Sunday, 18 August 2019

बिन शुद्धक वाली मौत



बिन शुद्धक वाली मौत
-राय साहब पाण्डेय

मटरू के लिए आज का दिन अत्यंत कठिन होने वाला था | दादी की धमकी सुबह से बाप और बेटे को मिल रही थी | दोनों को पता था कि उसकी धमकी का क्या मतलब हो सकता था | मटरू के बाप ने अपना और बेटे का भला सोचा और माँ की बात मान मटरू का हाथ पकड़ नाई बस्ती की तरफ चल पड़े |

गाँव का नाई, उस पर मुफ्त सेवा- किसे रास नहीं आएगी? जिसकी हजामत नहीं भी बढ़ी वह भी लाइन में लगा हुआ मिलेगा, दाढ़ी खुजलाते हुए | समय बचाने के लिए कहें या लाइन में अपना हक बरकरार रखने के लिए, कुछ उत्साही नवजवान नाई की अतिरिक्त कटोरी में पानी ले कर स्वयं ही अपनी हजामत मुलायम करने लगते थे | मटरू के बापू कब तक इन्तजार करते, ‘तुम बैठो, मैं अभी आता हूँ’, कहकर चले गए | मटरू के पास समय के अलावा और था भी क्या ? खुश हुए “चलो गोटी खेलते हैं’, खुद ही कह कर खुद ही सुन लिया | नरिया-थपुआ के छोटे-छोटे टुकड़ों की कोई कमी नहीं थी, एक खोजो सैकड़ों मिलते थे | जल्दी-जल्दी कुछ टुकड़े इकट्ठे किये और शुरू हो गए | कब उनका नंबर आया, कुछ पता नहीं |

अब मटरू की सांसत शुरू होने वाली थी | फिरारी ने पूरे सिर को पानी से नहलाया | पहले हाथ की उँगलियों से और फिर पतली होती कंघी से बालों की लट को अलग किया | बुदबुदाते हुए अपनी आँखों को चश्मे के अंदर सिकोड़ते हुए बालों को काटना शुरू किया | मटरू के बार-बार अपने सिर को हिलाने-डुलाने की वजह से फिरारी को दिक्कत हो रही थी | मटरू और फिरारी के बीच एक अनकही दौड़ चल रही थी | मटरू हर दो मिनट में कुछ आगे खिसक जाता था | फिरारी को भी मटरू के सिर को कैंची की गिरफ्त में रखने के लिए अपनी ईंट को आगे खिसकाना पड़ता था | चंगुल से छुटकारा पाने की जुगाड़ में मटरू कभी सिर तो कभी नाक खुजलाने का बहाना करता | फिरारी की झुंझलाहट बढ़ रही थी | एक तो उमर का तकाज़ा, दूसरे उनका अकेलापन उन्हें अनायास ही बुदबुदाने को मजबूर करते थे | फिरारी बब्बा ने कस कर मटरू के सिर को अपने पैर के घुटनों के बीच दबोचा और बालों को गढ़ना शुरू किया | बालों को मिलाते-मिलाते दो इंच लम्बे बाल दो सेंटीमीटर तक छोटे हो जाते, फिर काहे की मिलावट? मटरू और फिरारी अपने मूल स्थान से लगभग दस मीटर तक आगे खिसक जाते थे | फिरारी को ख़त काटने के लिए कटोरी और उस्तरा अपने जगह से वापस लाना पड़ा | मटरू की जान में जान आई | ख़त काटना मतलब बाल कटाने की पीड़ा से मुक्ति | मटरू के कानों में आवाज आई, “चल, जा “, मटरू को अपने कपड़ों की भी शुध नहीं होती और सीधा दौड़ कर घर भागते | कमीज या गंजी वापस लाने के लिए दादी हैं न? फिरारी का काम अभी ख़तम नहीं हुआ | मटरू के गिरे बालों को समेटना अभी बाकी था |

मटरू अब बड़े हो गए हैं | फिरारी के बारे में बातें करते हुए अक्सर भावुक हो जाते हैं | मटरू बताने लगे, “फिरारी बब्बा शांत सुभाव के थे | जब से उन्हें देखा, उनकी आँखों पर गांधी बाबा वाला चश्मा चढ़ा होता था | चश्मे के कांचों पर धूल-मिट्टी की न उतरने वाली परत जम कर एक अलग नक्शा बना चुकी थी | कभी-कभार अपने गमछे से पोंछ कर जरूर साफ़ कर लेते थे और उसी से उन्हें साफ़ दिखने लगता था | कान पर चढ़ने वाला फ्रेम किसी मेटल का न होकर सूत के मजबूत धागे से बना होता था जिसे आसानी से कान पर चढ़ाया जा सकता था | मटरू ने दादी से जो भी सुन रखा था उसे दादी के शब्दों में ही जस का तस बताने लगे |

“फिरारी भी तुम्हारे जैसे ही हट्टे-कट्ठे जवान थे | उनके पिताजी अपनी बिरादरी के चौधरी माने जाते थे | अपने समाज में उनका मान–सम्मान था | बिरादरी वाले अक्सर सलाह-मशविरा लेने आया करते थे | खूब जजमानी थी, खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी | फिरारी की माँ जल्दी ही सरग सिधार गई थी | फिरारी के पिताजी को ही घर का सारा काम-काज भी निपटाना होता था | ऊपर से जजमानी का बोझ इतना कि अगर रात न हो तो काम कभी ख़तम ही न हो | फिरारी गाँव के अखाड़े में कुश्ती लड़ने जाता था, लड़ता भी खूब था | पर गाँव के दबंगों के आगे उसकी कहाँ चलती थी? एक बार एक बड़े घर के नौजवान लड़के को पठखनी क्या दे दी, सारे दबंगों ने मिल कर नाक-मुँह तोड़ दिया | हल्दी-प्याज और कड़वे तेल का गरम लेप हप्तों तक लगाना पड़ा तब जा कर कहीं नीला पड़ा खून फटा और फिरारी फिर से बाहर मुँह दिखाने लायक हुए | जिन लोगों ने फिरारी की यह हालत की थी, वे शान से गाँव में घूमते रहे | फिरारी की माँ होती तो शायद ओरहन-उलाहना भी ले कर जाती, फिरारी के पिताजी किसके पास जाते? है न अचरज की बात, जो शख्स अपनी बिरादरी में इतने मान-सम्मान का हकदार है, लोगों के आपसी झगड़ों को सुलह-सफाई से निपटा सकता है, अपने खुद के बेटे के साथ इतना सब कुछ हो जाने के बावजूद चुप रहना ही श्रेयष्कर समझता है | इस घटना के बाद फिरारी का इन लड़कों के साथ उठना-बैठना तो बंद हो ही गया, उलटे बाप से सख्त हिदायत भी मिल गई कि अगर अखाड़े की तरफ भूल कर भी झाँका तो हाँथ-पैर भी गवां बैठेंगे | कुछ दिनों तक सब कुछ ऐसे ही चलता रहा, फिर मान-मनौवल के बाद फिरारी का अखाड़े में जाना आरम्भ तो हुआ लेकिन वे बाकियों की दमकशी कराने के काम आने लगे |

चौधरी का बेटा अब जवान हो चला था | बिरादरी के संभ्रांत नाई रिश्ता ले कर आने लगे थे | चौधरी को लोगों के दबाव में आना ही पड़ा और फिर साईत-शगुन देख कर शादी कर दी गई | चौधरी को अपने पुश्तैनी काम और बिरादरी के काम-काज के लिए अधिक समय मिलने लगा | फिरारी अब अखाडा-कुश्ती छोड़ घर-बार और जजमानी के कामों में मन लगाने लगा | बहू के आने से चौधरी के घर में भी समय से दिया-बाती होने लगी | आस-पड़ोस की महिलाएँ भी आने लगीं और जल्दी ही फिरारी की दुलहिन को ढेर सारी चचिया-ककिया सास, देवर, जेठ, ननदें और जेठानियाँ भी मिल गईं |
समय को मानों पंख लग गए हों | चौधरी अब बूढ़े हो गए और उनका चलना-फिरना काफी कम हो गया | सारा काम फिरारी के जिम्मे आन पड़ा | काम की व्यस्तता के चलते फिरारी ने चौधराई के काम को अस्वीकार कर दिया | दुलहिन अब दुलहिन नहीं रही वरन् एक प्रौढ़ा, व्यवहार-कुशल एवं चतुर औरत के रूप में निखर चुकी थी | शादी-व्याह, शकुन-अपशकुन, मरनी-करनी के सारे विधि-विधानों में जजमानों के यहाँ आने-जाने लगी थी | सर पे पल्लू और मुँह पर आधा घूंघट रख अपने से दूनी उमर के जजमानों से अपने पद-हद की बात आसानी से कर लेने में पारंगत भी हो चुकी थी | मनचलों के सवालों का जवाब भी सफाई से देना सीख गई थी | पूरी ठेठ नाईंन | नाईंन अब एक बच्चे की माँ बन गयी थी | चौधरी दमा के मरीज हो गए थे, फिर भी चीलम नहीं छूट रही थी | फिरारी ने कई बार गांजा-तम्बाकू छुड़वाने की नाकाम कोशिश भी की | चौधरी का हमेशा एक ही जवाब होता था, “फिरारी, अब तो यह लत मरने के बाद ही जाएगी” | फिरारी फिर मौन धारण करने में ही अपना भला समझते थे |

चौधरी स्वर्ग सिधार गए | लोग तो ऐसा ही कहते हैं, देखा किसने है? फिरारी लोक ढंढन और रिवाजों के फेर में खुद भी फंस गए, सब कुछ धर्म के नाम पर और स्वर्ग में स्थान सुनिश्चित करने के लिए | बार-बार उनके मन में एक ही ख़याल आता था, “पिता जी का काम-काज तो मैं कर रहा हूँ, मेरा होगा या नहीं |” मानव जीवन भी अजीब कशमकश से भरा है, “जब धर्म जिंदगी जीने के लिए उपयोगी न होकर मौत के पश्चात काल्पनिक खौफ और पारलौकिक उपयोग की वस्तु बन जाय तो धर्म दर्शन नहीं मात्र प्रदर्शन बन कर रह जाता है |” जजमानों और बिरादरी के सहयोग से सब कुछ अच्छे से निपट गया | फिरारी का लड़का होनहार निकल रहा था | खेलकूद में पड़ोसी नाईयों और बाभनों के लड़कों को मात दे देता था | बाप की तरह पिट कर नहीं, पीट कर आता था | गाँव के और बच्चों के साथ स्कूल भी जाने लगा था | ऐसा लग रहा था कि सब कुछ सामान्य चल रहा है |
फिरारी ज्यादातर बाहर के कामों में व्यस्त रहने लगे थे | उन्हें सबकी चिंता थी, कब कहाँ नेवता ले कर जाना है, किसके यहाँ कौन सा परोजन है, इस साल किसके-किसके घर लड़के-लड़कियों की शादी पड़ने वाली है, सिवाय अपने घर की | उन्हें तो शायद अपनी जोरू का नाम भी याद नहीं रहता था | सुखवंती अब सुखना बन गई थी | ये जो ऊची जात वाले  होते हैं न उन्हें अपने घर काम करने वालों के अच्छे नाम भी पसंद नहीं आते | नाम बिगाड़ना तो इन लोगों का अधिकार है | भलाई इसी में है कि जल्दी से जल्दी अपने नए नाम को अंगीकार कर लो | सुखना अपने घर में और घर से बाहर पंडितों के घर में अकेली पड़ने लगी थी | गरीब की लुगाई जाने-अनजाने कब संभ्रांत कहे जाने वाले मर्दों की निगाह में आ जाती है, पता ही नहीं चलता | पंडितों की बिरादरी में भी ढेर सारे ‘बैचलर हिप्पो’ होते हैं जो कहीं भी मुँह मारने में परहेज नहीं करते | अक्सर संकोच बस प्रतिकार न करना अपने साथ हुई एक तरफ़ा बेहूदगी को मौन स्वीकार मान लिया जाता है | लालच-लोभ का छलावा धीरे-धीरे अपनी जड़ जमा ही लेता है | फिर तो कदम डगमगाने का ही इंतजार रहता है | सुखना एक माँ है, वह खुद भी भूल गई | अब की बार एक पति अपने बेटे, पत्नी और माँ-बाप को नहीं बल्कि एक माँ अपने पति और बेटे को छोड़ कर रात के सन्नाटे में गायब हो गई |

फिरारी के लिए एक यह नई मुसीबत थी | कितने दिनों तक इस दुर्घटना पर पर्दा डालते? ‘कुछ दिनों के लिए मायके गई है’ यही कहते फिर रहे थे | एक-दो दिन की बात होती तो बात कुछ और होती | चार साल के बेटे को छोड़ कर कौन औरत मायके जाती है? इस प्रतिवाद का जवाब उनके पास नहीं था | इस बीच अफीमची पंडित भी गायब हो गया था, इस लिए लोगों का शक पक्का हो गया | लगभग महीने भर बाद अफीमची और सुखना हाज़िर हो गए, सुखना अपने घोसले में अपने चूजे के साथ और अफीमची अपने भाइयों के घोसलों में उनके चूजों के साथ | अफीमची परिवार का तो कुछ नहीं हुआ, फिरारी की  बिरादरी वाले जरूर दबे जुबान भोज-भात की बात करने लगे थे | फिर बीच-बचाव और पंडितों के दबाव में बात आई-गई हो गई | नई बात नौ दिन, लोग फिर अपने-अपने काम पर | लोग तो अपने काम पर हो गए पर सुखना की जिन्दगी तानों की बौछारों से आहत होने लगी | छोटू इन बौछारों का मतलब तो नहीं समझता था लेकिन कभी अपने बाप को तो कभी अपनी माँ को देखता था | अनजाने में ही उसके शब्दकोश में नए शब्दों की भरमार हो गई | “पंडितों के साथ काम करते-करते पंडिताइन बनने का मन हो गया था तुम्हारी माँ को |” छोटू को इन बातों से क्या मतलब था? उसे तो बस माँ फिर से मिल गई | सुखना को पति से मिली जिल्लत सहने के अतिरिक्त और कोई चारा भी नहीं था | जो भी सुखना को पंडिताइन होने का सुख नहीं मिल सका | नाई से शर्मा बनने का मोह केवल सुखना को ही नहीं था, हिंदुस्तान की जाति व्यवस्था में किसी को भी यह सुख हासिल हो जाय तो कोई भी इसे प्राप्त करना चाहेगा, भले ही पेट पालने के लाले पड़ रहे हों | चौधरी का पद-भार अब फिरारी के पड़ोस में ही आ गया था | इसके कारण उनका सामाजिक जीवन थोड़ा शांत हो गया | घरेलू कलह भी, कुछ समय के लिए ही सही, सुलझ गया था, क्योंकि सुखना सुनाने के बजाय सुनने में ही अपनी भलाई मान चुकी थी |

मौजूदा चौधरी का लालन-पालन उनके मामा की देख-रेख में हुआ क्योंकि उनके पिता चौधरी के जन्म के कुछ समय पश्चात ही गाँव छोड़ कर कमाने निकल गए थे | शायद किसी को पता भी नहीं चलता अगर तीस साल बाद वे लौट कर नहीं आते | सुबरन एक रात अपने गाँव से दस मील दूर अचानक अपने रिश्तेदार के यहाँ प्रकट हुए | जूट के चीथड़े में लिपटे हुए चोटिल, असहाय जब रात में किसी के दरवाजे पर कोई पहुँचेगा तो कोई भी उसे पहचानने और पनाह देने में कई बार सोचेगा | लोगों को तो सुबरन की सूरत तक भी याद नहीं थी | अधिकतर लोग यह मान बैठे थे कि “सुबरना तो कहीं मर बिला गया  होगा” | लेकिन नियत की नीयत कुछ और ही थी | सुबरन न तो मरा और न ही बिलाया | सुबरन के रिश्तेदार ने सुबरन की आवाज पहचान ही ली | अचानक ही इस छोटे से नाई परिवार में कोहराम छा गया | इस कोहराम में ख़ुशी भी थी और गम भी था | एक अनहोनी का सुखद आश्चर्य भी कम नहीं था | देखते ही देखते पूरा गाँव इकठ्ठा हो गया | सुबरन के अविरल अश्रु-प्रवाह रोके नहीं रुक रहे थे | अपनों के बीच होना भी उनके लिए एक स्वप्न जैसा लग रहा था |
सुबरन तीस साल पहले किसी मन-मुटाव बस घर-बार छोड़ कर रंगून पहुँच गए थे | नाई तो थे ही, बाल काटने का हुनर बचपन से ही सीख रखा था | इसी काम में लग गए | दक्षिण-एशियाई वाले बहुसंख्यक इलाके में लोगों से मेल-जोल भी हो गई और लगभग वहीँ के हो गए | अपना परिवार भी बसाया या नहीं, इसके बारे में किसी को कोई खबर नहीं हुई | द्वीतीय विश्व युद्ध की विभीषिका यहाँ भी भयानक रूप से पहुँच चुकी थी | लाखों एशियाई शरणार्थी बर्मा छोड़ चुके थे | दक्षिण एशिया का यह भू-भाग नाटकीय रूप से सेना के गढ़ के रूप में तब्दील हो चुका था | रसोईये, दर्जी, धोबी, नाई, मैकेनिक, जूते बनाने वाले जैसे गैर-लड़ाके भारतीय इस महायुद्ध को भेंट हो गए थे | हजारों भारतीय और एशियाई मुल्कों के श्रमिक जो अत्यधिक ऊँचाई पर सड़कों के निर्माण कार्य में लगे थे, मलेरिया और अन्य बीमारियों के शिकार हो गए | अक्सर इन मजदूरों के लिए यह बस एक रोजगार मात्र था न कि देश भक्ति का | उन्हें इसका जरा भी भान नहीं था कि यह एक वीरतापूर्ण ऐतिहासिक कदम था | इन अशिक्षित श्रमिकों ने अपनी इस सेवा का कोई लेखा-जोखा नहीं रखा यद्यपि ब्रिटिश एवं अन्य लेखकों ने अवश्य इनके बारे में अनेक संस्मरण लिखे |

सुबरन अपनी आप बीती सुनाते हुए फफ़क पड़ते थे | सुनने वालों की आँखे भी नम थी | जापानी सेनाएं रंगून और मंडालय जैसे प्रमुख शहरों पर अपना आधिपत्य काबिज कर लिया था | ब्रिटिश साम्राज्य की सेनाएं हजारों असैनिक नागरिकों के साथ उत्तर की ओर भारतीय क्षेत्र में पीछे हट रही थीं | घने जंगलों के मध्य बीमारी और जापानी वायु सेनाओं की लगातार बमबारी और अमानवीय यातनाओं को झेलते हुए बचे-खुचे लोग इम्फाल पहुँचे | सुबरन भी इन खुशनसीब लोगों में से एक थे | सुबरन की अंतहीन यात्रा का यह प्रसंग ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा था |

परिवारों, दोस्तों, बच्चों एवं बुजुर्गों के साथ अनेक समूहों में चलने वाली यह लाचार यात्रा बहुतों को दम तोड़ते देख रही थी | अपना सब कुछ कमाया-धमाया गवां कर जान बचा कर भागने वाले इन समूहों के पास कोई आत्मविश्वास नहीं बचा था | बहुतों ने अपना कमाया हुआ बहुमूल्य सामान अपने घरों के इर्द-गिर्द जमीन में गाड़ दिए थे, इस उम्मीद में कि शायद युद्ध के बाद वे फिर लौट सकें | इम्फाल में शरणार्थी कैम्पों में कुछ समय रुकने के बाद सुबरन की पैदल, और नाव की यात्रा प्रारंभ हुई | अपने बचे-खुचे सहयात्रियों के साथ अपने जिले में पहुँचने पर उनमे फिर एक आस जगी अपनों के बीच होने की |

सुबरन लौट आये | न तो उनका एक बीर सिपाही जैसा स्वागत हुआ और न ही कोई जश्न | पूरा परिवार ग़मगीन था | वे एक देखने की वस्तु बन गए थे | तीस सालों बाद एक निरीह अवस्था में घर-वापसी उनके लिए एक आत्मग्लानि से कम नहीं थी | छोटे बेटे, पत्नी और वृद्ध पिता को बिना किसी सूचना के घर-बार छोड़ कर चले जाने का दुःख उन पर बेहद भारी पड़ रहा था | पंडित बहुल गाँव में कुछ नाईयों का परिवार बस उपयोग और सहूलियत के लिए बसाया गया था | “अरे सुबरना आ गया है”, ऐसी ही प्रतिक्रिया थी इन पंडितों की | सुबरन कुछ दिनों के मेहमान रहे और और शीघ्र ही भगवान् को प्यारे हो गए |

सुबरन के सुपुत्र, राम बरन, अपने मामा की देख-रेख में पले बढ़े थे | सौभाग्य से राम बरन के मामा लोगों का परिवार मुंबई महानगर में अच्छी कमाई कर रहा था | राम बरन अब नाईयों के मौजूदा चौधरी थे | राम बरन मामा के एक निमंत्रण पर मुंबई गए हुए थे | मामा के छोटे लड़के की शादी थी | शादी में अत्यंत गोपनीयता बरती जा रही थी | मामा और परिवार के अन्य सदस्य सिल्क कुर्तों और पायजामों में सजे धजे थे | सबके माथे पर सुन्दर पंडितों वाला गोल टीका भी सजा था | राम बरन और अन्य रिश्तेदारों को बड़ा आश्चर्य लग रहा था | सभी रिश्तेदारों को लड़की वालों से बात-चीत करने में अत्यंत सावधानी बरतने का निर्देश दिया गया था | बाद में खुलासा हुआ कि राम बरन अब शर्मा ब्राह्मण बन गए हैं और किसी भी कीमत पर लड़की वालों को यह बात पता नहीं चलनी चाहिए | राम बरन का मन मिचला रहा था | भोजन पेट में जाने के बजाय पेट से बाहर आने को मचल रहा था और मन शीघ्र ही मुंबई से गाँव | एक और नाई परिवार का रूपांतरण हो चुका था | नाई से शर्मा-नाई और फिर शर्मा- ब्राह्मण |

दिन बीतते गए | फिरारी अब बूढ़े हो चले थे | छोटू भी अब छोटू नहीं रहा | प्रेम नाम था उसका | फिरारी की तरह संकोची नहीं था | स्कूल में दाखिला हुआ था उसका | गाँव के अन्य बच्चों की तरह वह भी पढने में होशियार था | जब तक फेल नहीं हुआ, स्कूल जाने का क्रम चलता रहा | उसके लिए फेल-पास कोई मायने नहीं रखता था, उसके पास अपना खानदानी पेशा जो था ! कभी भी छुरा-कैंची पकड़ सकता था | फिरारी का इतिहास फिर से एक बार उनके ही सामने खड़ा था | पहले के जमाने में शादी की कोई ख़ास उमर नहीं थी | परिवारों की सहमति से लड़के-लड़कियों की शादियाँ हो जाया करती थीं | फिरारी ने भी प्रेम की शादी कर दी | फिरारी अपने काम में मशगूल रहा करते थे और प्रेम अपने कामों में | एक बार स्कूल में फेल और फिर पढ़ाई से मुक्ति |

प्रेम की बीवी का नाम फूलमती था | कालांतर में उसे भी अपनी सास की भांति फुलना बनना पड़ा | फुलना काम-काज में दक्ष और नाक-नक्श से सुन्दर थी | प्रेम उसके मोह-पाश में उलझा रहता था | घर गृहस्थी से जैसे विमुख ही हो गया | दोस्तों से भी बड़ी मुश्किल से मिलता था | कुछ समय तक तो सब ठीक लगता है, लेकिन नाई के परिवार में यह सब कब तक चलता | प्रेम हमेशा आशंकाओं से घिरा रहता | जब भी वह घर के बाहर होता, उसके मन में अनजाने ही कुछ सताने लगता था | फिरारी और प्रेम दोनों अपने-अपने औजारों के साथ सुबह-सुबह जजमानों की खातिरदारी में निकल जाते और दोपहर के भोजन के अवसर पर ही घर आते थे | प्रेम नए जमाने का नाई था | हाथ भी सफाई और फुर्ती से चलाता था | जल्दी ही वह युवाओं का पसंदीदा नाई बन गया | फिरारी अब बूढ़ों और बच्चों तक सीमित हो गए | घर की जरूरतें बढ़ने लगी | प्रेम के कुछ दोस्तों ने सलाह दी कि वह नजदीक के बाजार में अपना खुद का एक सैलून खोल ले | प्रेम के दिमाग में यह बात इस कदर बैठ गई कि बाप-बेटे में सैलून को लेकर मन-मुटाव बढ़ने लगा | फुलना ने भी पति की तरफदारी की और ससुर को समझाया | फिरारी के न चाहने पर भी प्रेम के जिद के आगे उनकी एक न चली और सैलून खुल गया | सैलून का नाम भी फूलमती के तर्ज पर ‘रूपा-सैलून’ रख दिया गया |

कहते हैं न कि जब पैसा आने लगता हैं तो समझदार से समझदार व्यक्ति के भी कदम लड़खड़ाने लग जाते हैं | प्रेम की दुकान चल निकली | अब दोपहर के भोजन पर भी वह घर नहीं आता था | आस-पास के दुकानदारों से मेल-जोल बढ़ गया | पता नहीं कुदरत भी कुछ अजीब तरह से वर्ताव करती है | अच्छी सोहबत का असर कम होता है और बुरी सोहबत अपना रंग जल्द ही दिखाने लगती है | प्रेम अपने दोस्तों में ‘शर्मा जी’ हो गए | एक अच्छी बाइसिकल के गौरवान्वित मालिक भी | घर पर पहुँचने से पहले ही बाइसिकल की घंटी बजाने लगते थे | घंटी की आवाज सुनकर फुलना को यह समझने में देर नहीं लगती थी कि उनके ‘शर्मा जी’ आ गए हैं | फिरारी को भी बेटे पर गर्व होने लगा था | क्यों न हो आखिरकार नाई के घर में बाइसिकल! जो अधिकतर पंडितों को भी नसीब नहीं थी | ‘शर्मा जी’ अब शाम को भी देर से आने लगे | कभी खाना खाते, कभी भूख नहीं होती | फिरारी के पास भी उड़ कर ख़बरें आने लगीं, ‘शर्मा जी’ देशी दारू की दुकान पर दिखने लगे थे |

सुन्दर रूप स्वयं में ही एक वैभव होता है | संपन्न एवं संभ्रांत महिलाओं में यह सुन्दर रूप उनकी संपत्ति भी हो सकती है | पर रूप ख़ास कर गरीब और समाज के पिछड़े वर्ग की महिलाओं के पास हो तो यही संपत्ति कब विपत्ति बन जाय, कहना मुश्किल हो जाता है | रूपा-सैलून की चर्चा कब 'रूपा' की चर्चा में तब्दील हो गई, इसका पता सबको पहले चल गया पर फिरारी और प्रेम को सबसे बाद में | दारू के नशे में ‘शर्मा जी’ के ही दोस्तों ने फुलना की तारीफ़ कुछ ज्यादा ही कर दी, बस ‘शर्मा जी’ भड़क गए और दूसरे दिन से फुलना का जजमानों के घर जाना बंद हो गया | फुलना के पास अभी तक कोई अपना बच्चा नहीं था | वह अपने पड़ोसी राम बरन के बच्चे को अपना प्यार देने लगी | जजमानों के घर की महिलाओं के नाखून बढ़ने लगे थे | उनके पैर भी बिना उबटन और आलता के सूखने लगे थे | लाज़िम था, फिरारी के पास जजमानों की शिकायतें आने लगी | फुलना का फिर से आना-जाना शुरू हो गया | ‘शर्मा जी’ अब रोज देर से आने लगे और देशी दारू के नशे में बड़बड़ाते हुए फुलना को कभी भद्दी-भद्दी गालियों का तो कभी लात-घूसों का 'प्रसाद' देने लगे | फूलमती का फूल जैसा चेहरा कब कुम्हला गया, उसे खुद भी पता नहीं चला |

शक का इलाज कभी हो सकता है? फुलना भी इसी का शिकार होने लगी | जब कभी वह अपने पति को रिझाने के लिए साज-श्रृंगार कर लेती तो उस दिन उसकी और कुटाई हो जाती | “नाई का डरवावन छुरा”, बात-बात पर ‘शर्मा जी’ छुरा निकाल लेते, फुलना को धमकाते और निर्लज्जता की हदें पार कर पूछते, ‘कौन आया था’? फूलमती का ‘फूल’ मुरझा गया | उसकी ‘मति’ ने भी काम करना बंद कर दिया | ठीक-ठाक चलती जिंदगी में ग्रहण लग गया | फिरारी मूक-दर्शक बन गए | ऐसे में कोई भी फुलना से सहानुभूति पूर्वक बात भी कर ले तो फुलना थोड़ा हल्का महसूस करने लगती थी | मनचले और बदमाश किस्म के लोगों के लिए यह एक सुनहरा अवसर होता है, ऐसी महिलाओं के करीब आने का | फुलना भी इसका शिकार हो गयी | फुलना भी रात के अँधेरे में विलीन हो गई, शायद कभी भी उजागर न होने के लिए |

प्रेम अब प्रेम भी नहीं रहा | वह भी घर-बार छोड़ दूर शहर प्रस्थान कर गया | फिरारी फिर अकेले हो गए | उमर हो गई थी | आँख- कान जवाब दे रहे थे | अब खाने-पीने के लिए पूरी तरह राम बरन पर आश्रित थे | बाल अब भी काटते थे लेकिन मजबूरी में उनकी खुद की तो थी ही, ग्राहक की मजबूरी अधिक होती थी | जब कोई नाई नहीं मिलता तो लोग अपने छोटे बच्चों को उनके हवाले कर देते थे | फिरारी घंटे-दो घंटे में बालों को गढ़ कर सुन्दर बना कर अपनी छाप लगा ही देते थे | धीरे-धीरे प्रेम का भी आना-जाना कम हो गया | शहर में ही उसने अपना परिवार बसा लिया, पर फिरारी को परिवार का सुख नहीं मिला |

सर्दियों की एक ठंढ भरी रात में वे चल बसे | प्रेम का कोई अता-पता नहीं था | राम बरन और अन्य नाईयों के परिवारों ने फिरारी को टिकठी पर लिटाया और गंगा नदी के किनारे दाह संस्कार कर दिया | जब आगे के संस्कारों की बात चली तो सबने मौन धारण कर लिया | फिरारी जन्म और कर्म से नाई थे | सैकड़ों लोगों के क्रिया-कर्म में खुद शामिल हुए, लेकिन उनकी मौत के बाद न तो उनका शुद्धक करने वाला कोई था और न ही तेरही | उनकी मृतक आत्मा शायद अपनी शुद्धि के लिए आज भी इन्तजार कर रही हो? प्रेम चोरी छुपे आता रहा | राम बरन पडोसी धरम निभाते रहे | उन्हें भी कुछ आशा थी कि फिरारी की सेवा के बदले फिरारी के घर का कुछ हिस्सा उन्हें मिल जाय और वे अपना घर बड़ा कर सकें | खैर, उम्मीद नाउम्मीदी में तब बदल गई जब प्रेम ने दारू और कुछ रुपयों की लालच में अपना घर द्वार एक पंडित जी  के नाम रजिस्टरी कर दी | पड़ोसी पंडित और नए मालिक के बीच विवाद हो गया | फिरारी का घर अब एक खंडहर बन गया, जहाँ फिरारी की आत्मा निवास करती है और कोई भी पड़ोसी इस खंडहर को हथियाने की कोशिश नहीं करता | कहीं कोई अपशकुन न हो जाय!

समय बीतता गया | राम बरन को फिरारी की सारी जजमानी हाशिल हो गई | उनका दायरा बढ़ गया और रुतबा भी | नाई के बिना हिंदू समाज में पारंपरिक शादियाँ कहाँ संपन्न होती हैं? लड़के की शादी हो या लड़की की, परग-परग पर नाई-नाईन की जरूरत पड़ती है | शादियों का मौसम ही उनकी कमाई का मौसम होता है | राम बरन ऐसे ही एक पंडित बिरादरी की शादी में गए हुए थे | शादी का बिहान था | राम बरन नित्य-कर्म से लोटे के साथ लौट रहे थे | किसी छोटे से बालक ने उन्हें आवाज दी | राम बरन ने पहले तो अनदेखा कर दिया लेकिन यह आवाज उनके लिए ही थी यह सोच कर गफ़लत में पड़ गए कि यहाँ मुझे कौन पुकार सकता है? कुतूहल बस अपने क़दमों को तेज किया और लड़के का सन्देश सुन कर और चकित हुए | उनका साक्षात्कार एक महिला से हुआ और उनके होश उड़ गए | “फुलना”, सहसा उनके मुँह से आवाज निकली | “हाँ भैया’, फुलना बस इतना ही कह पाई और फफ़क-फफ़क कर रोने लगी | राम बरन के लिए यह बिल्कुल अप्रत्याशित था | जल्दी-जल्दी में हाल-चाल हुआ और राम बरन सोचने लगे, “लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे” | एक पंडिताइन एक अनजाने गाँव के नाई से क्या बात कर रही है? फूलमती ने अपनी आप-बीती सुनाई, नाईन से पंडिताइन बनने तक की | “मैं क्या करती? और अब क्या करूँ?”, फूलमती ने अपना सर नीचे कर हलके से कहा | राम बरन सोच में पड़ गए | थोड़ी देर बाद बोले, “अब मैं एक संभ्रांत पंडिताइन से बात कर रहा हूँ | अब तुम्हारी एक प्रतिष्ठा है | पति तो पहले भी नहीं था, अब भी नहीं है | छोटे बच्चे तो हैं न? तुमारी सास ने भी नाईन से पंडिताइन बनने की नाकाम कोशिश की थी | तुम्हे यह सुख ईश्वर ने शायद सुखना की अधूरी इच्छा पूरी करने के लिए ही दिया हो | इसे ऊपर वाले का प्रसाद मानों और जहाँ हो वहीँ खुश रहो | अब तुम एक पंडिताइन ही नहीं, पंडित घराने के वारिशों की माँ भी हो | अंधों ने तुम्हें नहीं पहचाना | अब अंधों को आईना दिखाने का वक़्त निकल चुका |”

राम बरन और फूलमती अपने-अपने रास्ते पर हो लिए | फूलमती का अपराध बोध अब शांत हो चुका था और वह सही मायने में नाईन से पंडिताइन बनने की प्रक्रिया पूरी कर चुकी थी | आंसू पोछते हुए वह आगे बढ़ गई | राम बरन खुश थे, चलो एक को ही सही, नाईन को भी पंडिताइन बनने का सुख तो हाशिल हुआ |    



  

Saturday, 22 June 2019

विष-हीन



विष हीन

-राय साहब पाण्डेय 
गरल हीन विषधर तुम
अब बस एक खिलौना,
कठपुतली बन पुंगी की
रह गए हो एक नाचौना |

खाल तुम्हारी उतर चुकी
तुम अपने अतीत की छाया,  
वर्तमान सर चढ़ कर बोले
बिसरो भूत की दमकी काया |

व्यर्थ हुई फुंकार तुम्हारी
प्राण युक्त पर प्राण हीन,
शैया न रहे ना रहे हार अब
नील-कंठ माधव विहीन |

धारा का वेग न रोक सको
तो धारा की राह ही श्रेयष्कर,
मुरझाए फन की शिथिल हड्डियाँ
सह सकें कहाँ अब भार है दुष्कर?

है यही कथा, है यही व्यथा
दुनियाँ की, दुनियाँ दारी की,
घर-बारों की, रिश्तेदारों की  
अपनो की और परायों की  |

मन मारो या कोसो मन को
निश्चिंत काल में रोड़ा क्यूँ ?
चलते-चलते बस चलना है
रुकते-रुकते भी रुकना क्यूँ ?

नियत समय की निर्बाध गतिज
स्थिरता की हो बू या खुशबू ,
हाथों में कल्पित ले लगाम 
सहते क्यूँ भार, जो काँपे बाजू ?

क्या पाया जब थे विष समेत 
क्या खोया जब हो विष विहीन ?
दंभ का पर्दा-फाश हुआ बस
जड़ नाश हुआ कारण सृजन |
















Thursday, 23 May 2019

सूखी ओस




सूखी ओस

डॉ राय साहब पाण्डेय 

आज आसमान में कुछ बादल देखे,
सोचा कुछ तो बारिश होगी,
संभावनाओं की आस जगी,
पिघलेंगे ही सही, अभी नहीं तो कल |

आज कल हुआ और कल फिर आज,
बादल कब के हो गए तितर-वितर,
बादलों की नमी सूख गयी,
उम्मीदों की आस भी टूट गयी |

बारिश ना हुई, ना सही
फिर से एक आस जगी,
आखिर नमी तो नमी है
लौटेगी ही, आज नहीं तो कल |

फिर से एक आशा का संचार जागा,
एक नए कल के बादलों की छाँव का
हाथों को फैलाया, थोड़ा कमर को और उठाया,
पर हथेलियों की कटोरी में कुछ नहीं आया |

आसमान में तो मिली नहीं,
चलो जमीन में तलाश करते हैं,
अबकी बार हाथों को ऊपर नहीं नीचे फैलाते हैं,
पर यहाँ भी उम्मीद नाउम्मीद हुई |

जमीन की मिटटी को मुट्ठी में उठाया,
कंकरों को साफ़ किया, थोड़ा भुर्भुराया,
यहाँ भी उम्मीद धूल हो गयी,
नमी का तो नाम नहीं, ओस भी सूख गयी |

Friday, 5 April 2019

चालबाज़ मदारी


चालबाज़ मदारी


   -डॉ राय साहब पाण्डेय

हर धंधे की अपनी एक विशिष्ट पहचान होती है | अगर पुजारी माथे पर कोई गोल, या एड़ा-  तिरछा टीका न लगाए तो बहुत से लोग उनको पंडित जी ही नहीं कहेंगे | इसी तरह अगर कोई साधू बनना चाहे तो लाल या गेरुआ रंग का वस्त्र और हाथ में चिमटा ही शोभायमान होगा | और अगर जादूगर चालाक ही न हो तो वह जादूगर ही क्या?

टिंकू अब बड़ा हो गया है | अब उसका अपना असली नाम भी है | गाँव के स्कूल में पढने भी जाता है | अपनी दादी की मेहरबानी से थोड़ी बहुत दुनियादारी भी सीखने लगा है | यह भी जान गया है कि आँगन की मुंडेर पर बैठ कर अगर कौवा काँव-काँव करे तो उसके मामा आने वाले हैं|

गर्मी की चिलचिलाती धूप में बच्चों को घर से निकलने की मनाही है | लेकिन बच्चों को बाहर निकलने से कौन रोक सकता है? बच्चे अपनी माओं और दादियों के साथ सोने का नाटक कर रहे हैं या यूँ कहें कि उनका सोने का इंतजार कर रहे हैं | जैसे ही दादी की नाक से घुर्र-घुर्र की आवाज आनी शुरू हुई कि टिंकू एक-दो तीन | आम के बगीचे में उसकी टेन के बच्चे अक्सर जमा हो जाते | तरह-तरह के खेलों को सीखने की यही नर्सरी है यहाँ | पर आज कुछ अलग है |
गाँव की गर्मियों में यदि ढोलक की आवाज सुनाई दे तो समझ लेना चाहिए कि आल्हा गाने वाले अंकल लोग होंगे और नगाड़े की तड़तड़ाहट सुनाई दे तो नाच मण्डली | पर आज की आवाज़ इन दोनों आवाज़ों से अलहदा है | दादी ने भी सुनी | “अरे! यह तो डमरू बज रहा है | लगता है मदारी आया है |” दादी को भी मदारी का खेल देखने में मजा आता था | हमेशा एक एक ही खेल बार-बार देखने के बाद भी लोग बोर नहीं होते | वही नाग बाबा, वही जमूरा | गाँव के बच्चे, बूढ़े और जवान सभी एकत्र होने लगे | गाँव की कुछ महिलायें भी आ गईं | मदारियों को पता है कि उन्हें अपना ताम-झाम कहाँ रखना है | अक्सर यह जगह गाँव के बीचो-बीच हुआ करती है और किसी बड़े घर के बड़े द्वार के सामने जहाँ नीम के एक-दो विशाल पेड़ हों, अन्यथा धूप में बैठ कर कौन देखेगा मदारी को और मदारी के तमाशे को ! मदारी ने एक सरसरी निगाह दौड़ाई | काफी पब्लिक जमा हो गयी है | मदारी चालू हुआ, “मेहरबान-कद्रदान” दाहिने हाथ से डमरू नचाते हुए डम-डम की आवाज के बीच ‘पेट नहीं तो भेंट नहीं’ के साथ सामने जमीन पर बैठे बच्चों और थोड़ा दूर हट कर नाद पर या चारपाई पर बैठे बुजुर्गों से तालियों की गुजारिश की | बुजुर्ग लोग पके हुए लोग होते हैं, उन पर इस अपील का कोई असर नहीं हुआ | पर बच्चों का जोश तो सातवें आसमान पर है | ऐसे भी वे खेल देखने को उतावले हो रहे थे | बच्चों ने तालियों की गड़गड़ाहट से माहौल में रौनक डाल दी | मदारी और जमूरा दोनों खुश हुए और लोगों को उनके पीले दांतों के दर्शन भी हो गए | सुस्ती की मस्ती में अलसाए एक कमोरी (हंडिया) में रखे बिना दांत और कान के नाग बाबा के अंदर भी सुग्मुगाहट हुई | ‘बाबा’ को भी आभास हो गया कि अब उनके दर्शन देने का वक़्त आ गया है |

मदारी ने चीथड़े से बंधी हांडी के मुँह की रस्सी को ढीला किया | नाग देवता की हंडिया को बाएं  हाथ से थपथपाते हुए दाहिने हाथ से अपनी पुंगी (बीन) संभाली | बाबा का मरियल थूथुन बाहर निकला | मदारी की बीन एक्शन में आई | बजाना और हिलना दोनों एक साथ प्रारंभ | मदारी के दोनों हाथ अब उसकी पुंगी पर | थोड़ी देर में ही मदारी भी अपनी लय में था | बीन बजाते-बजाते हिंदी फिल्म की एक प्रमुख धुन “मन डोले मेरा तन डोले” पर आ गया | जनता को तो मधुर-सुरीला धुन सुनकर आनन्द आया पर नाग बाबा को इस धुन से क्या मतलब | वे तो मदारी के हाव-भाव में खो गए | मदारी तो फनकार निकला लेकिन देवता को फन खड़ा करने में कड़ी मशक्कत करनी पड़ी | बीन की जादूगरी और मदारी की कलाकारी ने देवता को अपनी रीढ़ पर ला खड़ा किया | इस बार तालियों का शोर इस बूढ़े नाग के लिए | मदारी ने अपना करतब दिखाना शुरू किया | कभी वह इस भुजंग को अपने गले में लपेट कर नीलकंठ बन जाता तो कभी हाथों की अंजली में कुंडली मार कर बैठे सर्प का दर्शन कराता | बड़े लोग तो यह सब अनेक बार देख चुके थे परंतु वे बच्चे जो पहली बार यह तमाशा देख रहे थे, अपने साथ आये बुजुर्गों की तरफ मुँह फेर कर दुबकने लगे | दादी ने भी टिंकू को ढाढ़स बंधाया और बोली, “अरे डर क्यों रहे हो? कुछ नहीं होगा | यह तो खेल है, सचमुच में ऐसा थोड़े ही होता है |” नाग का एक करतब अभी बाकी था | उसे मदारी की जीभ अपनी जीभ से चाटनी थी | मदारी ने भगवान से अपने प्राणों की रक्षा हेतु दुआ मांगी और लोगों से भी अपने जान की रक्षा के लिए प्रार्थना करने की गुहार लगाई | डमरू की डम-डम, बीन की धुन और तालियों की गड़गड़ाहट के मध्य उसने नाग का फन ही अपने मुँह में डाल लिया | कुछ बड़े कठ-करेजी लोग ही इस पहले ‘एक्ट’ के तीसरे ‘सीन’ को देखने का साहस दिखा सके | भुजंग जी को जमीन नसीब हुई | थोड़ा आगे बढ़े ही थे कि जमूरे ने पकड़ कर फिर हंडिया के हवाले कर दिया |

मदारी का दूसरा एक्ट प्रारंभ हुआ | जमूरा पहले से तैयार था | दूसरे एक्ट में अक्सर एक ही सीन हुआ करती थी लेकिन यह शहराती मदारी एक और सीन जोड़ने वाला था | एक बड़े से जूट के थैले में मासूम से दिखने वाला यह जमूरा कैद हो गया | मदारी और जमूरे का वाकयुद्ध शुरू हुआ |
मदारी: जमूरे?
जमूरा: जी, उस्ताद |
मदारी: क्या दिखाएगा?
जमूरा: करतब |
मदारी: कैसा करतब, बे |
जमूरा: वही, जो आपने सिखाया है, झूठ-मूठ का मरना |
मदारी धीरे से बोला, अबे क्या कह रहा है जनता सुन रही है |
जमूरा: पापी पेट का सवाल है, पेट नहीं तो भेंट नहीं |
मदारी: यह तो मैंने नहीं सिखाया |
जमूरा खिलखिला कर हँसा | उस्ताद यह तो उसी दिन जान गया था जब रोज-रोज झूठ-मूठ का मरना पड़ता है |
मदारी: जमूरे! आज सचमुच मरेगा तूँ |

छोटे बच्चे फिर एक बार दुबकने लगे | मदारी ने धमकाते हुए कहा, “बहुत बोल लिया, अब अपने भगवान्, खुदा और ईशा को याद कर ले |”
पर शहरी मदारी ने इस एक्ट में एक ट्विस्ट लाते हुए पूछा, “बहुत पटर-पटर बोल रहा है तूँ क्या इन मेहरबानों का जवाब देगा?
जमूरा: हाँ देगा |

मदारी ने जब वहाँ बैठे लोगों से सवाल पूछने के लिए कहा तो ढेर सारे लोगों ने हाँथ उठा दिए | जमूरा ट्रेंड था | मदारी हाथ उठाने वालों पर एक सरसरी निगाह डाली | इसमें अधिकतर युवा थे | कुछ मजाकिया किस्म के भी थे | मदारी ने एक युवक को सबसे पहले मौका दिया और उससे पांच तक गिनती गिनवाई | एक-दो-तीन-चार-पांच, लगे न आपको आंच | जमूरा समझ गया | युवक ने अपने दोस्तों की तरफ देखा फिर मुस्कुराया और पूछा, “मेरी शादी कब होगी?” जमूरे के लिए यह बहुत आसान सवाल था | उसने झट उत्तर भी दे दिया. “शादी का जोग नहीं लिखा है |” युवक झेंप गया और सारी पब्लिक के बीच एक जोरदार ठहाका गूंजने लगा | मदारी ने फिर एक मासूम से दिखने वाले बच्चे के उठे हाँथ की तरफ रुख किया |

मदारी : इस बच्चे का भविष्य बताएगा |
जमूरा : हाँ बताऊंगा ( गाने की धुन में बोला ) |
मदारी ने बच्चे को जमूरे के कान में अपना सवाल पूछने के लिए कहा | बच्चे जमूरे के कान के पास अपना सवाल दाग दिया जो और कोई नहीं सुन सका | लोग बोलते हैं मेरी माँ भाग गई है, कब आएगी? आख़िरकार जमूरा भी तो बच्चा ही था | उसे इस तरह के सवाल का कतई अनुभव नहीं था | उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा था वह क्या जवाब दे | देर होते देख मदारी ने कमान संभाली | “जमूरा कितना सोचेगा, जल्दी उत्तर बता” | बच्चे ने अबकी बार अपना कान जमूरे के मुँह की तरफ टिका दिया | जमूरा बोला, “तुम्हारे पास पैसे हैं तो मेरी मुट्ठी में रख दो, मुझे भूख लगी है | मेरी भी माँ नहीं है | बच्चे ने अपने जेब से एक अठन्नी निकाली और जमूरे की हथेली पर रख दिया | जमूरा बड़ी ही सावधानी से उसे मुट्ठी में बंद कर अपनी पीठ के नीचे छुपा लिया और बच्चे से बोला | तुम्हारी माँ कभी नहीं आएगी” |   

बच्चा जोर-जोर से रोते हुए कहने लगा, “मेरी माँ नहीं आएगी | इसने मेरा पैसा भी ले लिया” | मदारी और जमूरे दोनों के लिए यह एक अप्रत्याशित घटना थी | लोगों को पहले तो कुछ समझ नहीं आया पर थोड़ी ही देर में ही लोग सब समझ गए | उत्तेजित भीड़ उग्र होने लगी | कुछ नवयुवक मदारी की तरफ बढ़े और उसकी पुंगी दूर फेंक दी | जमूरा उठ खड़ा हुआ और दोनों दूर भागने लगे | लोग भी थोड़ी देर तक उसके पीछे भागे लेकिन दोपहर की कड़ी धूप में कहाँ तक पीछा करते? जमूरा और मदारी दोनों दूर बगीचे में एक पेड़ के नीचे बैठ गए |

मदारी का बड़ा चीथड़ा झोला, उसकी पुंगी और दूसरे गाँव में मिले अनाज का थैला यहीं छूट गया | कुछ लोगों ने उसके चीथड़े को टटोलना शुरू किया | अचानक नाग बाबा की बंद हंडिया पर नजर पड़ी | लोग पीछे हट गए | “अब इनका क्या करना है”, सामने से आवाज आई | अब तक बिना दांत वाले बड़े-बूढ़े शांत बैठे थे | अब उनका रोल आ गया | इन लोगों ने समझा-बुझा कर भीड़ के गुस्से को शांत किया और दो समझदार लोगों को मदारी को वापस लाने के लिए भेजा | मदारी को यकीन था कि उसका पालतू सांप अवश्य मिल जाएगा | शायद इसी यकीन के कारण वह बगीचे में रुका रहा | युवकों ने दूर से ही मदारी को हाँथ से वापस आने के लिए संकेत दिया | मदारी और जमूरा दोनों ही मुँह लटकाए वापस आ गए |

मदारी अपना थैला संभालने लगा | नाग बाबा को थैले के हवाले कर रहा था तभी पीछे से किसी ने कहा, “अबे मदारी, असली खेल तो दिखाया ही नहीं, जमूरे का क़त्ल नहीं करोगे?” मदारी फिर अपनी लय में लौट आया | जमूरे को पता है आगे क्या करना है | वह उसी जूट के लम्बे थैले के अन्दर पुनः घुस गया | उसे पता है कि अभी-अभी असकी जान बची है और अभी-अभी फिर मरना है पर इस बार झूठ-मूठ का | मदारी ने अपनी झोली से एक लपलपाती कटार निकाली | जमूरे के बंद थैले के ऊपर हाँथ नचाते हुए तथा अगड़म-बगड़म बुदबुदाते हुए कटार जमूरे के पेट में खोंस दी | पास में बैठे बच्चे अपनी आँखे नीचे किये हुए साँस रोक कर बैठ गए | मदारी का हाँथ लहू-लुहान हो गया | एक क्षण को लगा सचमुच जमूरा गया | मदारी अपना सर पकड़ कर ऐसे बैठ गया जैसे उसे अपने इस कृत्य का भयंकर अपराध बोध हो रहा हो | कुछ युवा उत्साही सब कुछ भूल कर तालियों की बौछार भी कर दी | शहरी मदारी के मन में संतोष जागा | उसे लगा कि अब कुछ कमाई जरूर हो जाएगी | डमरू की डुग-डुगी फिर तेज हो गईं | “मेहरबान-कद्रदान, पेट नहीं तो भेट नहीं” मदारी फिर से दुहराने लगा | लोग भी सब कुछ भूल गए | जिससे जो बन पड़ा अनाज, चवन्नी-अठन्नी सबने दिया | अंत में गुड़ के साथ पानी भी पीने को मिला |

जमूरे ने नाग वाली और मदारी ने अनाज वाली थैलियाँ अपने-अपने कन्धों पर संभाल लिया | पुंगी मदारी के हाँथ में | एक बार फिर वही  धुन बजाते मदारी और जमूरे अपने घर की तरफ चल दिए | अब उनके पीछे कोई नहीं दौड़ रहा था | कुत्ते भी नहीं | क्षितिज पर सामने गोल-लाल सूरज अभी भी अपनी लालिमा विखेर रहा था | वातावरण चारों तरफ भूंसे की बारीक गर्द से धुंधला हो चला था | मदारी के पाँव तेज हो गए | घर पहुँच कर भोजन भी तो बनाना है | यहाँ कौन सा होटल रखा है? जमूरा शांत और दुखी दिख रहा था | मदारी ने जमूरे से कहा, “इस धंधे में ऐसा होता ही रहता है | तूँ परेशान मत हो |” जमूरे ने अपना मुँह खोला, “बापू, जमूरों की माएं क्यों भाग जाती हैं?” मदारी सन्न था | थोड़ी देर बाद मदारी ने अपना मुँह खोला और कहा “ताकि दूसरे जमूरों को माँ मिल जाय” |

जमूरे आज भी इस पहेली को सुलझा रहे हैं | 

Thursday, 28 March 2019

कोई ऑफ हो गया



कोई ऑफ हो गया
-डॉ राय साहब पाण्डेय 
समय भी क्या चीज है! कोई कहता है अजीब है तो कोई इसे दो पलों के बीच का अंतराल बताता है | पर मटरू को इससे क्या लेना? उनके लिए तो सवेरे सूरज उगा है तो शाम को उसे डूबना है | कुछ दिन पहले वे घर आने की तैयारी कर रहे थे, अब जाने की कर रहे हैं | एक बात तो माननी पड़ेगी कि घर आते वक़्त घर से जाने का ख़याल नहीं रहता है वरना सारा उत्साह बे मजा हो जाय | मटरू एक दिन आये थे अब जाएंगे | फिरहाल उनके लिए तो यही समय है |

शिवसागर जाने से पहले आज वे पड़ोस के गाँव में अपनी बिरादरी के लोगों से मिलने निकले | ढेर सारे लोगों को उसी तरफ जाते देख मटरू ने सहज भाव से एक लड़के से पूछा, ‘भैया सब लोग कहाँ जा रहे हैं?” लड़का यही कोई टिंकू की उम्र का रहा होगा | उसने भी उसी सहजता से जबाब दिया, “कोई ऑफ हो गया है” | लड़के के मुख से यह सुनकर एक क्षण को तो समझ ही नहीं आया कि यह क्या कह रहा है, पर तुरंत दिमाग की बत्ती जली और सब कुछ समझ आ गया | वह भी लोगों के साथ उसी दिशा में चल दिए | दिमाग की बत्ती जल चुकी थी इसलिए सोचते हुए चल रहे थे | पहले लोगों का स्वर्गवास होता था या सरग सिधार जाते थे या इंतकाल हो जाता था या फिर सिर्फ मर जाते थे, अब ऑफ होने लगे हैं | समय का एक और मायने समझ आने लगा | इह लोक से परलोक की यात्रा |

काफी लोग इकठ्ठा हो गए थे | मटरू ने भी उनका अंतिम दर्शन कर लिया | मटरू बचपन से ही उन्हें भलीभांति जानते थे | पर जबसे शिवसागर का रुख किया, बहुत कम बार ही ऐसा हुआ होगा जो इनकी सुध आई हो | लोगों में वे ‘लटदार’ साधू के नाम से प्रचलित थे | खैर उनकी ऑफ हुई काया अब माया मुक्त हो ‘डेड बॉडी’ में तब्दील हो गई थी | लोगों में इस बात को लेकर बहस हो रही थी कि अब इस ‘मिटटी’ का क्या करना है |  उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी | बहुत लोगों के लिए वे बिना गेरुआ वाले साधू थे तो कुछ उन्हें साधू ही नहीं मानते थे क्योंकि वे साधु बनने की औपचारिक दीक्षा से नहीं गुजरे थे |

“जाने वाला तो जा चुका, अब बहस से क्या फायदा”, भीड़ के मध्य से एक संयत आवाज उभरी  | लोग अचानक उसकी तरफ मुड़े | मटरू इस व्यक्ति को नहीं पहचानते थे | पता चला यह निमई थे और लटदार के नजदीकी | निमई ने अपना कथन जारी रखा, “बाबा तो कब से साधु बन गए थे | उनका हर कार्य दूसरों के लिए ही था | मेहनत-मजदूरी में भी दूसरों का ही हित देखते थे | जिसने जो खिला दिया खा लिया, कोई जूना-पुराना चिथड़ा दे दिया, पहन लिया | साधु, आखिरकार कौन होता है?” निमई की व्याख्या और तीव्र होने लगी, “'साध्नोति परकार्यमिति साधुः” | बताइए इस लिहाज से लटदार साधु थे या नहीं? आज के समय में साधु भले ही उनको कहते हों जो सन्यास दीक्षा लेकर गेरुए वस्त्र धारण करते है | वे भजन-कीर्तन अपने ढंग से करते थे, सीता-राम का नाम लेते थे | हाँ, वे कोई विशेष पंथ से नहीं जुड़े थे और न ही उनको इसका ज्ञान था | फिर भी वे साधु ही थे |” कुछ लोग अगल-बगल से कतरा कर चलते बने | जो बच गए, वे निमई से इत्तफ़ाक रखते थे | बचे लोगों में कुछ ऐसे भी थे जिन्हें शायद यकीन था कि कबीर के तरह लटदार की मय्यत भी फूलों में बदल जाय और इस क्रिया-कर्म से छुटकारा हो जाय | कबीर हिन्दुओं और मुसलामानों में बट गए थे | लटदार साधु-असाधु के चक्कर में | खैर, लटदार फूल नहीं बने | उनका संस्कार तो साधुओं की भांति ही करने का निर्णय किया गया | अब हिन्दू परंपरा के मुताबिक साधु-सन्यासियों और बच्चों का दाह-संस्कार तो किया नहीं जाता क्योंकि वे अपनी काया से मोह विहीन होते हैं, इसलिए उनकी माटी को माटी के हवाले ही करना होगा |

निर्जन पुस्तैनी जमीन के एक कोने में छह फीट गहरा और तीन फीट चौड़ा गड्ढा खोदा गया |  लटदार को नहला-धुला कर उनकी लट सवांरने की कोशिश की गई | जीते जी न तो खुद यह साधु अपने लट की कोई परवाह की और न ही किसी अन्य ने | मटरू ने जब भी देखा शरीर का ऊपरी तथा नीचे का भाग वस्त्र-विहीन था | मध्य भाग एक लंगोट से कसा और फटी मैली-कुचैली किसी की दी हुई धोती में लिपटा हुआ रहता था | साबुन तो उनके साधु बनने से पहले ही उनका नसीब छोड़ चुका था | लट, जिसके कारण उनका नाम लटदार पड़ा, किसी के सवांरने से कहाँ संवरने वाली थी? नए परिधान से लंगोटी पहना दी गई | शीतल लेप और सुगंधित इत्र से सज्जित, उदर-रहित, चौड़ी छाती वाले इस छह फुटे लटदार को एक बड़े आम के पीढ़े पर कमलासन में बिठा दिया गया | साधु की ऐसी मुद्रा जीते जी कभी नहीं दिखी थी | ऐसा लगता था यह लटदार बस अब सीता-राम बोलने ही वाला है | निमई और अन्य पड़ोसियों ने लटदार की मृत काया को पीढ़े सहित उठाया और माया-मुक्त माटी को माटी के हवाले सुपुर्द करने ही वाले थे कि निमई के पिता जी हाँफते-हाँफते आ पहुँचे और परशुराम की तरह गरज उठे | “ई सब तूँ लोग का कर रहा है? हमारे बाप-दादाओं में किसी का ऐसा संस्कार नहीं हुआ | लगता है तुम लोगन की मती मारी गई है |” एकाएक सब लोग सकपका गए | जो लोग वहाँ से चले गए थे, फिर इकठ्ठा होने लगे | भीड़ अब हिंदू–मुसलमान में बँट गई | अंत में बहुसंख्यक जीत गए | अब तक लटदार के मालिक का भी पदार्पण हो चुका था | उनसे भी सलाह-मशविरा किया गया | मालिक ने सलाह दी कि साधु की मिटटी का जल-प्रवाह किया जाय | सबने एक राय से उनकी बात मान ली | मालिक ने निमई के पिताजी को इशारे से एक तरफ बुलाया और कुछ रुपये उनके हाथ में रख दिए | लटदार की कमल मुद्रा वाली काया पीढ़े से उतार कर अब हरे बासों की टिकठी वाली शय्या पर लिटा दी गयी | शव को कफ़न से ओढ़ा दिया गया | लोगों ने कन्धा दिया | मटरू ने भी टिकठी को हाथ लगाया | मिटटी का मिटटी से मेल नहीं लिखा था | छह फीट गड्ढे के नसीब में लटदारको निगलना मुमकिन नहीं हो पाया | लटदार को गंगा के पवित्र जल में समाधिस्थ कर दिया गया | लटदार ने भी क्या किस्मत पाई थी | जीते जी मनुष्यों ने इस शरीर का शोषण किया और मरने के बाद मछलियों ने दावत उड़ाई | लटदार चिर समाधि में विलीन हो गए |

मटरू भारी मन से घर की तरफ चल दिए | लटदार के साथ आस-पास के अन्य जीवित और मृत साधुओं के बारे में सोचने लगे | साधु बनने की कोई औपचारिक विधि यहाँ नहीं थी | हाँ, दाढ़ी बढ़ाना एक अनिवार्यता जरूर लगती थी | गेरुआ धारण करना भी अनिवार्य नहीं था | यहाँ जितने भी छुटभैये साधु थे या जिनको लोग साधू कहने लगे थे, उनमे एक सार्वनिष्ठ समानता अवश्य दिखती थी | ये सभी साधू चिलमची थे | चिलम को भोले नाथ का प्रसाद मानते थे | तमाम असाधु और जन साधारण जनता को भी जब चिलम की तलब लगती थी तो वह उन्हें इन्हीं साधुओं के शरण और संरक्षण में आसानी से प्राप्त हो जाती थी | कुछ साधू तो साधु होने की आड़ में गांजे का धंधा भी करते थे | पुलिस को हप्ते का एक और सुनहरा जरिया भी बैठे-बैठाए मिल जाता था | ऐसे अनेक साधुओं को उनका नाम उनके मुख्य नाम के अपभ्रंश से ही सुलभ हो जाता था | मिसाल के तौर पर लोकनाथ लोकई और छबिनाथ छब्बू साधू बन जाते थे | भारतीय परंपरा में बढ़ी दाढ़ी और गेरुआ वस्त्र किसी भी छद्मभेषी को आसानी से पहुँचा हुआ साधु, महात्मा या फकीर बना देता है | ये साधु भभूत देने या झाड़-फूक करने की कला में भी माहिर होते हैं | यह सब कलाएं इन्हें स्वतः हासिल नहीं होती थीं | इसके लिए इन्हें भी चेलहाई करनी पड़ती थी | मंदिर धोना, साफ़-सफाई करना, बड़े अखाड़े के साधुओं की सेवा-टहल से यह सभी गुण इनके अंदर भी प्रस्फुटित होने लगते थे | मंदिरों पर एकाधिकार ज़माना और कमाई करना इन श्रेणी के साधुओं की खूबी बन जाती थी |

लटदार थोड़े अलग थे | स्वभाव से बिलकुल सरल थे | अन्य तथाकथित साधुओं की तरह न तो वे मंदिरों की रखवाली करते थे और न ही कोई दुकान-डलिया चलाते थे | पेट भरने के लिए उन्हें काम करना पड़ता था | गाँव-देहात में खेती में मजदूरी करने के अलावा और क्या काम मिल सकता था? कुछ रसूखदार लोग इसका फायदा उठाते थे | काम के बदले मोटा खाना और अत्यधिक काम लेने के लिए चिलम पकड़ा देना | गांजे के नशे में काम करते वक़्त काम ही दिखाई देता था और नशे में बेख़ौफ़ नीद का आनंद भी | अपना कोई घर द्वार नहीं | जहाँ काम किया वहीँ रस-पानी पी कर पसर गए | न तो खटिया-खटोला की परवाह और न ही ओढ़ना-बिछौना की आवश्यकता |

जाड़े का मौसम आ गया | अब दो महीने उनका गुजारा आसानी से हो जाएगा | गन्ने की पेराई का मौसम | रहने के लिए ईंख की सूखी पत्तियाँ मुफ्त मिल जाएँगी, जिससे उनकी मड़ई बन जायेगी | ठंढ से बचने के लिए कोई पुआल भी दे देगा | पुआल से ही ओढ़ना और बिछौना दोनों का काम हो जाएगा | अगर ठंढ अधिक हुई तो गांजे की एकाध पुड़िया मड़ई की बड़ेरी में मिल जाएगी | कुछ नहीं तो सूखी घास और फसलों की सूखी जड़ें तो मिल ही जाएँगी, जिन्हें जला कर तपनी की आग से ठंढ की ठिठुरन पर कुछ काबू हो जाएगा | उनके लिए समय का विभाजन एकदम पक्का है | सुबह छह बजे से दोपहर दो बजे तक गन्ने की कटाई, छिलाई और खेत से ढो कर पेराई की मशीन तक पहुंचाने का काम | और दो बजे के बाद गन्ने के रस को पकाने का काम | दूसरे अन्य मजदूर भी गन्ना चूसने के साथ-साथ लटदार के श्रम का भी चूषण करने से नहीं चूकते थे | छोटा मजदूर हो या बड़ा, लटदार उनके लिए एक आसान शिकार थे | ऐसा लगता था जैसे वे इन सबका मनोरंजन करने के लिए इस धरती पर आये हों | लटदार को इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता था | मालिक का मुँह लगा नौकर तो जैसे पिछले जनम की दुश्मनी निकाल रहा हो | जान बूझ कर उनका बोझ इतना बड़ा बनाया जाता था जैसे वे कोई इंसान न होकर ऊँट हों |

ऊँट का बोझ दर्जन भर लोगों ने मिलकर इंसान के सर पर लाद दिया | मोंटी गर्दन वाला यह साधु कभी-कभी तो बिना किसी पगड़ी के ही गन्ने के इस महाबोझ को लेकर डगमगाते पैरों से चल देता था | इस तरह लटदार अगर पांच फेरा भी कर दिए तो समझो आधे से अधिक काम तो अकेले इस बन्दे ने ही निपटा दिया | बोझ ले कर वे सीधे रास्ते नहीं चलते थे | जाड़े में नंगे पाँव खेतों के मध्य चलना उनके लिए बिलकुल आम बात थी | गर्दन और सर दोनों पसीने से बिलकुल तर-बतर लेकिन मजाल है कि बोझ अपनी सही जगह के बजाय और कहीं गिर जाय | वाह रे काम! नौकर ऐसा काम कर नहीं सकता, मालिक को ऐसा करने की आवश्यकता नहीं, तो लटदार को कौन सी श्रेणी में रखे? इसका निर्णय तो इस सीता-राम बोलने वाले के सीता-राम ही करें |

कलेवा का टाइम हो गया | उबला हुआ आलू, नमक के साथ सबको बाँट दिया गया | महिला नौकरानियों के जिम्मे कलेवा परोसने का काम होता था | कभी-कभी भुना हुआ चना या मक्के का लावा भी मिल जाता था | गग्गू घर के और खेती के काम का मुखिया था | मालिक के नजदीक होने के नाते किसी को कुछ भी बोल देता था | रस पिलाने का काम भी उसी के जिम्मे हुआ करता था | खेत जोतने वाला आदमी अगर नहीं आया तो हल की मुठिया भी उसी के जिम्मे आ जाती थी | सभी नौकर अपना-अपना गिलास या पुरवा-परई रखते थे लेकिन लटदार अपनी अँजुरी रोप लेते थे और एक सांस में कम से कम तीन लीटर गन्ने का रस पी जाते थे | अब इतना रस गिलास से कौन पिलाएगा? डकार लेने के बाद लटदार थोड़ा सुस्ताते थे और फिर एकाध लीटर रस पीने के बाद पानी से हाथ धुलते थे | इतना रस पीने वाले को कौन काम पर लगाएगा? भले ही वह फ्री में काम करे! गग्गू जल भुन जाता था | खरी-खोटी भी सुनाता था | पर कौन क्या सुनता सुनाता है, इसकी किसे परवाह है | “चलो लग जाओ काम पर”, गग्गू उपेक्षा से मुँह बिदका कर कहता | बचा-खुचा काम पूरा करने के बाद लटदार को कोल्हाड़ में ईंख की सूखी पताई, ईंख की खोई और अन्य ईंधन झोकने का काम मिलता था | आग के सामने पूरा समय अपना शरीर तपाते थे | इस काम में वे किसी की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं करते थे | शुक्र था कि ठंढी का मौसम होता था | गन्ने की पेराई के पूरे सीजन भर उनकी यही दिनचर्या होती थी |

लटदार को पानी से जैसे नफरत सी थी | शरीर पर भले पानी छू जाय, सर पर पानी का एक बूँद पड़ने नहीं देते थे | बिखरी, लपटी, जकड़ी लटें इस बात की गवाह थीं | मालिक की नजर कभी-कभार जब पड़ जाती तो उन्हें दूसरी लंगोट और गमछा मिल जाता था | उस दिन वे तालाब पर जाते थे और दुपहरी में डुबकी लगा लेते थे | उसी दिन अपनी लंगोट और पुराने गमछे पर रेह लगाते थे | लंगोट और गमछा इतना मैला हो चुका होता था कि रेह का उस पर बहुत मामूली असर दिखाई देता था | आते जाते यह ‘साफ़’ वस्त्र बच्चों को भी साफ़ दिखाई देने लगता था | बच्चे भी जैसे इस दिन का इन्तजार कर रहे हों | गग्गू तो पीछे ही पड़ जाता था | “क्या बाबा, आज तो चमक रहे हो”, गग्गू मजाक करता | लटदार बच्चों जैसी हंसी अपने होठों पर लाते थे और बिना कुछ कहे ही सब कुछ कह जाते थे | कभी-कभी जब बच्चे ज्यादा पीछे पड़ जाते तो गुस्से में कहते, “हाँ, तुम्हरे बाप ने साबुन दिया था न, उसी से साफ़ किया है | जाओ नहीं तो दूँगा एक डग्गर बस सब टिबिर-टिबिर निकल जाएगा |”

जाड़ा धीरे-धीरे कम होने लगा है | वही गन्ना जो इस लटदार की उदर पूर्ति कर रहा था, आज उसकी बुआई का दिन आ गया | तीन जोड़ी बैल नधेंगे | एक हल से हलकी, कम गहरी नाली बनेगी | दूसरे हल में फाल के दोनों तरफ उपले बांधे जाएंगे | इस जुगाड़ से पहले हल द्वारा बनाई गई नाली और गहरी हो जाएगी | इसके बाद ही गन्ने के कटे हुए तने जिसमें कम से कम एक-दो आँखे (बड्स) हों, बो दिए जाएंगे | तीसरा हल इस गन्ने के ऊपर मिट्टी डालने के लिए प्रयुक्त होता है | लटदार को यह काम करते-करते महारथ हाशिल हो गई थी | गन्ने के इस कटे हुए तने को स्थानीय बोली में ‘गाड़’ कहा जाता है | पानी से भीगे हुए गन्ने के बोझों को खेत में लाना, उन्हें छोटे-छोटे ‘गाड़ो’ में काटना और सही ढंग से हल चला कर इनकी बुआई करना अपने आप में बड़े ही समन्वय का काम होता है | इस कार्य को सफलता पूर्वक संपन्न करने के लिए अनेक लोगों की आवश्यकता पड़ती थी | लोग बोलते कि लटदार तो हैं न, अकेले ही एक जोड़ी बैल का काम करेंगे |

आज होली की रात थी | लटदार बेखबर अपने झोंपड़े में सोए हुए थे | कुछ नए टेन के रंगरूट अपनी शरारतों से कभी बाज नहीं आते | उनका यह झोंपड़ा भी होलिका को भेंट चढ़ गया | तड़के उठने पर उनके सर की छत गायब थी | उन्हें समझ आ गया कि अब उनके चलने का समय आ गया है | बोरे-नुमा एक मिर्जई पहने और हाथ में एक चिमटा लिए सीता-राम बोलते किस दिशा में चल देंगे, लटदार को स्वयं कुछ नहीं पता था |

लटदार हमेशा से ऐसे नहीं थे | प्रत्येक इंसान की तरह उन्हें भी उनकी माँ ने ही जनम दिया था | हिंदू जाति-व्यवस्था में उन्होंने एक धोबी कुल में जन्म लिया था | आठ साल की उम्र में स्कूल का मुहँ देखने का अवसर भी मिला | यहाँ भी उनका कुल उनसे पहले ही स्कूल में दाखिला ले चुका था | पंडित जी की छड़ी और तानों ने उनका यह रास्ता हमेशा के लिए बंद कर दिया | “सारे गधे स्वर्ग चले जाएंगे तो लादी कौन धोएगा?” अक्सर यह ताना सुनने को मिलता था | सुबह-शाम अखाड़े में वर्जिश और बाकी समय में लोगों के कपड़ों को उनके घरों से ला कर, गधे पर लाद कर धोबी घाट ले जाना, रेह लगा कर कपड़ों को तालाब के पानी से साफ़ करना, सुखाना और फिर घर पर लाना उनकी जीवनचर्या का अभिन्न अंग बन गया | स्कूल आते-जाते बच्चे उनके स्कूल छोड़ने के बाद भी अपने तानों से आहात करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते | धोबी घाट के पास पहुँचते ही बच्चे गधे की आवाज में ‘छी-पो-छी-पो’ करने लगते | लटदार तब लटदार नहीं थे | शायद उनका कोई नाम ही नहीं था | स्कूल में दाखिला हुआ होता तो संभव था उन्हें भी कोई ‘नट्टू, तूफानी, पिस्सू’ आदि नाम मिल जाता | सुन्दर, सभ्य, सुशील नामों पर तो केवल अभिजात्य वर्ग के लोगों का ही एकाधिकार था | अध्यापक लोग इन लोगों के माँ-बापू से पूछते भी नहीं थे कि उनके बच्चे का क्या नाम रखना है | जिस जजमान के घर का ज्यादा कपड़ा धोते उस दिन उसी के यहाँ भोजन का इंतजाम हो जाता | अच्छी खुराक और अच्छी दमकशी के साथ बकरी के दूध ने कमाल दिखाया और लटदार का हृष्ट-पुष्ट शरीर शीघ्र ही एक पहलवान युवक के रूप में परिचित हो गया | आस-पास के दंगलों में वे कुश्ती लड़ने लगे लेकिन कुदरत को यह रास नहीं आया | किसी महात्मा के फेर में पड़ कर एक रात घर-बार छोड़ कर निकल पड़े |  

लगभग तीन दशक के बाद अचानक उनका पुनः प्रादुर्भाव हुआ | यह समय लटदार के जीवन –काल का अंध-युग कहा जा सकता है | लटदार इसके विषय में किसी से कुछ बात भी नहीं करते थे | लौट कर आने के बाद वे जटाधारी बन गए थे और भजन आदि में अपना मन लगाते थे | जो भी उनकी पैत्रिक संपत्ति थी उसे बेच-बाच कर देवी के एक पुराने स्थान का जीर्णोद्धार करवाया और कुछ नीम और पीपल के वृक्ष भी लगाए | इस मंदिर का आहाता भी घेरवाया और वहां पर पूजा-पाठ भी करने लगे | कुछ दिनों तक यह सब विधिवत चलता रहा लेकिन फिर उनकी जाति उनके सम्मुख आ खड़ी हुई | पेट की अग्नि ने उन्हें मजदूर बना दिया और वे लटदार साधू के रूप में स्थापित हो गए | गर्मी की प्रचंड धूप हो या जाड़े की तीव्र ठंढ, उनका शरीर सब कुछ सह लेता था | सर का बाल लट में बदल गया और दाढ़ी अपने आप झड़ गई | समय के थपेड़े ने उनकी देह को बज्र सम बना दिया | समय के साथ यह बज्र भी शिथिल होने लगा | धूल-धक्कड़ से आँखों में कीचड़ भरने लगा | बड़ी-बड़ी डरावनी आँखे अब मुंदने लगी थीं | जब कभी-कभार कोई आँख में लगाने के लिए मरहम दे देता था, सीता-राम बोलकर उसका धन्यवाद जरूर करते थे |   

न जाने कितने लटदार इस धरती पर आये और चले गए | लोगों को कुछ फर्क नहीं पड़ा | कुछ लोग सहानुभूति जताते हैं तो अधिकाँश लोग मज़ाक उड़ाते हैं | थोड़े समय बाद तो कोई उनका नाम भी लेने वाला नहीं रहता | मटरू व्यथित मन से उस देवी स्थान पर पहुँच गए जहाँ कभी लटदार बैठा करते थे | हवा की हल्की बयार भी पीपल के पत्तों को हिलने के लिए मजबूर कर देती है | अचानक पत्तों की सरसराहट मटरू के कानों में डूबने लगी | ऐसा आभास होने लगा जैसे यह सरसराहट कुछ कह रही को | बस यही जीवन है | हो सके तो लोगों के जीवन में, लेशमात्र ही सही, शीतलता घोल दो | मटरू की तन्द्रा भंग हुई | मस्ती में हिलती-डुलती पीपल की लटकती हुई एक टहनी को पकड़ा, पत्तों को बड़ी ही कोमलता से सहलाया और छोड़ दिया | टहनी फिर से हिलने लगी | मटरू नम आँखों से टहनी को देखते हुए विदा हो गए |