निचले) दोनों क्षेत्रों में निवास करते हैं | इस सम्प्रदाय का मूल मंत्र है: एक देव, एक सेव, एक बिने नाइ केव | इस धर्म में कोई जाति-भेद ऊँच-नीच, धनी-दुखिया का भेद नहीं है | धार्मिक उत्सवों के समय केवल एक पवित्र ग्रंथ चौकी पर रख दिया जाता है, इसे ही नैवेद्य तथा भक्ति निवेदित की जाती है। इस संप्रदाय में दीक्षा की व्यवस्था नहीं है |
  
अठारहवीं सदी पूर्व असम में वैष्णव लोग धार्मिक कार्यों के लिए कोई स्थायी निर्माण नहीं करते थे | पत्थरों या ईंटो का कोई इस्तेमाल नहीं होता था | नामघर मुख्यतः बांस और लकड़ियों से निर्मित होते थे और उनकी छत घास-फूस की बनी होती थी | शायद ऐसा इसलिए होता था कि इस पंथ के प्रचारक एक स्थान पर अधिक दिनों तक रुकते नहीं थे, और ऐसी मान्यता थी कि कोई भी कक्ष जो यती और उसके शिष्यों को बैठने के लिए पर्याप्त हो, प्रार्थना के लिए भी पर्याप्त है | समय के साथ कीर्तन-घर, चाहे जिस भी स्वरूप में हो, नामघर के नाम से जाना जाने लगा | बीसवीं सदी आते-आते नामघरों के बनावट में भी बदलाव हुए और अब बांस के खम्भे कंक्रीट तथा फूस की छतें नालीनुमा टिन की चद्दरों से बनाने लगीं | यद्यपि इस पंथ में मूर्ति पूजा नहीं होती तथापि नामघरों में वैष्णवों के देवी-देवताओं की मूर्तियाँ रखी जाने लगीं |

आज मेलाचक्कर नामघर में मटरू की मंडली का संकीर्तन आयोजित था | काली प्रसाद शर्माजी और आस-पास के लोग पहले से पहले से ही पंक्तिबद्ध बैठे थे | नामघर के बीचो-बीच पश्चिमी दीवाल से सटा हुआ काष्ठ निर्मित, कच्छपों, गजों और शेरों की कलाकृतियों से अलंकृत, सात-स्तरीय त्रिकोणीय गुरु आसन रखा था | इस आसन पर ही पवित्र ग्रन्थ की स्थापित था | नामघर में भक्तजन उत्तर और दक्षिण दिशा में एक दूसरे के सम्मुख बैठे थे | उत्तर और दक्षिण समूहों के मध्य का क्षेत्र अति पवित्र होता है और साफ़-सफाई के अतिरिक्त कभी भी कोई इस जगह पर कदम नहीं रखता | प्रार्थना की शुरुवात ‘नाम लोगुवा’ द्वारा की जाती है, जो स्वयं गुरु आसन के सम्मुख मध्य-क्षेत्र के अंत में बैठा होता है |

प्रार्थना समाप्त हुई | नाम लोगुवा’ की जगह मटरू और राम अगर्दी ने ले ली | अगल-बगल उनकी मंडली के सदस्य झाँझ-मजीरे, ढोलक और हारमोनियम के साथ अपने-अपने स्थान पर आसीन हो गए | नामघर के अन्य पदाधिकारी गण जैसे मेहदी, बुजंदार, नामघरिया और बिलोनिया इत्यादि लोग भी उपस्थित थे | मटरू और उनकी टीम ने आलाप लेना शुरू किया और जैसे ही मधुर स्वर में सरस्वती वंदना ‘या कुंदेंदु तुषार हार धवला.......’ प्रारंभ किया, श्रोतागण मंत्र-मुग्ध हो गए | तत्पश्चात मटरू ने फिर नाम कीर्तन की तरफ रुख किया:
‘निज दास करि हरि मोके किना किना
अन्य धन न लागे नाम धन बिना’
‘अन्य देवी-देवता न करिबा सेवा, न खइबा प्रसाद तारा,
मूर्तिका न शइबा गृहो न पसिबा, भक्ति हैबे व्यभिचारा’

लगता है मटरू और उनकी टीम ने आज के लिए नाम-कीर्तन की पूरी किताब ही रख ली थी और लगन से पूर्वाभ्यास भी किया था | मटरू ने पयारा, झूना, लघु पयारा, दुलारी तथा शबी इत्यादि नाम कीर्तनों को एक-एक कर प्रस्तुत किया:
नमो गोप रुपी मेघासम स्यामा तनु |
गावे पीतवस्त्र हाथे सिंगा वेता वेनु ||
पीत वस्त्र सोभे श्यामला काया |
ताड़ीता जड़ता जलदा प्रया ||
सुन्दरा हसिकाका अल्प हसा |
चारू स्यामा तनु पिताबसा ||
अंत में मटरू ने नाम कीर्तन का समापन श्री कृष्ण स्तुति से की:
कृष्णाय वासुदेवाय देवकी नन्दनाय च |
नंदगोप कुमाराय गोविन्दाय नमो नमः ||
नमः पंकजनाभाय नमः पंकजमालिने |
नमः पंकजनेत्राय नमः पंकजाङ्घ्रये ।।
वसुदेवसुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् |
देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्||
                हरि राम राम ||
मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिं |
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्
||
मटरू ने अपना भजन-कीर्तन समाप्त करते हुए  हाथ जोड़ कर सबका अभिवादन किया | सबने मुक्त कंठ से मटरू और उनके मण्डली की सराहना की |

अब काली प्रसादजी उठे और नाम-कीर्तन का महत्व समझाते हुए बोले, “जिस तरह श्रीमंत शंकरदेवजी ने ‘एक शरण धर्म’’ के दार्शनिक सिद्धांत को सरल रूप में लोगों तक सीधे उनके ह्रदय तक पहुँचाया वह भारत वर्ष के इस भूभाग का एक बेहतरीन धार्मिक आंदोलन है | यह पंथ न केवल मूर्तिपूजा के बल्कि भारी-भरकम एवं डरावने रश्म-रिवाजों में अनावश्यक अपव्यय के विरुद्ध भी था | उन्होंने ज्ञान एवं कर्म मार्ग के जटिल रास्ते से उबार कर अनपढ़ एवं गरीब लोगों को भक्ति मार्ग में प्रवेश करा कर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कराया” | अंत में शर्मजी ने शंकरदेव जी के महानतम शिष्य माधवदेव की एक कथा सुनाई कि किस प्रकार श्रीमंत ने एक व्यापारी माधव को अपनी माँ को बीमारी से मुक्ति दिलाने के लिए दो बकरों की बलि देने से रोक कर पापकर्म से मुक्ति दिलाई |

मटरू की आँखे नाम हो गईं और उसने अपने परिवार द्वारा बकरे की बलि से होने वाले पाप से बचाने के लिए भगवान का कोटि-कोटि शुक्रिया अदा किया |