Thursday, 6 July 2017

लंगड़ी गली


लंगड़ी गली
-राय साहब पांडेय
नाम रखने का कोई खास कारण हो ऐसा हमेशा नहीं होता | हाँ कभी-कभी कुछ अभिज्ञ लोग नामों का विशेष ध्यान अवश्य रखते हैं | पर गलियों, मोहल्लों के विषय में कोई न कोई कारण या घटना अवश्य होती है | आजकल तो गलियों का नंबर होता है, नाम पर सड़कें जरूर होती हैं | पहले ऐसा नहीं होता था | कोई गली अगर पतली है तो उसका नाम पतली गली या संकरी गली पड़ना लाजमी है | इसी तरह किसी गली में यदि विशेष सामान बनता है या मिलता है तो उसका नाम उसी पर पड़ जाता है | मसलन कचौड़ी गली या सब्जी गली इत्यादि | पर अब आप अवश्य पूछेंगे कि यह लंगड़ी गली क्या है? क्या गलियाँ भी लंगड़ी होती हैं? या यहाँ लंगड़े लोग रहते हैं?

तब इस मोहल्ले में कुछ एक झोंपड़े ही थे | वास्तव में मोहल्ला कहना भी उपयुक्त नहीं होगा | सरकारी जमीन कहीं पर खाली पड़ी हो तो उसका या तो कोई माई-बाप नहीं होता या कोई भी जब चाहे उसपर कब्ज़ा जमा सकता है | यहाँ भी ऐसा ही हुआ था | पहले कुछ झोंपड़े बने फिर पुरुषों को कुछ मेहनत मजदूरी वाले काम धंधे भी मिलने लगे | महिलाओं को नजदीकी बस्तियों में झाड़ू-पोंछे का काम भी मिलने लगा | इनके नाते-रिश्ते वाले भी आ कर बसने लगे | धीरे-धीरे कुछ झोंपड़ियाँ एक बड़ी बस्ती में तबदील हो गईं | कुछ ले देकर सब के राशन कार्ड भी बन गए | देखते ही देखते पूरी बस्ती वोट बैंक के रूप में देखी जाने लगी | इस बस्ती में अब कुछ छुटभैये नेता भी पैदा हो गए | बिजली-पानी का इंतजाम भी हो गया | आखिर इंसानों की बस्ती थी, मानव अधिकारों की बात थी | कौन पूछता यहाँ बसने वाले लोग कौन हैं, कहाँ से आये हैं, जहाँ बसे हैं वह जमीन किसकी है | जिस रास्ते को पुरुष और महिलाएँ अपने काम पर जाने के लिए या शौच के लिए इस्तेमाल करते थे, उसके दूसरी तरफ भी बस्तियाँ बस गईं | हाँ, अब यह बस्ती एक पूरा मोहल्ला बन चुका है और सामने वाला रास्ता एक लम्बी गली | गली का बायाँ सिरा एक पतली सड़क से निकल कर दाहिनी ओर एक बड़े पीपल के पेड़ तक पहुँचता है | इस मोहल्ले का सारा क्रियाकलाप इसी गली के इर्दगिर्द चलता है | अब इस गली में हर सामान के लिए दुकानें खुल गई हैं | खाने-पीने से लेकर शादी-ब्याह तक का सभी जरूरत का सामान यहाँ उपलब्ध है |

जितनी तेजी से इस मोहल्ले का विस्तार हुआ उतनी ही तेजी से ही यहाँ की आबादी भी बढ़ी | छोटे बच्चों की तो मानो बाढ़ ही आ गई हो | आठ-दस घरों को मिलाने से ही पूरी क्रिकेट की एक टीम तैयार और साथ में अतिरिक्त खिलाड़ी भी | लेकिन यहाँ बच्चे क्रिकेट नहीं बल्कि ईंट और नरिया के छोटे–छोटे  टुकड़ों से खेलते थे जिन्हें वे कब्बा खेल कहते थे | इसमें बच्चों को एक पाँव को बिना जमीन पर रखे दूसरे पाँव से उछड़-उछड़ कर बिना गिरे इन टुकड़ों को एक के ऊपर एक लगाना होता था | अकसर बच्चे इस गली में अनेक जगहों पर कब्बा खेलते हुए दिखाई देते थे | बच्चों की भचकन देख कर ही इस गली का नाम लंगड़ी गली पड़ गया |   

लंगड़ी गली अब पूरी तरह आबाद है | सड़क से नीचे उतरते ही दायें हाथ की पटरी पर रहमत मियाँ की एक छोटी सी दुकान है | दुकान के पीछे वाले भाग का इस्तेमाल परिवार को रहने के लिए है | दुकान से गुजरते ही मियाँ की राम-राम सुने वगैर आप दुकान में कदम नहीं रख सकते | तकरीबन पैंसठ के होंगे पर अभी भी उनका पाँव गज़ब की फुर्त्ती से चल रहा है | नज़र ऊपर उठाने की फुरसत नहीं है | लगन-बारात का सीजन जो चल रहा है! समय से सिलकर कपड़े नहीं दिए तो इनकी क्या साख रह जाएगी? आज तक किसी को निराश नहीं किया | तय शुदा वक्त से पहले ही कपड़े तैयार मिलेंगे | उनका वसूल है, वादा किया है तो निभाऊंगा भी | वे अकसर गुनगुनाते रहते हैं:
अपने रहमत पे रहम कर
कभी रुसवा न कर देना,
मेरी गफलतों की सज़ा मेरे
 अज़ीज़ असामी को न देना |

समय के पाबंद रहमत अली अपने काम में इस कदर मशगूल रहते हैं कि जुमे की नमाज़ भी अपनी दुकान में ही अदा कर लिया करते हैं | हुनर और लगन के पक्के जज़्बाती इंसान को अपने काम की धुन सवार रहती है | काम और क़र्ज़ को शत्रु मानते हैं | किसी ने उन्हें सिलाई के पैसे के लिए कभी भी किसी से हुज्जत करते नहीं सुना | अकसर इस गली से नाच-बाजे के साथ महिलाओं का हुजूम निकलता हुआ गली के दूसरे सिरे को पार कर विशाल पीपल के पेड़ तक जाता है | छोटी उम्र की लड़कियों और सुहागिनों के सर पर थाल-परात में तरतीब से सज़ा कर रखे दुल्हन के कपड़े और गहने जाते देख रहमत मियाँ एकदम बाग़-बाग़ हो उठते हैं |क्यों न हों, आखिर इन्होंने ही तो ये कपड़े सिले हैं | रहमत को लगता है कि इनकी मेहनत सफल हो गई |

बजनियों के थाप पर नाचती-गाती महिलाएँ पीपल के पेड़ तक पहुँच कर अपने रश्म -रिवाज के मुताबिक पूजा-अर्चना करती हैं | घर की कोई बुजुर्ग महिला या दूल्हे की माँ पीपल के मोटे तने के चारों ओर रक्षा के धागे से एक सौ एक बार परिक्रमा कर धागे में गाँठ लगाती है | ऐसा करते वक्त वह अपने इष्ट देवता और कुल देवता को मनाती रहती है, जिससे आने वाला समय घर के लिए खुशहाली भरा हो | तने के नीचे रखे पुरानी ईंट की भी पूजा की जाती है | आस-पड़ोस के छोटे बच्चे बिना बुलाए ही शामिल हो जाते हैं | उन्हें उम्मीद होती है कि पूजा के अंत में रेवड़ी, लाई और बतासा (ख़ालिस शक्कर की बनी एक तरह की मिठाई) तो मिलना ही है | रेवड़ियाँ बटें इसके पहले ही रहमत मियाँ दुल्हे का जोड़ा-जामा ले कर हाज़िर रहते हैं | घर की मालकिन को अपने हाथों से सुपुर्द कर एक कोने में बिल्कुल निर्विकार भाव से खड़े हो जाते हैं | जोड़े-जामे को उन ताज़ी टिकी हुई देव-ईटों को समर्पित किया जाता है | यही वस्त्र दूल्हा पहनता है और तब बारात निकलती है | फिर रहमत की बारी आती है | मालकिन दिल खोल कर नेग देती हैं | गले में कपड़े का टेप लटकाए, सर पर झीनी सफ़ेद गोल टोपी पहने रहमत उस नेग को सर झुका कर क़बूल करते और क्या मिला क्या नहीं उसे बिना देखे अपनी शेरवानी की जेब के हवाले कर वहाँ से चल पड़ते हैं | अब इन रिवाजों में खासी कमी आ गई है फिर भी रिवाज ख़त्म होने में एक-दो पीढ़ियाँ तो गुजर ही जाती हैं |

रहमत की दिनचर्या और सादगी भरी जिंदगी देखकर यकीन नहीं होता कि ऐसा इंसान सचमुच आपके बीच मौजूद है | सब कुछ ऊपर वाले के हवाले | मन-कर्म-वचन से समर्पण का भाव | ‘तेरा तुझको अर्पण’ को पूरी तरह चरितार्थ करने वाले | थोड़ी देर उनसे बात करिए फिर अपनी तबीयत टटोलिए | आप देखेंगे कि आपका मन पूरी तरह हल्का हो गया | जब कोई पंडितजी उनसे कहते कि अरे मियाँ अमुक-अमुक बात तो हमारे उपनिषदों में लिखी है आपको कैसे पता? आपको इन ग्रंथों को न तो पढ़ने की आवश्यकता है और न ही काबिलीयत | रहमत बिलकुल नाराज़ नहीं होते | नरम आवाज़ में उत्तर देते हैं- जरूरत तो है पंडितजी, भला ज्ञान की किसको जरूरत नहीं होगी? हाँ, काबिलीयत वाली बात आपने सही फरमाई | इसका मुझे अफ़सोस है कि मेरी तालीम बराबर नहीं हुई | फिर थोड़ा गंभीर होते हुए कहने लगते हैं, “पंडितजी, दुनिया में हर किसी को इंसानियत और हैवानियत में अंतर पता होता है | भले लोग इसे आसानी से मानते हैं और कुछ लोग मानते हुए भी इसे स्वीकार नहीं करते | इंसान का इंसान से भाई चारा ही सबसे बड़ा धर्म है | इसी में सारा सुख निहित है |” पंडितजी सहमति में सर हिलाते और अपने काम पर चल देते |

लंगड़ी गली में अब कब्बा खेलने वाले बच्चों का अकाल पड़ गया है | कब्बा की जगह अब क्रिकेट ने ले ली है | क्रिकेट की बॉल कभी-कभी रहमत मियाँ के घर में भी चली जाती है | बच्चे चिल्लाते हैं, चचा बॉल और किसी जवाब की इंतजार किए वगैर घर में घुस कर बॉल ले कर आ जाते हैं | आखिर अभी घर में है भी कौन?

बचपन में इस गली से मेरा आना-जाना होता रहता था | तब मैं रहमत अली से वाक़िफ़ नहीं था | बहुत समय तक बाहर रहने के कारण लोग भी आपको आपके नाम से नहीं आपके बाप-दादा के नाम से ही पहचानते हैं | बाहर रहने के बावजूद भी अपने गाँव, मोहल्लों और देश के विषय में जानने की उत्सुकता भला किसे नहीं होती? बच्चों के इस कदर बिना रोक-टोक किसी के घर में घुसना मुझे अजीब सा लगा | जब भी मैं उधर से गुजरता यही नज़ारा देखने को मिलता | मन में जानने का कुतूहल तो होता था, पर किसी न किसी वजह से आगे बढ़ जाता था और मन में दबी उत्सुकता दबी ही रह जाती थी | पर आज ऐसा नहीं हुआ | जैसे ही मैं रहमत अली की दुकान के सामने से गुजरा मैंने ‘राम-राम रहमत चचा’ ठोक ही दिया | उन्होंने सिलाई मशीन से सर ऊपर उठाते हुए मेरी तरफ देखा | उनका चश्मा नाक पर और आँखें नीची सीधी मेरे चेहरे पर | “राम-राम मियाँ, सब खैरियत तो है”, इस अंदाज में कहा जैसे मुझे बरसों से पहचानते हों | मैं पत्थर की दो सीढ़ियाँ चढ़ कर उनकी मशीन के ठीक सामने खड़ा था | “तशरीफ़ रखिए जनाब कहिए कैसे आना हुआ, क्या खिदमत करूँ”, बड़ी ही शालीनता एवं अदब के साथ पूछा | मैं क्या बोलता? फिर भी गोल मोल जवाब देने के बजाय मैंने कहा, “चचा इधर से मैं जब भी गुजरता हूँ आप की गर्दन हमेशा सिलाई मशीन पर ही टिकी रहती है और आप कुछ बुदबुदाते रहते हैं, इसीलिए सोचा आपसे कुछ बात करूँ | अगर आपको कोई एतराज न हो तो |” “क्या बात करते हो, आप कुछ नए लग रहे हो, माफ़ करना मैं आपको पहचाना नहीं”, बड़े ही ज़िंदादिली से पूछा | उनके सामने रखे स्टूल पर बैठते हुए मैंने कहा, “अरे चचा कैसे पहचानेंगे, मैं तो तमाम सालों से इधर रहता ही नहीं था | अब फिर वापस आया हूँ | सड़क के उस पार मेरा घर है मेरे पिताजी को आप अच्छी तरह जानते हैं | बचपन में मैं इस गली में खेलने आया करता था |” मेरे पिताजी का नाम सुनते ही बड़े ही प्यार से मेरी तरफ मुखातिब हुए, “उन्हें कौन नहीं जानता, बड़े ही नेक और दरियादिल इंसान थे | खुदा को भी ऐसे बन्दों को ऊपर बुलाने की जल्दी रहती है | अभी घर परिवार कैसा चल रहा है?” “सब खैरियत है आप जैसे नेक बन्दों की दुआ से”, बात आगे बढ़ाते मैंने कहा | फिर इस गली के कुछ अपने पुराने साथियों करीमू, लल्लन और तुलसी का नाम लिया और उनके बारे में जानने की इच्छा जाहिर की | करीमू और लल्लन का नाम मेरी जबान से सुनते ही वे एकदम बुत हो गए और पता नहीं ऊपर देख कर कुछ बुदबुदाने लगे | मेरी समझ में नहीं आ रहा था मैंने ऐसा क्या पूछ लिया | काफी देर तक जब वे चुप रहे तो मैं चुप्पी तोड़ते हुए बोला, “चचा क्या हुआ आप बिलकुल खामोश क्यों हैं? माफ़ करिएगा अगर आप नहीं बताना चाहते हैं तो कोई बात नहीं, लेकिन आप इस तरह मौन न हों |”

मेरी बात सुनकर उनको शायद यकीन हो गया कि मैं सचमुच इनके बारे में कुछ नहीं जानता | रहमत अली की आँखों में आँसू देख मेरी बेचैनी और बढ़ने लगी | रुँधे गले और डबडबाई आँखों को देख कर मुझे समझने में देर नहीं लगी कि इनके साथ कुछ भयानक अप्रत्याशित घटना अवश्य घटी होगी | थोड़ी देर बाद रहमत अली थोड़े शांत हुए और यह जानकार कि मैं उनका दोस्त हूँ, पूरे घटनाक्रम को कुछ इस तरह बताने लगे |

मैं और करीमू की माँ अपने गाँव गए हुए थे | यहाँ करीमू अकेले ही था | करीमू, लल्लन और तुलसी तीनों हम उमर थे | एक साथ इसी गली में खेले, बड़े हुए और थोड़ी बहुत पढ़ाई भी की | करीमू शहर में एक कपड़े की दुकान पर और लल्लन एक दवा की दुकान पर लग गए थे | तुलसी शहर में ही बढ़ई का काम करने लगा था | कारीमू और लल्लन दोनों एक साथ बस में शहर जाते थे और अकसर एक साथ ही लौटते भी थे | एक दिन दोनों बस में एक साथ ही बैठे थे | बस में भीड़ बहुत थी | रास्ते में कुछ लड़के बस में चढ़े और धक्का-मुक्की करने लगे | कभी एक के ऊपर तो कभी दूसरे के ऊपर गिर रहे थे | मना करने पर भी नहीं मान रहे थे | फिर गाली-गलौज पर उतारू हो गए | बाद में जब लल्लन से कुछ कहासुनी हो गई तो कारीमू ने बीच-बचाव की कोशिश की | इस पर वे सब और भड़क गए और बाद में देख लेने की धमकी देकर रास्ते में ही उतर गए | बच्चों ने सोचा बात आई गई हो गई |

रात में करीब साढ़े दस बजे का समय था | ठंढी के मौसम में दिन वैसे ही छोटा हो जाता है, लोग जल्दी ही खा-पीकर सो जाते हैं | दस लड़कों का झुंड आया और जोर-जोर से दुकान का दरवाजा पीटने लगे | करीमू क्या करता, दरवाजा खोल दिया | सारे के सारे एक साथ उस पर टूट पड़े | उनके हाथों में लाठियाँ थी | किसी तरह जान बचा कर भागने के अलावा और कोई सूरत नहीं दिखी | वह सामने वाले घर में भागा जिसमें लल्लन रहता था | अँधेरे में कोई किसी को देख नहीं पा रहा था | करीमू की आवाज पहचान कर उसने जैसे ही दरवाजा खोला सभी उसके ऊपर भी टूट पड़े | लाठी किसको पड़ रही है, कहाँ पड़ रही है कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था | लल्लन और करीमू दोनों निढाल गिर पड़े | जब तक शोर-शराबा सुन कर गली वाले इकट्ठा होते, सभी आतताई रफूचक्कर हो गए थे | पड़ोसियों ने हिम्मत दिखाई | लाद-फान कर किसी तरह अस्पताल पहुँचाया | डाक्टरों की लाख कोशिश के बावजूद लल्लन नहीं बच पाया | करीमू बच तो गया पर उसकी एक टाँग काटनी पड़ी |

ऐसा कहते-कहते रहमत मियाँ चुप हो गए | थोड़ी देर बाद अपने आँसुओं को पोंछते हुए ऊपर देखा और धीरे से कहा, “अल्ला की मर्जी के आगे किसका बस चलता है | इस हादसे के बाद करीमू की अम्मी जान बुरी तरह टूट गईं और अकसर बीमार रहने लगीं | अभी पिछले साल उनका भी इंतकाल हो गया | लल्लन के वालिद भी इस गली को छोड़ कर शहर में अपनी बेटी के साथ रहते हैं |” मैंने बड़ी मुश्किल से पूछा, “करीमू अब कहाँ है, आप उसके साथ क्यों नहीं हैं?” यह सुनते ही रहमत के चेहरे  से मानो गम की छाया काफ़ूर हो गई |

एक लम्बी सांस लेते हुए उन्होंने गंभीर सवाल दाग दिए, “आतताइयों का कोई ईमान-धरम नहीं होता | ये कहीं भी विश्व के किसी कोने में किसी भी वेष में आपको मिल जाएंगे | मजहब के नाम पर अपने स्वार्थ साधने में इन्हें कोई गुरेज नहीं होता | अगर कोई इनके स्वार्थ सिद्धि में रोड़ा बनता है तो इन्हें हैवान बनने में देर नहीं लगती | मेरा बेटा भी अब शहर में ही रहता है | उसके मालिक नेक इंसान हैं, उन्होंने उसे उसी तरह नौकरी पर रख लिया जैसे वह पहले करता था | मैं इंसानियत में यकीन करता हूँ और सिवा खुदा के किसी से खौफ़ नहीं खाता | मैं ताउम्र यहीं रहूँगा |” मैं आगे क्या कहता सुनता | हाथ जोड़े, बंदगी की और धीरे से उठ खड़ा हुआ |  

बाकी रास्ते में मुझे कुछ नहीं दिखाई दिया | मैं सोचता रहा, “गलियाँ न तो लंगड़ी होती हैं और न ही अंधी या बहरी | यह तो इंसान के स्वभाव में है कि एक सही सलामत इंसान को लंगड़ा, अंधा या बहरा बना दे और अपने हैवान होने का परिचय दे | इंसान तो वह है जो यह सोच कर दिया जलाता है कि इसकी रोशनी दूर तक फैलेगी और खुद रोशन हो या न हो परंतु राहगीर इस रोशनी में अपना रास्ता ढूँढ अवश्य ले |”

कौन कहता है आज के ज़माने में इंसानियत नाम की चीज नहीं रह गई है? जब तक रहमत अली जैसे इंसान जिंदा हैं, इंसानियत कभी मर नहीं सकती |  

3 comments:

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  2. राय साहब आपकी लेखनी ओर किस्सागोई ने दिल जीत लिया मेरा। आनंद आ गया भाई। बहुत सुंदर कथानक है। मैं कैसे विश्वास करुं की आप रसायनज्ञ है। आप तो एक उम्दा कथाकार है और परिस्थिति ओर परिवेश का सुंदर चित्रण करने में पारंगत हैं। लिखते रहिये। आपकी लेखनी से संवेदनशील हिंदी पाठकों को बहुत कुछ मानवीय चेतना के नए पहलुओं का आस्वाद ओर संस्पर्श मिलेगा।
    आप यशस्वी लेखक कहानीकार बने मेरी शुभकामना है। जय शिव शंकर👌🙏🙏

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  3. धन्यवाद सुभाषजी |

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