Tuesday, 11 July 2017

सुरसा का अभयदान

सुरसा का अभयदान

-राय साहब पांडेय

लीला की 'राम चाहे लीला, लीला चाहे राम' और नाम से क्या काम | जी हाँ, नाम राम लीला, पर राम-लीला से कुछ काम नहीं | यह है आज की राम-लीला | पहले राम-लीला का स्वरूप कुछ और था, खासकर गांवों में इसका बेसब्री से इंतजार होता था | नवरात्र के पहले दिन से ही इसकी शुरुवात हो जाती थी | जो गाँव चंदे में अधिक धन एकत्रित कर लेते थे उनके यहाँ राम-लीला खेलने वाले पेशेवर लोग भाड़े पर आ जाते थे | अधिकांशतः कई गाँव के लोग मिलकर आपस में सहमति से अपने पात्रों का चुनाव करते थे और राम लीला आरम्भ हो उसके हफ़्ते-दस दिन पहले से ही अपनी-अपनी भूमिकाओं का पूर्वाभ्यास करते थे | बाकायदा कई रामायण इसके लिए टटोले जाते थे, लेकिन गोस्वामी तुलसी दास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस ही मुख्य आधार होता था | कथा वाचक, रंगकर्मी पंडित राधेश्याम द्वारा रचित राधेश्याम रामायण भी आलाप एवं संवाद की दृष्टि से उपयोगी माना जाता था | हारमोनियम और ढोलक जैसे वाद्य यंत्रों का खूब प्रयोग होता था क्योंकि इसे बजाने वाले सरलता से उपलब्ध होते थे | कुछ व्यासजी लोग भी अपनी मर्जी से अपनी सेवाएँ समर्पित करते थे और सूत्रधार का कार्य भी करते थे | कौन सी चौपाई किस राग-धुन में गानी है, कहाँ कितना ज़ोर देना है, यह उन्हें बखूबी पता होता था | कुछ वाचक तो इतने पारंगत होते थे कि एक ही चौपाई को कई तरीकों से पेश कर सकते थे | राम-लीला देखने वालों का हुजूम जमा होता था | व्यासजी द्वारा गणेश वंदना प्रारंभ होती थी:


जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।

करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन।।


अर्थात् जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गणों के स्वामी और सुंदर हाथी के मुख वाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के धाम अर्थात श्री गणेशजी मुझ पर कृपा कर | और जैसे ही ढोलक और हारमोनियम के ताल के साथ दर्शकों ने यह चौपाई सुनी, उनके मध्य पूर्ण नीरवता छा जाती थी |


राम जन्म की कथा से प्रारंभ हो कर नारद मोह, मुनि विश्वामित्र का अयोध्या आगमन, राम विवाह होते हुए आज परशुराम-लक्ष्मण संवाद की कथा का मंचन होना था | सभी पात्र अपने-अपने अभिनय का अभ्यास कर रहे थे | यह कथा एकदम रोचक होनी चाहिए ऐसा पूरी टीम की अभिलाषा हुआ करती थी | राम हरख, राम दरश और राम किशुन क्रमशः राम, लक्ष्मण और परशुराम के भूमिका में उतरने वाले थे | पूर्वाभ्यास के दौरान ही व्यासजी के साथ पात्रों का संवाद होता था जिसमें उनकी कुछ शंकाओं का समाधान भी हो जाता था और पात्र को अपना किरदार अदा करने में मदद भी मिलती थी | इस तरह के प्रश्न अधिकतर राम दरश द्वारा ज्यादा किए जाते थे |


राम दरश ने पूछा, “व्यासजी, संवाद क्यों आवश्यक है?”


व्यासजी शायद इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन अपने अनुभव के आधार पर कहने लगे, “तुम्हारे मन में यह जिज्ञासा उठना लाज़मी है क्योंकि तुम आज के संवाद के प्रमुख पात्र हो | देखो, संवाद कोई वाद-विवाद प्रतियोगिता नहीं है जिसमें प्रतिपक्ष के तर्कों का तर्क या कुतर्क द्वारा प्रत्युत्तर दिया जाए और दर्शकों से ढेर सारी तालियाँ हासिल की जाए | असल में संवाद किसी भी विवाद को सुलझाने के लिए एक आवश्यक और स्थायी प्रक्रिया है | संवाद ही समाधान का एकमात्र नैतिक और अहिंसक अस्त्र है | हिंसा संवाद के लिए विष है और अफवाहें इस जहर को फैलाने का काम करती हैं | अफवाहों का उपयोग अनौपचारिक माध्यमों द्वारा अपने-अपने पक्षों को सुदृढ़ करने की कोशिश होती है या संवाद का माहौल खराब करने के लिए किया जाता है |”


व्यासजी अपने तर्कों को और आगे बढाते हुए कहने लगे | व्यास उवाच, “आज जो तुम अभिनय करने वाले हो दरअसल उसका भी यही मंतव्य है | श्री रामजी ने धनुष भंजन कर दिया है | सीताजी का विवाह तो स्वयंवर की प्रथा के अनुसार हो ही गया फिर भी राज-घरानों की परंपरा के अनुकूल वैदिक रीति से भी यह विवाह संपन्न होगा | परशुरामजी पधार चुके हैं | मान लो यह संवाद न होता और परुशुरामजी न आव देखते न ताव, तैश में आकर उपस्थित सभी राजाओं पर आक्रमण कर देते तो क्या होता ?”


व्यासजी यहीं नहीं रुके, “वस्तुतः संवाद अभिव्यक्ति से जुड़ा मसला है | या यूँ कहें कि इसके बिना जीवन ही संभव नहीं है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी | बच्चा जब पैदा होता है तो पहली बार रोना ‘फर्स्ट क्राय’ ही उसके लिए टॉनिक है | यहीं से उसकी अभिव्यक्ति की आजादी का आगाज़ होता है | आदरणीय तिलकजी ने ऐसे थोड़े ही कहा था ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ |”   


राम दरश व्यासजी से सार्थक उत्तर पा कर गदगद हो गए | शाम की राम-लीला में दर्शकों ने मुख्य मंच के सामने करीब बीस मीटर की दूरी पर रखे तख़्त पर परशुराम के खड़ाऊँ की दमदार पटकन देखी और कुछ के टूटने की आवाज भी सुनी | तालियों की गड़गड़ाहट रुकने का नाम नहीं ले रही थी | लक्ष्मण के पाठ पर पुरस्कारों की बौछार भी हो रही थी | सब मिलाकर आज की राम-लीला का आयोजन एक सफल आयोजन सिद्ध हुआ |


श्री राम का राज्याभिषेक, कैकेयी के कोपभवन जाने और राम वनवास से लेकर राम-लीला अब शूर्पनखा की नक-कटैया तक आ पहुँची | यह प्रसंग भी दर्शकों में बड़े उत्साह से देखा जाता है | दूसरा बड़ा प्रसंग लक्ष्मण को मेघनाद द्वारा अमोघ शक्ति से मूर्छित करने का होता है, जिसे इस टीम द्वारा बड़े ही मनोरम ढंग से पेश किया जाता है | यह लीला देखने के लिए तो घर की बहू-बेटियाँ भी आ जाती थीं |


राम दरश अपने गुरु और व्यासजी की तरफ पुनः मुखातिब हुए, “व्यासजी, क्या शूर्पनखा का नाक-कान काटना लक्ष्मण के लिए आवश्यक था? क्या कोई और उपाय नहीं हो सकता था?” वास्तव में उन्हें एक महिला की नाक काटना थोड़ा नागवार लग रहा था | व्यासजी थोड़े असमंजस में पड़ गए, क्योंकि उन्होंने ही तो संवाद पर अपनी बेबाक राय कुछ दिन पहले ही राखी थी | फिर भी संयमित होते हुए कहा, “देखो श्री राम भगवान विष्णु के अवतार थे | उन्हें यह लीला करनी थी | वे चाहते तो अवश्य कोई दूसरा उपाय हो सकता था |”


राम दरश की जिज्ञासा शांत नहीं हुई | उसने फिर पूछा, “गुरूजी क्या हमें इस बात को समझने के लिए कोई और तर्कसंगत सार नहीं ढूढ़ना चाहिए? क्या हमें इसे महज एक आस्था और विश्वास का विषय मान कर ज्यों का त्यों छोड़ देना चाहिए? और यदि हम ऐसा ही करते रहेंगे तो इसका दुरुपयोग नहीं हो सकता? इससे लोग प्रश्न करने पर प्रश्न चिन्ह खड़ा नहीं करेंगे? खासकर राजनीतिक हलकों में तो ऐसे विषयों को तोड़-मरोड़ कर परोसे जाएंगे और प्रश्न करने की आजादी भी नहीं मिलेगी | हो सकता है कि भविष्य में जनता से जरूरी मुद्दों पर से ध्यान भटकाने की चाल के रूप में इसका इस्तेमाल हो? इस तरह क्या हमारी सोच वैज्ञानिक बन सकेगी? सबसे बड़ी बात क्या अभिव्यक्ति की आजादी पर आंच नहीं आएगी?” राम दरश आगे भी पूछने लगे, “क्या यह किसी स्त्री को, चाहे वह कितनी भी कपटी क्यों न हो, नासिका विहीन कर यूँ दर-बदर भटकने के लिए छोड़ देना चाहिए? क्या हम इसे मात्र कवि की कल्पनाशीलता समझ कर विषय को रोचक और रोमांचक बनाने की कला नहीं मान सकते?”


इतने प्रश्नों की झड़ी सुनकर व्यासजी हलके से मुस्कराए | “यह एक गूढ़ रहस्य भी तो हो सकता है | इस प्रश्न पर और चिंतन-मनन करना चाहिए |”


और शूर्पनखा की नाक कट गई | शूर्पनखा बना कलाकार एक हाथ से अपनी नासिका पकड़े दूसरे हाथ से लाल रंग का नकली खून दर्शकों, खासकर छोटे बच्चों पर छिड़कते हुए डरावनी आवाज निकाल रहा था | राम-लीला में माता सीता का रावण द्वारा हरने का मार्ग प्रशस्त हो गया | अगले दिन की राम-लीला के एलान के साथ महावीर हनुमान का प्रवेश हो गया | आज की राम-लीला समाप्त | बोलो- ‘जय हनुमान’ फिर भीड़ ने बोला- ‘जय श्री राम’ |


हनुमान का अभिनय करने के लिए एक मोटे-तगड़े कद-काठी वाले नवजवान को चुना गया था | चौपाई कहने का उसका अंदाज अलग था | भगवान श्री राम के सम्मुख विनय पूर्वक खड़े हो कर जब वह “को तुम श्यामल गौर शरीरा, क्षत्रिय रूप फिरहु बन बीरा.... ” और आगे की चौपाइयाँ गाता था तो जनता वाह-वाह कर उठती थी |


अब श्री राम जी का आशीर्वाद और माँ के लिए श्री राम की अंगूठी लेकर लंका के लिए प्रस्थान करना है परन्तु इसके पहले हनुमान जी को समुद्र भी तो लांघना है! इसे प्रस्तुत करने के लिए मुख्य मंच से लेकर सामने रखे तख़्त तक एक मोटी  रस्सी टांगी जाती थी और उस पर हनुमान जी की बांस की तीलियों और काग़ज से बनी  प्रतिमा पटाखे के साथ लटकाई जाती थी | पटाखे में आग लगाने के बाद यह काग़ज की मूर्ति आधा रास्ते तक पहुँच कर रुक जाती थी | यहाँ पर हनुमान जी का नाग माता सुरसा से राक्षसी रूप में साक्षात्कार होता है | दोनों में संवाद होता है और ज्यों-ज्यों सुरसा बदन बढ़ावा तास दुगुन कपि रूप दिखावा” | इसके बाद जब सुरसा का मुख विशाल हो जाता है तो हनुमान जी एकदम सूक्ष्म रूप धारण कर सुरसा के मुख में प्रवेश कर बहार निकल जाते हैं | हनुमान का बुद्धि-चातुर्य और बुद्धि तत्परता देख सुरसा नाग माता रूप में प्रकट हो कर अपने सत्कार्य में सफल होने का श्री हनुमान जी को आशीर्वाद और अभयदान प्रदान करती है | हनुमान जी जय श्री राम कहते हुए सामने वाले तख़्त पर पहुँच जाते हैं और साथ में पटाखे की आवाज के साथ वह लटकी मूर्ति भी |


यद्यपि हनुमान का अभिनय राम सनेही कर रहे थे लेकिन अभिनय के पहले ही राम दरश ने व्यास जी से इस अभयदान के बारे में जानने  की इच्छा व्यक्त की थी | राम दरश ने पूछा, “गुरूजी, क्या एक राक्षसी हनुमान सरीखे महाबली को अभयदान देने की क्षमता रखती है?”


श्री व्यासजी उवाच, “राम दरश तुम्हारा प्रश्न श्रेष्ठ है इसलिए नहीं कि अध्यात्म से जुड़ा है वरन इसलिए कि यह आम आदमी के रोजमर्रा की जिन्दगी से जुड़ा है | अभय दान देने के लिए अपना पुण्य न्योछावर करना पड़ता है | सुरसा यदि राक्षसी रूप में यह वरदान देती तो संभवतः यह फलित न भी होता | वह भी ऐसे महाबली  को वरदान जिसे स्वयं भगवन राम का आशीष प्राप्त हो |”


व्यासजी अभय दान के विषय में आगे कहने लगे, “अभय दान ज़रूरी है भय मुक्त होने के लिए | चाहे वह भगवान राम की कृपा से हो या आज के समय में राजनीतिक संरक्षण से | शीर्ष पर बैठे राजनेता भी उन तमाम लुच्चों, लफंगों और माफियाओं को खुली छूट देते रहते हैं अपनी नेतागिरी की दुकान चलाने के लिए और एक बार उनका स्वार्थ सिद्ध हो गया तो दूध की मक्खी की भांति निकाल कर फेंक देने में देर भी नहीं लगती | अतः ऐसे अभय दान से बचना ही सर्वथा श्रेयस्कर है |”


व्यासजी यहीं नहीं रुके और अतिरिक्त प्रकाश डालते हुए बोले, “जिसके पास खोने को कुछ भी न हो, फिर भी यह आवश्यक नहीं कि वह भय मुक्त हो जाएगा | पराजय का भय, संपत्ति खोने का भय, मान मर्यादा लुट जाने का भय निकृष्ट कर्मों में लिप्त होने  से रोकता अवश्य है | भय-अभय का संतुलन बनाए रखना बहुत कुछ मनुष्य के विवेक से ही निर्धारित हो सकता है | चाणक्य के अनुसार विवेकशील व्यक्ति से जीत पाना बहुत ही कठिन है | अविवेकी मनुष्य को मिला अभय दान धराशायी होगा ही होगा भले ही वह भगवान शिव द्वारा प्राप्त किया गया क्यों न हो | सुरसा नाग कन्या भी है, सुरसा राक्षसी भी बन सकती है | अगर अभय दान सुरसा के नाग कन्या रूप से प्राप्त होगा तो हितकारी होगा और यदि यही अभय राक्षसी रूप से मिला होगा तो इसका दुरुपयोग अवश्यंभावी है | वह अभय दान दे सकती है तो वह अभय दान छीन भी सकती है | अभय दान का उपयोग यदि सत्कर्मों के लिए होगा तो स्थायी होगा वरना जितनी तेज़ी से प्राप्त होता है उससे तीव्र गति से विनाश भी हो जाता है |”


राम दरश और राम सनेही व्यासजी के आगे नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सके | घर लौटते हुए रास्ते में भी सोचते रहे कि आखिरकार रावण को भी तो भगवान शिव का वरदान प्राप्त था लेकिन फिर भी वह अभय नहीं दिला सका | उसका अविवेक ही उसके मद का कारण बन गया और सर्वनाश के गर्त में पतन का भी |

 

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