Thursday, 27 July 2017



रिश्ता या पैसा
-राय साहब पांडेय
रिश्ता माया, पैसा माया
रिश्ते में पैसा जब आया
रिश्ता धूमिल बादल छाया
बिन पैसा कुछ काम न आया
उलझन में फंस गया रे भाया
चौराहे पर खड़ा मुसाफ़िर सोचे
रिश्ता या फिर पैसा?

पैसों से रिश्ते बन जाते
बिकते रिश्ते पैसों से
स्नेह-वैर मिलता पैसों से
दोस्त भी दुश्मन हो जाते
जब पैसा आता रिश्तों में
चौराहे पर खड़ा मुसाफ़िर सोचे
रिश्ता या फिर पैसा?

परिवारों में दूरी बढ़ती
डाह-जलन भी पैसों से
बनते खून के रिश्ते पानी
पैसों से माफ़ी मिल जाती
कत्ल भी होते पैसों से
चौराहे पर खड़ा मुसाफ़िर सोचे
रिश्ता या फिर पैसा?

पैसे-रिश्ते का खेल निराला
सोचें खोल दिलों का ताला
याद करें तब प्रथम निवाला
मन सुलझे, छटे बादल काला
पैसा नहीं, रिश्ता पहले आला !
चौराहे पर खड़ा मुसाफ़िर, अब क्या सोचे
जब रिश्ता ही हो पैसा !

Friday, 21 July 2017

साइकिल घड़ी अंगूठी कलम


साइकिल घड़ी अंगूठी कलम

-राय साहब पांडेय 
लाजो मान गई है | परिवार में चहल-पहल थी |  लोग एक-दूसरे से कानाफूसी कर रहे थे चलो, अंत भला तो सब भला | लड़के बाज़ार दौड़ाए जा रहे थे | हर साइकिल पर दो सवारी कम से कम आज के दिन तो नहीं जा सकती थी क्योंकि साइकिल के कैरियर पर तो सामान ही लदने वाला है | किसी ने सुझाया आज के दिन भी भला कोई साइकिल देने से मना करेगा क्या? अगल-बगल से मांग लो | साइकिल का इंतजाम तो जैसे-तैसे हो गया, पर कुछ एक साइकिलों में पीछे के पहियों में हवा ही  नहीं थी | पर नई टेन के जोशीले नवयुवकों में इसकी परवाह कहाँ होती है? पंचम ने फ़ौरन सयानों जैसा जवाब देते हुए कहा, अरे भइया, आप एका चिंता काहें कर रहे हैं, बस आगे तिरमोहानी पर हवा भरवा लेंगे | भइया जी भी अपना फर्ज निभाते हुए बोले, “अरे पता नहीं, पंचर भी हो सकता है, बनवा लेना | और हाँ, गर्मी बहुत है, रास्ते में पानी-ओनी पीते रहना | सामान बाँधने के लिए पुराना ट्यूब भी रख लेना |”

चार नवजवानों ने अगल-बगल के बाजारों के लिए कमर कस ली | उन दिनों छोटी-मोटी चीजों के लिए भी बाज़ार पर ही निर्भर रहना पड़ता था | खाने-पीने की चीजों  से लेकर बर-बर्तन, कपड़ा-लत्ता या गहना-गुरिया सभी के लिए बाज़ार ही जाना पड़ता था | तरकारी-भांजी, मर-मसाला और तमाम अगड़म-बगड़म सामान तो इन बच्चों को सुपुर्द कर सकते हैं पर शादी-ब्याह में दुल्हन के कपड़े, जेवरात और लड़के तथा बारातियों के लिए विदाई का सामान तो खुद ही देख-सुन कर, मोल-भाव करके ही लेना पड़ेगा | “अब ज्यादा समय नहीं है सोमू, एक-दो लोगों को अपने साथ लो और तुम भी निकलो | और हाँ, जैसा मैंने बताया था उसी के मुताबिक एक लिस्ट तैयार कर के अपने पास रख लेना”, पड़ोस के शिव शंकर चाचा ने हिदायत देते हुए कहा | आख़िरकार, चाचा ही अपने रिश्ते में यह शादी करवा रहे थे | इस लिहाज से वे ही तो अगुवा हुए |

आज की बात कुछ और है | सामाजिक रीति-रिवाजों में बहुत बदलाव आ चुका है | पर आज से तीस-चालीस साल पहले शादी के लिए इश्तहार तो बिरले लोग ही देते थे | अगुवा और पंडित के बिना शादी की कल्पना करना भी मुश्किल था | दरअसल, अगुवा लोग लड़की और लड़के पक्ष के लिए न केवल एक सेतु का कार्य करते थे वरन रिश्ते के लिए जरूरी आपसी विश्वास की भी गारंटी होते थे |  

दुल्हन का नाम लाजवंती था | उसकी माँ प्यार से उसे लाजो बुलाती थी | जब माँ ही लाजो कहे तो भला और लोगों को इस नाम से क्या परहेज हो सकता था | वह पूरे मोहल्ले की लाजो थी | नैन-नक्श तो ठीक था पर कद काठी सामान्य से कम | सांवली थी अपने माँ जैसे | उसका भाई सोम प्रकाश लम्बा छरहरा और गेहुँए रंग का तकरीबन पैंतीस वर्ष का समझदार युवक था | पढ़ने-लिखने में शुरू से होशियार था | सरकार की तरफ से वजीफ़ा भी मिलता था | नजदीकी स्कूल में पढ़ाई पूरी करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए बड़े शहर जाना पड़ा | सोम प्रकाश के पिता की मोहल्ले में ही किराने की दुकान थी | ठीक-ठाक चलती भी थी | सोम प्रकाश की पढ़ाई का खर्च और परिवार का भरण-पोषण अच्छे से हो जाता था |

कहते हैं न तकदीर कब और कैसे करवट बदले कुछ बोल नहीं सकते | सब कुछ ठीक चल रहा था तभी सोम के पिता एक सड़क दुर्घटना में बुरी तरह जख्मी हो गए | लाद-फान कर अस्पताल पहुँचाया गया | दस दिन अस्पताल में रहे पर होश नहीं आया और बेहोशी की हालत में ही दम तोड़ दिया | परिवार पर मानो विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा | सोम उस समय बीस का था जब घर की सारी जिम्मेदारी उस पर आ पड़ी | पिता की जमा पूजी पहले अस्पताल का बिल चुकाने में और फिर उसकी पढ़ाई लिखाई में ख़त्म हो गई | आज के जमाने में तो पढ़ाई के लिए लोन मिल जाता है, लेकिन पहले यह सब सुविधाएं कहाँ थी? लोन के लिए कौन गारंटी देता? गिरवी रख कर लोन लेना भी बड़े जोखिम का काम था चाहे वह बैंक हो या कोई महाजन | कुछ दिन तक पिता की दुकान पर बैठा, कोशिश की फिर से पटरी पर लाने की | पर क्रेडिट (साख) पर सामान देने के लिए साहूकार लोग आनाकानी करने लगे | घर में किचकिच बढ़ गई | अंत में हारकर सोम दुकान पर बैठना छोड़ कर नौकरी की तलाश शुरू कर दी | बेहतर पढ़ाई और प्रतिस्पर्धी परीक्षा में अच्छे रैंक के चलते नौकरी मिलने में कोई दिक्कत नहीं हुई | बेटे की नौकरी लग जाने से परिवार में आजीविका का एक मुकम्मल साधन तो हो गया लेकिन घर मोहल्ले को छोड़ दूर शहर जाना पड़ा | माँ-बेटी पीछे छूट गए | लाजो ग्यारह की थी और वहीं पड़ोस के स्कूल में पढ़ती रही | सोम प्रकाश नियमित रूप से माँ को पैसे भेजते रहे जिससे आसानी से गुजर बसर होता रहा | लाजो के मामा माँ-बेटी का हाल-चाल लेते रहते थे और सोम प्रकाश भी साल में कम से कम एक बार तो आते ही आते थे | माँ को अपने साथ ले जाने के लिए बहुत कोशिश की लेकिन माँ टस से मस नहीं हुई | नौकरी करते तीन साल बीत गए | सोम की माँ और मामा ने मिलकर सोम के लिए एक रिश्ता भी तय कर दिया | रस्म-रिवाज के मुताबिक जल्दी से शादी भी हो गई | लाजो ने अब बारहवीं पास कर ली थी | आगे पढ़ाने के लिए घर से दूर भेजने के लिए माँ राज़ी नहीं हुई | लाजो को घर पर ही बेकार बैठी रहती थी इसलिए सोम प्रकाश ने कोशिश कर के प्राइवेट बी.ए. के लिए फॉर्म भरवा दिया | लाजो अब करीब अठारह की हो गई |

हम अपने को सामाजिक प्राणी मानते हैं | हमने बेशक प्रगतिशील और बौद्धिक क्षमताएं हासिल की हैं | पर आज भी क्या हम अपनी मान्यताओं को दूसरे से श्रेष्ठ साबित करने में नहीं लगे रहते? निश्चय ही समाज में ऐसे लोगों की संख्या  बहुतायत में है जो निरीह और कमजोर तबकों के बारे में सार्थक सोच रखते हैं तो वहीं ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो इनका शोषण करने में कतई कोताही नहीं करते | लाजो भी इसका शिकार हो रही थी | मोहल्ले के छिछोरे उसके घर पर किसी न किसी बहाने आने लगे | कोई यह आश्वासन देने आ जाता था कि उसके रहते माँ-बेटी को कोई तकलीफ नहीं होने पाएगी | समय-कुसमय ऐसे लोगों का आना लाजो की माँ को बिलकुल नहीं भाता था | धीरे-धीरे माँ-बेटी का मामा के यहाँ जा कर रहने का सिलसिला बढ़ गया | और फिर तो मोहल्ले में तभी आना होता था जब सोम प्रकाश और उसकी पत्नी शहर से आते थे | लाजो का मामा के गाँव में मन लगने लगा | यहाँ उसे अपनी मर्जी से घूमने और लोगों से मिलने की आजादी थी | उसके मामा का भरा पूरा परिवार था | सगे मामा तो एक ही थे लेकिन मामा के कई चचेरे भाई और उनके बेटे बेटियाँ सभी साथ रहते थे | एक बड़ा सम्मिलित परिवार था | लेकिन लाजो का कोई भी सगा ममेरा भाई नहीं था |

लाजो के मामा का एक भतीजा, संतोष बाहर रहकर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था | अभी पढ़ाई का कोर्स पूरा होने में दो साल का वक्त था | हर सेमेस्टर के बाद वह घर आता था | संयोग से लाजो भी मामा के घर पर ही होती थी | संतोष होनहार और प्रगतिशील विचारों का नवयुवक था | हर बात को बेधड़क और बेबाक नजरिये से बयान करता था | साफगोई उसे पसंद थी | लाजो और संतोष बैठ कर घंटों बात किया करते थे | संतोष अपने दोस्तों और कॉलेज के बारे में बताता रहता था | लाजो ने एक मर्तबा उससे पूछा क्या उसके कॉलेज में लड़कियाँ भी पढ़ती हैं और शर्मा गई | संतोष ने उसी बेबाक लहजे में जवाब दिया, “हाँ, यह तो बहुत ही आम बात है | हम एक दूसरे से बात भी करते हैं और साथ में सैर-सपाटे के लिए भी जाते हैं | आपस में दोस्त की तरह ही रहते हैं |” इस तरह बेबाक उत्तर पा कर लाजो उससे और घुल-मिल गई | धीरे-धीरे दोनों की नजदीकियाँ बढ़ने लगी और फिर पता नहीं चला कब उनकी दोस्ती और प्रगाढ़ हो गई |

प्यार और तकरार छिपाने से कहाँ छुपते है | कुछ दिनों बाद बात जग जाहिर हो ही गई | जो भी हो चचेरे मामा का लड़का हो या सगे मामा का, रिश्ते में तो भाई ही लगेगा! यह रिश्ता दोनों तरफ किसी को मंजूर नहीं था | माँ का दर्द तो माँ ही समझ सकती है, उसे लाजो के पिता याद आने लगे | यदि वे जिंदा होते तो उसे कभी भी इस जिल्लत से नहीं गुजरना पड़ता | तरह-तरह के खयाल मन में आने लगे | एक तो मायका था, यहाँ भी इसने आने लायक नहीं छोड़ा | क्या मुंह दिखाएगी दुनिया को अगर मोहल्ले के लोगों को पता चलेगा तो? खैर, इस रिश्ते के होने का तो सवाल ही नहीं उठता था | आज का समय होता तो शायद परिवार वाले मान भी जाते या लड़की-लड़का भाग कर शादी कर लेते | लाजो और उसकी माँ दोनों अपने घर आ गए | सोम प्रकाश ने कुछ दिनों के लिए माँ को अपने पास बुला लिया | उसका तीन साल का एक लड़का था सोचा माँ का मन लग जाएगा | अब सारी कोशिश लाजो के ब्याह के लिए होने लगी |

लाजवंती अब भी कहीं और रिश्ते के लिए तैयार नहीं हो रही थी | कई जगह बात चलती थी लेकिन वह साफ़ मना कर देती थी | धीरे-धीरे लाजो बाईस की हो गई | जवान बेटी घर में बैठी हो तो माँ–बाप से ज्यादा चिन्ता पड़ोसियों को होने लगती है | मोहल्ले वालों को भी शादी में देरी वाली बात अंततः पता चल ही गई | शिव शंकर चाचा से इस परिवार का करीबी सम्बन्ध था | सुख-दुःख में दोनों परिवार एक दूसरे के काम आते थे | सोम के पिता के गुजरने के बाद भी सोम प्रकाश ने चाचा से अच्छे संबंध कायम रखे हुए थे | उन्होंने कोशिश की और अपने रिश्ते में ही एक संपन्न परिवार में लाजो का रिश्ता तय हो गया |

यह एक धरुआ शादी थी और ‘चट मंगनी पट ब्याह’ के तर्ज पर हो रही थी | हिन्दू रीति-रिवाज में आठ तरह की विवाह पद्धतियाँ मानी गई है | इसमें सबसे ऊपर ब्रह्म-विवाह आता है जिसमें वर-वधू दोनों पक्षों की सहमति से समान वर्ग के सुयोग्य वर से कन्या की शादी कर दी जाती है | धरुआ विवाह भी इसी का एक छोटा संस्करण है | इसमें ज्यादा बाराती नहीं आते हैं | वर पक्ष के कुछ खास लोगों के अलावा कुछ नजदीकी रिश्तेदार ही शामिल होते हैं | भले ही बारातियों की संख्या कम हो लेकिन शादी तो फिर भी शादी ही होती है | कुछ खास रिश्तेदार और मोहल्ले वाले भी तो शामिल होंगे ही | विवाह का सारा खर्च और वर तथा कन्या पक्ष के सभी रस्म सोम के घर पर ही संपन्न होना था | इस लिहाज से चाचा की हिदायत बहुत जायज थी | आखिरकार पड़ोसियों की दौड़-धूप और सहयोग से सारी तैयारियाँ पूरी कर ली गईं | भले ही बाराती ज्यादा नहीं आने वाले थे लेकिन देन-लेन में सोम ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी | लाजो के लिए साड़ियाँ एवं गहनों का काफी कुछ इंतजाम पहले से ही कर रखा था | एक बहन थी वह भी बिना बाप के | इस बात का सोम पर बहुत बड़ा बोझ था क्योंकि वह भाई और पिता दोनों की भूमिका में खरा उतरना चाहता था |  शिव शंकर चाचा भी इस बात को बखूबी जानते थे |

अगले दिन लड़के को लेकर कुछ बाराती आ गए | पंडित, नाई और बाजे-गाजे वाले भी आठ बजे तक पहुँच गए | गीत-गवनई के साथ ब्याह के कार्यक्रमों का शुभारंभ हो गया | मटमंगरा, भत्तवन, मातृपूजा आदि विधियाँ संपन्न हुईं | दोपहर के भोजन के पश्चात विवाह का मुहूरत था | वर और कन्या पक्ष के लोग विवाह के लिए मंडप में बैठ गए | यद्यपि शुरू में लाजो इस विवाह के लिए राज़ी नहीं थी लेकिन लड़के की शिक्षा-दीक्षा और परिवार के विषय में जान लेने के बाद उसने हाँ कर दी थी | सोम ने कन्यादान किया और विधिवत् विवाह हो गया | शाम के भोजन के पश्चात ही विदाई का कार्यक्रम था | सब कुछ इस तरह से नियोजित था कि सात बजे तक बारातियों की विदाई हो जाए |

शादी संपन्न होने के उपरान्त प्रथा के अनुसार दूल्हा घर के आँगन में जाता है और उसकी विदाई और दहेज़ का अन्य सामान वहीं पर रख दिया जाता है | एक तरह से नुमाइश की जाती है | इसके पहले कि लड़का सामने रखे अग्नि पात्र में दही-गुड़ डालने के बाद अपना मुंह जुठारे, बाराती और घर के लोग सभी सामान का मुआयना करने के लिए बुलाये जाते हैं | जब तक घर का कोई बुजुर्ग संकेत नहीं करता, लड़का अकसर दही-गुड नहीं करता | खैर, बाराती तो कुछ खास थे नहीं, जो थे सभी आँगन में आ गए | सर सरी तौर पर लड़के के बड़े भाई ने अपनी निगाह दौड़ाई | लड़के की कलाई पर घड़ी, उँगली में अंगूठी और कोट की जेब में एक जोड़ी गोल्डेन पेन देखी | बगल में चमचमाती साइकिल रखी हुई थी | लड़के के सामने मर्फी ट्रांजिस्टर भी देखा, लेकिन गले में चेन नहीं दिखी | अब क्या, बड़े भाई बिफर गए | लोगों ने समझाना शुरू किया कि ठीक है समय आने पर वह भी दे देंगे लेकिन वह एक भी सुनने के लिए तैयार नहीं थे |

शिव शंकर चाचा को बुलाया गया | उन्होंने हलके से कहा, “बच्चा तुम सब पढ़े लिखे हो, समझदार हो, यह नादानी ठीक नहीं है | भगवान का दिया सब कुछ तुम्हारे पास है, क्यों जिद कर रहे हो | हँसी-ख़ुशी के माहौल में ऐसा करना ठीक नहीं होता |” बड़े भाई आज रंग में थे बोलने लगे, “फूफा जी, आजकल साइकिल, घड़ी, कलम और अंगूठी तो सब लोग देते हैं | यहाँ तक कि छोटी जाति वाले भी आसानी से ऐसी विदाई कर देते हैं | लोग क्या कहेंगे? अमुक के बेटे की शादी हुई, कुछ नहीं मिला | इससे अधिक सामान तो हमारे पड़ोसी के लड़के की शादी में मिला था | अब आप ही बताओ मेरी क्या इज्जत रह जाएगी |” चाचा को इस तरह के उत्तर की आशंका नहीं थी | अब उन्हें भी लगने लगा कि शायद यह मेरी भी बात नहीं सुनेगा फिर भी उन्होंने समझाते हुए एक और प्रयास किया, “देखो बेटा, हर लड़की वाला अपनी हैसियत से अधिक ही खर्च करता है और तुम तो जानते हो कि यहाँ सोम के अलावा और कोई कमाने वाला नहीं है | फिर भी वह कह रहा है कि कुछ समय दे दो वह चेन भी दे देगा | वैसे मेरा मानना है कि इंसान के आगे क्या मांगना, मांगना हो तो चार भुजा के आगे मांगो | इन्होंने तो कन्या दान किया है और देने वाला छोटा नहीं होता है | अपनी और इनकी मर्यादा का ख्याल करो और हँसी–खुशी जो मिला है उसे स्वीकार करो |” इतना सुनने के बाद तो बड़े भाई का पारा और चढ़ गया | वे तमतमा गए और बोले, “आप के कहने पर हम लोगों ने यह शादी मान ली | दूसरे के विषय में भाषण देना आसान होता है | आपके ऊपर जब पड़ेगा तो देखेंगे |” इतना कहते हुए उन्होंने  लड़के को आदेश दिया, “उठो, हो गई इन लोगों की | अब एक मिनट यहाँ नहीं ठहरना है | इनका सारा सामान यहीं फेंक दो | लड़का क्या करता | बुझे मन जो सामान मिला था वहीं छोड़कर उठ गया | बारात बिना दुल्हन की विदाई के वापस चली गयी |  

किसी भी नवविवाहिता की जिन्दगी में इससे भयानक क्या हो सकता है ! माँ और अन्य रिश्तेदारों से विदा लेने का गम क्या कम था जो यह एक अप्रत्याशित और असहनीय वेदना का भार चोट कर गया? उसने अपने को एक कमरे में बंद कर लिया | वह सोच रही थी काश! विवाह के पहले ऐसा हुआ होता तो वह कुछ निर्णय कर सकती थी | फिर अचानक उसे माँ का ख़याल आया | माँ तो निढाल पड़ी थी | अपना दर्द भूल कर वह माँ को सांत्वना देने लगी | यही होता है बेटियाँ कितने जल्दी समझदार हो जाती हैं ! किसी ने ऐसा सोचा नहीं था कि ख़ुशी का माहौल एक क्षण में इस तरह ग़मगीन हो जाएगा |

चाचा जी का भगीरथ प्रयास असफल हो गया | उनको अपने मान सम्मान का गम नहीं था, वह तो सोच रहे थे कि एक नेक काम करने चले थे, उलटा ही पड़ गया | मनुष्य किस तरह सड़ी-गली मान्यताओं से जकड़ा हुआ है | समाज में झूठी मान मर्यादा की तड़प हमें किस प्रकार इंसानियत से मरहूम कर देती है | आज जो भी हुआ क्या उससे दोनों में से किसी भी परिवार के सम्मान में लेशमात्र भी इजाफा  हुआ? सारी दुनिया उन्नति करे हमें मंजूर है, पर पड़ोसी का हमसे आगे निकलना हम कतई नहीं पचा पाते | कभी-कभी तो लगता है कि यदि दो पड़ोसियों में बोलचाल कायम है और गाहे-बगाहे वे एक दूसरे की खोज-खबर ले लेते हैं तो दोनों ही पड़ोसी सचमुच आदर्श इंसान होंगे !

सोम को समझ नहीं आ रहा था इस समस्या से कैसे निपटे | चाचा जी से विचार-विमर्श किया | वे भी क्या कहते, कुछ तो समाधान निकालना ही था आखिर लाजो की जिन्दगी का सवाल था | सोम ने तय किया कि वह सम्मान के साथ सारा सामान लाजो के घर पहुँचाएगा और लड़के के पिताजी से क्षमा याचना कर लाजो की विदाई के लिए अनुरोध करेगा | पड़ोस के दो और लड़कों को लेकर चाचा जी के साथ अगले ही दिन अपनी पत्नी की चेन लेकर सोम लाजो की ससुराल गया | लाजो के ससुर एक सभ्य इंसान थे उन्होंने अपने लड़के के किए पर अफ़सोस जाहिर किया और चाचा जी से, जो रिश्ते में उनके जीजा लगते थे, माफ़ी मांगी | लाजो की विदाई कराने वे खुद आएंगे ऐसा आश्वासन दिया |

एक हफ्ते बाद ही लाजो का पति, उसके ससुर और कुछ छोटे बच्चे लाजो को लिवाने आ गए | लाजो की माँ के आँसू थम नहीं रहे थे | कुछ ख़ुशी के कारण और कुछ बेटी से विछोह के कारण | शायद बेटी को विदा करने की ख़ुशी उससे बिछड़ने के गम पर बहुत भारी थी | सोम और चाचा जी भी एक कोने में खड़े हो कर सुबक रहे थे | पर ये सारे आँसू ख़ुशी के थे |

और लाजो विदा हो गई | पर अब साइकिल मोटर साइकिल में और मोटर साइकिल चार पहिया में तबदील हो गई है | समाज से दहेज़ का कोढ़ साफ़ होना आज भी बाकी है |
     





Sunday, 16 July 2017

बुजुर्ग



बुजुर्गियत
-राय साहब पांडेय
कौन होते हैं ये बुजुर्ग, दिखने में कैसे लगते हैं,
इनके बाल नहीं होते, या सफ़ेद या गंजे होते हैं
इनका आँख का चश्मा अब नाकों पर होता है,
चश्मे से देखते कम, आँखों से झांकते ज्यादा हैं |

बुजुर्ग तो सभी बनते हैं, पर होना एक तपस्या है,
जीवन के हर बीते पल समय की एक श्रृंखला है
कल आज और कल के भोगने की एक साधना है
ज्ञानवान विद्वान नहीं पर बुद्धिमान ज्यादा हैं |

इनके हाथ एक लाठी है जिसे पाना भी कला है
लाठी पाना तो आसान है संभालना मुश्किल है
लाठी को तेल पिलाना है कस कर पकड़ना है
क्योंकि फिसलने का मन पर बोझ ज्यादा है |

इनके हाथ एक लेखनी है, श्वेत स्याही से चलती है
श्वेत पन्नों पर लिखती है, लिखावट भी दिखती है
सफ़ेद स्याही की बोतल को कालिख से बचाना है
 क्योंकि सफ़ेद दाढ़ी के स्याह होने का डर ज्यादा है |

इनके हाथ कुछ कच्चे कुछ पक्के धागों की डोर है
कुछ ऊनी हैं कुछ रेशमी और कुछ खालिस सूती हैं
इनको पिरोना है इनका मजबूत मांजा भी बनाना है
क्योंकि इनसे बंधी पतंग कटने का खतरा ज्यादा है |

इनके हाथ में अपनी और औरों की निगाह भी है
वहाँ सभी देखते हैं जहाँ भी इनकी नज़र जाती है
कंधे पर झूलती लम्बी शाल संभालते ही रहना है
क्योंकि खुद की निगाह में गिरने का गम ज्यादा है |

इनके हाथ अपनी और परिवार की मान-मर्यादा है
इनकी एक खाँसी पर सब लाठी एक साथ होती हैं
लेखनी, स्याही, धागों, और निगाहों की दौड़ होती है
क्योंकि उम्र-दराज और बुजुर्ग होने में फर्क ज्यादा है |






Tuesday, 11 July 2017

सुरसा का अभयदान

सुरसा का अभयदान

-राय साहब पांडेय

लीला की 'राम चाहे लीला, लीला चाहे राम' और नाम से क्या काम | जी हाँ, नाम राम लीला, पर राम-लीला से कुछ काम नहीं | यह है आज की राम-लीला | पहले राम-लीला का स्वरूप कुछ और था, खासकर गांवों में इसका बेसब्री से इंतजार होता था | नवरात्र के पहले दिन से ही इसकी शुरुवात हो जाती थी | जो गाँव चंदे में अधिक धन एकत्रित कर लेते थे उनके यहाँ राम-लीला खेलने वाले पेशेवर लोग भाड़े पर आ जाते थे | अधिकांशतः कई गाँव के लोग मिलकर आपस में सहमति से अपने पात्रों का चुनाव करते थे और राम लीला आरम्भ हो उसके हफ़्ते-दस दिन पहले से ही अपनी-अपनी भूमिकाओं का पूर्वाभ्यास करते थे | बाकायदा कई रामायण इसके लिए टटोले जाते थे, लेकिन गोस्वामी तुलसी दास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस ही मुख्य आधार होता था | कथा वाचक, रंगकर्मी पंडित राधेश्याम द्वारा रचित राधेश्याम रामायण भी आलाप एवं संवाद की दृष्टि से उपयोगी माना जाता था | हारमोनियम और ढोलक जैसे वाद्य यंत्रों का खूब प्रयोग होता था क्योंकि इसे बजाने वाले सरलता से उपलब्ध होते थे | कुछ व्यासजी लोग भी अपनी मर्जी से अपनी सेवाएँ समर्पित करते थे और सूत्रधार का कार्य भी करते थे | कौन सी चौपाई किस राग-धुन में गानी है, कहाँ कितना ज़ोर देना है, यह उन्हें बखूबी पता होता था | कुछ वाचक तो इतने पारंगत होते थे कि एक ही चौपाई को कई तरीकों से पेश कर सकते थे | राम-लीला देखने वालों का हुजूम जमा होता था | व्यासजी द्वारा गणेश वंदना प्रारंभ होती थी:


जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।

करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन।।


अर्थात् जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गणों के स्वामी और सुंदर हाथी के मुख वाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के धाम अर्थात श्री गणेशजी मुझ पर कृपा कर | और जैसे ही ढोलक और हारमोनियम के ताल के साथ दर्शकों ने यह चौपाई सुनी, उनके मध्य पूर्ण नीरवता छा जाती थी |


राम जन्म की कथा से प्रारंभ हो कर नारद मोह, मुनि विश्वामित्र का अयोध्या आगमन, राम विवाह होते हुए आज परशुराम-लक्ष्मण संवाद की कथा का मंचन होना था | सभी पात्र अपने-अपने अभिनय का अभ्यास कर रहे थे | यह कथा एकदम रोचक होनी चाहिए ऐसा पूरी टीम की अभिलाषा हुआ करती थी | राम हरख, राम दरश और राम किशुन क्रमशः राम, लक्ष्मण और परशुराम के भूमिका में उतरने वाले थे | पूर्वाभ्यास के दौरान ही व्यासजी के साथ पात्रों का संवाद होता था जिसमें उनकी कुछ शंकाओं का समाधान भी हो जाता था और पात्र को अपना किरदार अदा करने में मदद भी मिलती थी | इस तरह के प्रश्न अधिकतर राम दरश द्वारा ज्यादा किए जाते थे |


राम दरश ने पूछा, “व्यासजी, संवाद क्यों आवश्यक है?”


व्यासजी शायद इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन अपने अनुभव के आधार पर कहने लगे, “तुम्हारे मन में यह जिज्ञासा उठना लाज़मी है क्योंकि तुम आज के संवाद के प्रमुख पात्र हो | देखो, संवाद कोई वाद-विवाद प्रतियोगिता नहीं है जिसमें प्रतिपक्ष के तर्कों का तर्क या कुतर्क द्वारा प्रत्युत्तर दिया जाए और दर्शकों से ढेर सारी तालियाँ हासिल की जाए | असल में संवाद किसी भी विवाद को सुलझाने के लिए एक आवश्यक और स्थायी प्रक्रिया है | संवाद ही समाधान का एकमात्र नैतिक और अहिंसक अस्त्र है | हिंसा संवाद के लिए विष है और अफवाहें इस जहर को फैलाने का काम करती हैं | अफवाहों का उपयोग अनौपचारिक माध्यमों द्वारा अपने-अपने पक्षों को सुदृढ़ करने की कोशिश होती है या संवाद का माहौल खराब करने के लिए किया जाता है |”


व्यासजी अपने तर्कों को और आगे बढाते हुए कहने लगे | व्यास उवाच, “आज जो तुम अभिनय करने वाले हो दरअसल उसका भी यही मंतव्य है | श्री रामजी ने धनुष भंजन कर दिया है | सीताजी का विवाह तो स्वयंवर की प्रथा के अनुसार हो ही गया फिर भी राज-घरानों की परंपरा के अनुकूल वैदिक रीति से भी यह विवाह संपन्न होगा | परशुरामजी पधार चुके हैं | मान लो यह संवाद न होता और परुशुरामजी न आव देखते न ताव, तैश में आकर उपस्थित सभी राजाओं पर आक्रमण कर देते तो क्या होता ?”


व्यासजी यहीं नहीं रुके, “वस्तुतः संवाद अभिव्यक्ति से जुड़ा मसला है | या यूँ कहें कि इसके बिना जीवन ही संभव नहीं है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी | बच्चा जब पैदा होता है तो पहली बार रोना ‘फर्स्ट क्राय’ ही उसके लिए टॉनिक है | यहीं से उसकी अभिव्यक्ति की आजादी का आगाज़ होता है | आदरणीय तिलकजी ने ऐसे थोड़े ही कहा था ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ |”   


राम दरश व्यासजी से सार्थक उत्तर पा कर गदगद हो गए | शाम की राम-लीला में दर्शकों ने मुख्य मंच के सामने करीब बीस मीटर की दूरी पर रखे तख़्त पर परशुराम के खड़ाऊँ की दमदार पटकन देखी और कुछ के टूटने की आवाज भी सुनी | तालियों की गड़गड़ाहट रुकने का नाम नहीं ले रही थी | लक्ष्मण के पाठ पर पुरस्कारों की बौछार भी हो रही थी | सब मिलाकर आज की राम-लीला का आयोजन एक सफल आयोजन सिद्ध हुआ |


श्री राम का राज्याभिषेक, कैकेयी के कोपभवन जाने और राम वनवास से लेकर राम-लीला अब शूर्पनखा की नक-कटैया तक आ पहुँची | यह प्रसंग भी दर्शकों में बड़े उत्साह से देखा जाता है | दूसरा बड़ा प्रसंग लक्ष्मण को मेघनाद द्वारा अमोघ शक्ति से मूर्छित करने का होता है, जिसे इस टीम द्वारा बड़े ही मनोरम ढंग से पेश किया जाता है | यह लीला देखने के लिए तो घर की बहू-बेटियाँ भी आ जाती थीं |


राम दरश अपने गुरु और व्यासजी की तरफ पुनः मुखातिब हुए, “व्यासजी, क्या शूर्पनखा का नाक-कान काटना लक्ष्मण के लिए आवश्यक था? क्या कोई और उपाय नहीं हो सकता था?” वास्तव में उन्हें एक महिला की नाक काटना थोड़ा नागवार लग रहा था | व्यासजी थोड़े असमंजस में पड़ गए, क्योंकि उन्होंने ही तो संवाद पर अपनी बेबाक राय कुछ दिन पहले ही राखी थी | फिर भी संयमित होते हुए कहा, “देखो श्री राम भगवान विष्णु के अवतार थे | उन्हें यह लीला करनी थी | वे चाहते तो अवश्य कोई दूसरा उपाय हो सकता था |”


राम दरश की जिज्ञासा शांत नहीं हुई | उसने फिर पूछा, “गुरूजी क्या हमें इस बात को समझने के लिए कोई और तर्कसंगत सार नहीं ढूढ़ना चाहिए? क्या हमें इसे महज एक आस्था और विश्वास का विषय मान कर ज्यों का त्यों छोड़ देना चाहिए? और यदि हम ऐसा ही करते रहेंगे तो इसका दुरुपयोग नहीं हो सकता? इससे लोग प्रश्न करने पर प्रश्न चिन्ह खड़ा नहीं करेंगे? खासकर राजनीतिक हलकों में तो ऐसे विषयों को तोड़-मरोड़ कर परोसे जाएंगे और प्रश्न करने की आजादी भी नहीं मिलेगी | हो सकता है कि भविष्य में जनता से जरूरी मुद्दों पर से ध्यान भटकाने की चाल के रूप में इसका इस्तेमाल हो? इस तरह क्या हमारी सोच वैज्ञानिक बन सकेगी? सबसे बड़ी बात क्या अभिव्यक्ति की आजादी पर आंच नहीं आएगी?” राम दरश आगे भी पूछने लगे, “क्या यह किसी स्त्री को, चाहे वह कितनी भी कपटी क्यों न हो, नासिका विहीन कर यूँ दर-बदर भटकने के लिए छोड़ देना चाहिए? क्या हम इसे मात्र कवि की कल्पनाशीलता समझ कर विषय को रोचक और रोमांचक बनाने की कला नहीं मान सकते?”


इतने प्रश्नों की झड़ी सुनकर व्यासजी हलके से मुस्कराए | “यह एक गूढ़ रहस्य भी तो हो सकता है | इस प्रश्न पर और चिंतन-मनन करना चाहिए |”


और शूर्पनखा की नाक कट गई | शूर्पनखा बना कलाकार एक हाथ से अपनी नासिका पकड़े दूसरे हाथ से लाल रंग का नकली खून दर्शकों, खासकर छोटे बच्चों पर छिड़कते हुए डरावनी आवाज निकाल रहा था | राम-लीला में माता सीता का रावण द्वारा हरने का मार्ग प्रशस्त हो गया | अगले दिन की राम-लीला के एलान के साथ महावीर हनुमान का प्रवेश हो गया | आज की राम-लीला समाप्त | बोलो- ‘जय हनुमान’ फिर भीड़ ने बोला- ‘जय श्री राम’ |


हनुमान का अभिनय करने के लिए एक मोटे-तगड़े कद-काठी वाले नवजवान को चुना गया था | चौपाई कहने का उसका अंदाज अलग था | भगवान श्री राम के सम्मुख विनय पूर्वक खड़े हो कर जब वह “को तुम श्यामल गौर शरीरा, क्षत्रिय रूप फिरहु बन बीरा.... ” और आगे की चौपाइयाँ गाता था तो जनता वाह-वाह कर उठती थी |


अब श्री राम जी का आशीर्वाद और माँ के लिए श्री राम की अंगूठी लेकर लंका के लिए प्रस्थान करना है परन्तु इसके पहले हनुमान जी को समुद्र भी तो लांघना है! इसे प्रस्तुत करने के लिए मुख्य मंच से लेकर सामने रखे तख़्त तक एक मोटी  रस्सी टांगी जाती थी और उस पर हनुमान जी की बांस की तीलियों और काग़ज से बनी  प्रतिमा पटाखे के साथ लटकाई जाती थी | पटाखे में आग लगाने के बाद यह काग़ज की मूर्ति आधा रास्ते तक पहुँच कर रुक जाती थी | यहाँ पर हनुमान जी का नाग माता सुरसा से राक्षसी रूप में साक्षात्कार होता है | दोनों में संवाद होता है और ज्यों-ज्यों सुरसा बदन बढ़ावा तास दुगुन कपि रूप दिखावा” | इसके बाद जब सुरसा का मुख विशाल हो जाता है तो हनुमान जी एकदम सूक्ष्म रूप धारण कर सुरसा के मुख में प्रवेश कर बहार निकल जाते हैं | हनुमान का बुद्धि-चातुर्य और बुद्धि तत्परता देख सुरसा नाग माता रूप में प्रकट हो कर अपने सत्कार्य में सफल होने का श्री हनुमान जी को आशीर्वाद और अभयदान प्रदान करती है | हनुमान जी जय श्री राम कहते हुए सामने वाले तख़्त पर पहुँच जाते हैं और साथ में पटाखे की आवाज के साथ वह लटकी मूर्ति भी |


यद्यपि हनुमान का अभिनय राम सनेही कर रहे थे लेकिन अभिनय के पहले ही राम दरश ने व्यास जी से इस अभयदान के बारे में जानने  की इच्छा व्यक्त की थी | राम दरश ने पूछा, “गुरूजी, क्या एक राक्षसी हनुमान सरीखे महाबली को अभयदान देने की क्षमता रखती है?”


श्री व्यासजी उवाच, “राम दरश तुम्हारा प्रश्न श्रेष्ठ है इसलिए नहीं कि अध्यात्म से जुड़ा है वरन इसलिए कि यह आम आदमी के रोजमर्रा की जिन्दगी से जुड़ा है | अभय दान देने के लिए अपना पुण्य न्योछावर करना पड़ता है | सुरसा यदि राक्षसी रूप में यह वरदान देती तो संभवतः यह फलित न भी होता | वह भी ऐसे महाबली  को वरदान जिसे स्वयं भगवन राम का आशीष प्राप्त हो |”


व्यासजी अभय दान के विषय में आगे कहने लगे, “अभय दान ज़रूरी है भय मुक्त होने के लिए | चाहे वह भगवान राम की कृपा से हो या आज के समय में राजनीतिक संरक्षण से | शीर्ष पर बैठे राजनेता भी उन तमाम लुच्चों, लफंगों और माफियाओं को खुली छूट देते रहते हैं अपनी नेतागिरी की दुकान चलाने के लिए और एक बार उनका स्वार्थ सिद्ध हो गया तो दूध की मक्खी की भांति निकाल कर फेंक देने में देर भी नहीं लगती | अतः ऐसे अभय दान से बचना ही सर्वथा श्रेयस्कर है |”


व्यासजी यहीं नहीं रुके और अतिरिक्त प्रकाश डालते हुए बोले, “जिसके पास खोने को कुछ भी न हो, फिर भी यह आवश्यक नहीं कि वह भय मुक्त हो जाएगा | पराजय का भय, संपत्ति खोने का भय, मान मर्यादा लुट जाने का भय निकृष्ट कर्मों में लिप्त होने  से रोकता अवश्य है | भय-अभय का संतुलन बनाए रखना बहुत कुछ मनुष्य के विवेक से ही निर्धारित हो सकता है | चाणक्य के अनुसार विवेकशील व्यक्ति से जीत पाना बहुत ही कठिन है | अविवेकी मनुष्य को मिला अभय दान धराशायी होगा ही होगा भले ही वह भगवान शिव द्वारा प्राप्त किया गया क्यों न हो | सुरसा नाग कन्या भी है, सुरसा राक्षसी भी बन सकती है | अगर अभय दान सुरसा के नाग कन्या रूप से प्राप्त होगा तो हितकारी होगा और यदि यही अभय राक्षसी रूप से मिला होगा तो इसका दुरुपयोग अवश्यंभावी है | वह अभय दान दे सकती है तो वह अभय दान छीन भी सकती है | अभय दान का उपयोग यदि सत्कर्मों के लिए होगा तो स्थायी होगा वरना जितनी तेज़ी से प्राप्त होता है उससे तीव्र गति से विनाश भी हो जाता है |”


राम दरश और राम सनेही व्यासजी के आगे नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सके | घर लौटते हुए रास्ते में भी सोचते रहे कि आखिरकार रावण को भी तो भगवान शिव का वरदान प्राप्त था लेकिन फिर भी वह अभय नहीं दिला सका | उसका अविवेक ही उसके मद का कारण बन गया और सर्वनाश के गर्त में पतन का भी |

 

Monday, 10 July 2017

सूखते आँसू




सूखते आँसू
-राय साहब पांडेय

आँख दिखाने पर भी आँसू
आँख छिपाने पर भी आँसू,
चलते-फिरते, उठते-गिरते
बात-बात पर बहते आँसू |

माँ के गले लिपट कर आँसू
माँ से बिछुड़े तब भी आँसू,
भाई-बहन से चिढ़ कर रूठे
प्यार-दुलार में झरते आँसू |

 साथी साथ बिना भी आँसू
लड़ते यार से छलकें आँसू,
कब कट्टी, कब पक्की ?
खेल-खेल में बहते आँसू |

शिकवा में भी निकले आँसू
प्रेम-रोग बन जाते आँसू ,
मान-मनौव्वल मीत मनों में
छुपकर बहते मीठे आँसू |

आपस में जब खटपट होती
 मीठे स्वाद भी खारे लगते,
भूल के रिश्तों की कड़वाहट
पोंछे आँख के कोने आँसू |

घर-परिवार की अनबन देख
कुटिल जनों के तीर वार सुन,
समझ न आए कब क्या बोलें
मन ही मन दब जाते आँसू |

एक अकेले चल निकले थे
छूटा संग फिर हुए अकेले,
तानों की बौछार देख-सुन
घूँट-घूँट कर पीते आँसू |

हुआ सुस्त तन हाथ काँपता
शिथिल हो गईं ज्ञान इंद्रियाँ,
शिव चरणों में बैठ-बैठ कर
  सूख गए सब के सब आँसू |  

जाग्रत-सुप्त-सुषुप्त दशाएँ
काया-माया छोड़ सिधारे,
परिजन के कंधों पर अर्थी
  पंचतत्व में मिल गए आँसू |  

शोक सभा कर स्नेही जन
ऐबों का भी गुणगान करें ,
चलते-चलते भी बह निकले
  कुछ सच्चे कुछ झूठे आँसू |