Friday, 31 July 2020

शब्द-भेद


शब्द-भेद 


-राय साहब पाण्डेय 
आँखें न मिल सकीं, बस वो झुक गईं,
बिन कहे ही अनकही सुन ली  गई, 
मैल मन-भेदों के जब-जब मिट गए,
आँसुओं में शब्द मिल कर बह गए |

शब्द ही हैं गाँठ बुनते रिश्तों के धागों में,
और शब्द ही हैं जोड़ते बिन गाठ के रिश्ते,
शब्द मिश्री युक्त  घोल इसको संजोते,
सब्र टूटा, जुबाँ फिसली, हो गए रिश्ते विषैले |

शब्दों के विष पीने से भी चलती है जिंदगी,
सुलगती  है धुआं बन के जलती है जिन्दगी,
धधकाना भी  चाहो  अगर तो राख ही बचती,
इस राख से न जिस्म और न जान ही सजती |

शब्दों के घाव  शब्द से है कौन भर सके?,
निशब्द भी रहना पड़े तो आँसुओं में घोल,
मोल-तोल,  समझ बोल शब्द भाव ,
उतरे हैं  मन के  बोझ, तभी पूजे घाव | 











Thursday, 18 June 2020

कमीनी चवन्नी



कमीनी चवन्नी
-डॉ राय साहब पाण्डेय 
आप कह सकते हैं कि क्या चवन्नी भी कभी कमीनी हो सकती है? जी हाँ, हो सकती है | यह देने और लेने वाले की मंशा पर ही नहीं बल्कि उसकी दशा पर भी निर्भर करता है | यदि आप सोच रहे हैं कि भला कमीनेपन से रुपये-पैसे और सिक्कों का क्या लेना देना, तो आप सही सोच रहे हैं | कमीनापन तो हम इंशानों की ही बपौती है | गिरते तो सभी हैं पर गिरने की एक हद होती है | हम जिसकी बात आज करने वाले हैं, उसकी हद तो आप ही तय करेंगे |

चवन्नी बोल पड़ी | यह वाकया उन दिनों का है जब हमारी भी शान हुआ करती थी | जब हम चार हो जाती थीं और किसी के हाथ लग जाती तो हमारी शान और भी बढ़ जाती थी | हमारी खनखनाहट तो बहुतों को जेब साफ़ करने को भी उकसा देती थी | और आज तो हमारी चाहत ने हमारे चाहने वाले को इतना कमीना बना दिया कि मुझे अपने आप से ही नफरत हो गई | डूब मरने का भी मन किया, लेकिन मेरे भाग्य में ऐसा होना ही नहीं लिखा था | चवन्नी चुप हो गई | कुछ बोल ही नहीं पाई | आगे की कहानी अब मटरू की जुबानी |

हाँ, दादी पर बुढापे का असर बुरी तरह हावी हो चुका था | शुरू में किसी के सहारे और फिर बाद में लकड़ी के सहारे चल कर अपनी जगह तलाश ही लेती थी | परिवार में सब ले दे के एक पोती ही तो बची थी | बाकी  सब हैजे को भेंट चढ़ चुके थे | घर के नाम पर एक कच्ची कोठरी थी | पोती जब स्कूल चली जाती तो वह बाज़ार से मौसम के हिसाब से जामुन, बेर, आम का अमावट, अमरुद जैसे फलों को खरीद कर एक स्कूल के सामने बैठ जाती थी | इक्का-दुक्का ग्राहकों के अतिरिक्त कोई ख़ास खरीदार नहीं आते थे | बस स्कूल में रिसेस कब हो, इसका इंतजार करती रहती थी | आम, और महुआ के पत्ते बगल की पोटली में तैयार रखे रहते थे | एक पत्ते पर कितने बेर रखने हैं, वह सब हिसाब पहले से ही तैयार होता था |

समय के मुताबिक स्कूल में रिसेस हुआ | बच्चों का रेला गेट से बाहर निकला | आज पत्तों पर पांच-पांच बेर रखे हुए हैं | पांच-पांच पैसों की बौछार होने लगी | दादी की पोटली सिक्कों से भरने लगी, और देखते ही देखते सभी बेर खल्लास | दादी संतुष्ट, और बच्चों का क्या, उन्हें संतुष्ट होने में कितना वक़्त लगता है | दादी और बच्चों का यह रोज का खेल था | दादी के लिए दृष्टि बाधित होना कभी-कभी बच्चों के लिए परेशानी का कारण बन जाती थी | अक्सर बच्चे पांच पैसे की चीज के लिए पांच पैसे फुटकर ही देते थे, लेकिन हमेशा ही ऐसा हो इसकी कोई गारंटी नहीं थी | सिक्कों की पहचान करना दादी बखूबी जानती थी | सभी सिक्कों की गोलाई टटोल कर वह उसे पहचान लेती थी | अठन्नी हो या चवन्नी, पांच पैसे का सिक्का हो या दस पैसे का, हाथ में रखा नहीं कि दादी तुरंत उसका मूल्य समझ जाती थी | ज्यादातर बच्चों के पास पांच या दस पैसे के ही सिक्के होते थे, पर कभी-कभी कुछ बच्चे चवन्नी भी ले आते थे | अठन्नी का सिक्का तो बिरले ही बच्चों के पास और वह भी यदा-कदा ही दिखता था | चवन्नी का गोल होना उसकी ख़ास खासियत थी, और वही उसकी पहचान भी |

कहते हैं न कि एक मछली पूरे तालाब को गन्दा कर देती है | ठीक इसी तरह स्कूल में एक काफी सयाना बच्चा था | दादी की इन गतिविधियों से वह पूरी तरह वाकिब था | आप कहेंगे कि अरे इस सयाने का कुछ नाम भी तो होगा, तो मैं जरूर कहूँगा कि हाँ क्यों नहीं नाम तो था पर नाम का क्या? राम या कृष्ण नाम रखने से कोई राम या कृष्ण तो नहीं हो जाता ! तो चालिए इस सयाने का नाम ही ‘सयाना’ रख देते हैं | सयाना भी कभी-कभी पांच पैसा खर्च कर देता था, और जिस दिन उसने बेर या अमरुद खा लिए, पूरी क्लास को उसका यह गुणगान सुनना पड़ता था | क्लास के बच्चों में गुटबंदी करा देना, झगड़े लगा देना उसके अत्यंत प्रिय खेल थे | मजे की बात तो उस समय होती थी जब वह अपने इन गुणों का बखान स्कूल के बाद अपने संगी-साथियों से मजे ले कर किया करता था |  

‘सयाने’ के मस्तिष्क में कुछ दिनों से ‘कुछ’ चल रहा था | उसने एक जुगत निकाली | जुगत चाहे जैसी हो, मेहनत तो करनी ही पड़ती है | उसने (वजन वाले)पांच पैसे का एक सिक्का लिया और उसे घिसना शुरू किया और इतनी सफाई से घिसा कि पांच पैसे का चौकोर सिक्का चवन्नी माफिक वृत्ताकार गोलाई के रूप में निखर गया | एकदम चिकना, खुरदरेपन का नामो निशान तक नहीं | आँख बंद कर खुद भी अपनी उँगलियों को कई बार फिराने के बाद ही घिसाई के  काम को अंजाम देता था | काश, इतनी मेहनत कभी अपनी पढाई पर करता !

आज रिसेस न जाने कब का समाप्त हो चुका था | सयाने का कहीं अता-पता नहीं था | वैसे भी क्लास मिस करना उसके लिए कोई नई बात नहीं थी | सयाना घात लगाए दादी को डसने के लिए अवसर का इंतजार कर रहा था | दादी को अब यकीन हो चला था कि अब कोई गिराहक नहीं आएगा और वह अपना ताम-झाम समेटने में व्यस्त थी | तभी सयाने का आक्रमण हुआ |

“दादी, अभी तो बहुत बेर बची है, अभी क्यों जा रही हो?”, सयाने ने बड़े ही आदर भाव से पूछा |
“का करूँ बेटवा, अब तो केहू नाहीं आवत बा | बिटिया घर पर अकेले है”, दादी ने भी उसी भाव से जबाब दे दिया |  
“अच्छा तो हमहूँ के पांच पैसा क बेर देइ द, जात-जवावत”, सयाने ने वही मेहनत वाली चवन्नी हलके से दादी की हथेली पर रखते हुए कहा |

दादी ने बड़े चाव से महुए के पत्ते पर पांच के बजाय छह बेर रखे और सयाने को थमा दिया | पांच-पांच पैसे के चार सिक्के वापस किया और सामान उठा कर घर की तरफ चल दी | सयाने ने बेर खाई और परम सुख को प्राप्त हुआ | बीस पैसे मुफ्तखोरी के ऊपर से मिल गए | सयाना अपने आप को धन्य मानते हुए, अपनी अकल की दाद देते हुए ख़ुशी-ख़ुशी अकेले ही घर की तरफ रवाना हो गया |

सयाने का मनोबल सातवें आसमान पर था | पर वह सावधान था | जोश में होश खोने का यह वक़्त नहीं था | अब रोज-रोज यह कारनामा तो कर नहीं सकता था, इसलिए अपना समय मुफ्त में मिले पांच पैसे के सिक्कों को चवन्नी बनाने में लगाने लगा | जल्दी ही कई चवन्नियां उसके स्टॉक में जमा हो गईं | तीन चवन्नी चल चुकने के बाद उसके सब्र का बांध टूटने लगा | आखिर कब तक अपनी होशियारी से खुद ही खुश होता रहता | औरों से तारीफ़ मिलने की चाह किसे नहीं होती? सयाना भी मजे लेकर अपने कारनामे अपने साथियों को बताने लगा |

जल्दी ही स्कूल में उसके इन सद्गुणों का डंका पिट गया | दादी को तो इसका पता भी नहीं चलता अगर वह सौदा खरीदने बाज़ार नहीं जाती | लाठी के सहारे चल कर दादी आखिरकार  स्कूल में दाखिल हो गई | किसी का दाखिला कराने नहीं, स्कूल को आईना दिखाने | दादी की आँखों से अश्रु धारा बह रही थी | पहली बार लोगों ने अंधी आँखों को रोते हुए देखा था | विद्यालय नतमस्तक था | छात्र हैरान थे | विद्यालय प्रशासन दो दिन तक खामोश था | सयाने को कोई खबर नहीं थी | तीसरे दिन शनिवार को सभी कक्षाओं में एक नोटिस घुमाई गई | शाम के वक़्त चार बजे सभी छात्र विद्यालय के प्रांगण में एकत्र हो गए | ऐसा लग रहा था जैसे कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन होने वाला है | सयाने को सबके सामने बुलाया गया | ‘शारीरिक व्यायाम’ के प्रशिक्षक ने सबके सामने सयाने के कारनामों का गुणगान किया | अध्यापकों और छात्रों ने तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत किया |

‘शारीरिक व्यायाम’ प्रशिक्षक ने सयाने के गले में फूल-माला पहनाई | एक खाली पड़ी कुर्सी पर रखे बेंत को उठाया और दनादन सयाने पर बरसाने लगे | सयाना माई-बाप चिल्लाता रहा | ‘पांच पैसे की चवन्नी’ बनाते हो, कहते रहे और बेंत बरसाते रहे | किसी ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया | मजबूत बेंत के दो टुकड़े हो गए | सभी छात्र अवाक् थे | सयाना जमीन पर पड़ा हुआ था | स्कूल की छुट्टी की घंटी बज गई | बच्चे अपने अपने बस्ते लिए और विद्यालय गेट से निकलने लगे | बिलकुल शांत, कोई कोलाहल नहीं | कुछ बच्चे सयाने को घेर कर खड़े थे | एक ने उसका बस्ता पकड़ाया और उसके गाँव के बच्चे उसके साथ अपने घरों के लिए रवाना हो गए | थोड़ी देर मौन चलने के बाद बच्चे आपस में बात करने लगे | सयाना भी शरीक हो गया, बेशर्मी की हंसी चेहरे पर लिए | ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे कुछ हुआ ही न हो |

निर्लज्जता की भी कोई हद होती है, पर सयाने के लिए यह बिलकुल बेमतलब था | ‘मार-मार हिकना, मैं जितना का तितना’ यह कहावत शायद सयाने के लिए ही बनी होगी | कहते हैं कि सात ठग मरते हैं तो एक कमीना पैदा होता है, लेकिन यहाँ तो यह कहावत भी इंसाफ करती नहीं दिखती |
सयाने का तो कुछ नहीं बिगड़ा, चवन्नी ही कमीनी हो गई |

Friday, 1 May 2020

एक प्रार्थना




प्रार्थना 


बात करके तो अच्छा लगता है
पर सुन कर बेहद दुःख होता है
वेदना होती है, अहसास होता है
पर मजबूरी की कसक होती है |

मजबूरी जो दिलासा न दिला सके
सांत्वना के दो शब्द भी कैसे बोले
गुजरे दिनों की तस्वीर  कैसे देखे
 मन में उठी हलचल को कैसे रोके |

इस निर्मम भविष्य को क्या कहें
विवश हैं कि कैसे रोकें कैसे टोकें
तन का जख्म मन को झकझोरे
 तो उसे क्या कहें उसे कैसे देखें |

चुपचाप सहना भी मुश्किल है
  यह क्या किसी सेवा से कम है?
जब दिल की बात मन में दबे
 तो बिन कहे भी गूँज होती है |

बेबस तो है पर इतना भी नहीं
कि विश्वास है प्रार्थना की डोर
उस तक पहुँचेगी ही सीधे बेरोक
   जहाँ प्रभु हाथों में लगाम की छोर |

मन के भाव जो रुक न सके: डॉ भारती अग्रवाल की बीमारी के विषय में जानने  के पश्चात्








संतुलन



संतुलन

                                                                                         -डॉ राय साहेब पाण्डेय
रात है ढलने वाली, जागने का वक़्त हो गया,
पर अब जग के भी क्या,
कोई सुनने वाला नहीं हमारा कलरव,
गायब हैं सड़कों पर चलने वाले,
लुप्त हैं पेड़ों के नीचे भी बैठने वाले,
यह कैसी बयार? जो जा रही व्यर्थ है|

अभी कुछ दिन पहले की ही तो बात थी-
चारों तरफ थी चहल-पहल,
इन आदमियों का भी न?
कुछ चलता नहीं पता,
कब क्या करते हैं ?            
लगता है कुछ तो बुरा हाल है |

एक कौए ने दूसरे से कहा –
अब हमारी पंचायत भी,
देखने-सुनने वाला है नहीं कोई,
कुछ दिन पहले हम इनकी शोरगुल से थे,
और अब हैं परेशान बिना शोरगुल के |

कुछ चिड़ियों ने सोचा,
शायद अब ये मनुष्य रात के वक़्त निकलते होंगे,
पर सूरज ढलने के पहले ही अब शाम होती है,
और रातें? वह तो अब पहले ही घिर आती हैं |

सुदूर आसमानों  में उड़ने वाले पक्षी भी,
अब हैरान हैं, परेशान हैं,
अब किस से स्पर्धा करते
ऊपर भी कोई शोरगुल नहीं,
नीचे भी सुनसान है,
और कहीं-कहीं तो बस शमशान है |

कुछ के दिमाग की बत्ती में आग लगी,
वह जल उठा,
अपनों से मुलाक़ात करने को मचल उठा,
जो दूर जंगलों में बसेरा डाल चुके थे,
भाई-चारा ही सही, अपनों के संग,
मिल-बैठने और दुख-दर्द बांटने का अवसर,
आखिर मुश्किल से नसीब हुआ था |

कुछ ने न्योता भी दे दिया,
अपने घोसलों को जो उजड़ गए थे,
सुधारेंगे, नया बनायेंगे,
बिना रोक-टोक फिर से,
बसायेंगे अपना घर और बसेरा |

हमने तो अब तक बबूल पर घोंसले बनाये हैं,
डालियों से लटके, हवा में लहराते हुए,
हमेशा खौफ में कि आँधियों ने
हमारे चूजों का क्या हाल किया होगा?
इंसानों के पत्थरों ने घायल तो नहीं किया होगा?

बबूल के काँटों से चलते हैं दूर,
पीपल की हरी-भरी पत्तियों के बीच,
अब बेख़ौफ़ एक नया बसेरा बनाने,
लेकिन यह क्या ?
अब मेरे चूजों को कोई डर नहीं,
क्योंकि इंसान बेबस है अकेला,
पीपलों के तने से लिपट कर,
आँसुओं से सराबोर, लाठी को छोड़,
एक वृद्ध निहारता है एकटक घोंसले को |  

काल का गाल कभी सूक्ष्म, तो कभी विशाल,
कभी करता आहत तो कभी लेता संभाल,
कैसी है दुविधा? जो देता हमें जीवन,
जो छीन भी लेता है हमसे जीवन,
उसे ही कहते हैं हम निर्जीव?

दौर आता है, तो दौर जाता भी है,
हम लड़ें या फिर  रहें खामोश खड़े,
काल के चक्र में पिसते-पिसाते,
कभी डगमगाते, कभी लड़खडाते,
खड़े रहेंगे, एक-एक कदम ही सही,
फिर चलेंगे और फिर दौड़ेगे भी |

Tuesday, 10 March 2020

फितरत



फितरत 

-राय साहब पाण्डेय 
जब भी किसी ने चाहा ,
मुट्ठी या बाहों में भर लिया,
आसमां को देखा किसी ने,
कभी कोई गिला किया ?

  
जब भी किसी ने चाहा ,
तोड़ लिया या जमीं पे गिरा दिया,
सितारों की बात अलहदा ,
ग़मगीन क्या कभी  हुआ ?

अंगारे तो तपिश देते हैं,
खुद की हस्तियाँ मिटा-मिटा,
पर बेखबर इस आंच से ,
आशियाना भी खाक हो गया |

पानी-हवा  निर्बाध बहते,
सीमाओं की परवा किए वगैर ,
हम खुद ही बेगैरत इतने,
कि इसमें भी जहर मिला दिया |




धरती को खुद का आसमां,
कब से बोझ लगने लगा ?
इंसान की फितरत है कि ,
धरती को बोझ बना दिया |


Wednesday, 4 March 2020

ईश्वर-अल्लाह की हार



 ईश्वर-अल्लाह की हार 
-डॉ  राय साहब पाण्डेय
रूह काँप उठेंगी, 
आने वाली नस्लें जब पूछेंगी,
स्वर्गों-नरकों में भी,
क्या चैन तुम्हें मिल पायेगा ?

करते हो  अपमान धरम का,
अपनी दंगाई  करतूतों से,
सह सकोगे भार जमीरों पर,
क्या जिन्दा-मुर्दा लाशों का ?

शान्ति-अमन का मार्ग छोड़,
निर्दोषों की बली चढाते,
अपनों को खोने वालों के,
आँसू के मोल चुकाओगे ?

कुछ भी हासिल कर न सकोगे,
बस दंगाई बन रह जाओगे ,
राज करोगे कब तक आखिर, 
उन्मादों के हथियारों से |  

विश्वास-प्रेम के बंधन का,
मोल अगर ना समझ सके,
लानत है इस पैदाइश  की ,
तुलसी-कबीर की धरती पर |

क्या खोया उन लोगों ने,
जो जहाँ छोड़ कर चले गये,
तुम भी कवलित हो जाओगे, 
खुद सर्वनाश  अपना कर के |

तुम समझो तुम तो जीत गए, 
वो समझें  वो भी जीत गए ,
भूल गए हो आखिर दोनों, 
ईश्वर- अल्लाह क्यों हार गए ?

Thursday, 20 February 2020

अस्त-पस्त


अस्त-पस्त जिंदगी
-राय साहब पाण्डेय 

आँखों से ओझल हुए को अस्त कहते हम,
थक कर के हारे हुए को पस्त कहते हम |

रात-दिन के चक्कर चलाती धरती है ,
बेवजह  बदनाम करते  सूरज को हम ?

किसने कहा कि पस्त हो कर बैठ जाओ, 
सुस्ता कर थोड़ी देर फिर चलने से रोका कौन ?

अस्त-पस्त के भँवर में फसने को बोला कौन,
मन के  नाव पर सवार पतवार थामे कौन ?

कोई दिखे या खुद दिखो बस उलझनों का फेर,
इन  उलझनों को बेवजह सुलझाने को बोला कौन?

नियति की इस डोर से बंधने में लुत्फ़ है,
वरना  त्रिशंकु बन के यहाँ खुश भी रहता कौन?

ज़िद की गाँठ बाँध क्यों खुद को जकड़ लिया ?
खुशियों का दरिया छोड़ भला गम पकड़ता कौन ?




Thursday, 13 February 2020

बनारस दिल से (2)





बनारस दिल से (2) - घाट
-    राय साहब पाण्डेय




घाट पर बैठा ही था कि
एक नाई भाई आ गए,
बाबू जी तेल-मालिश चलेगा, सस्ते में,
मैंने पूछ लिया - निपटा दोगे ?
नाई बोला- क्या बाबू जी !
फिर हल्के से मुस्कुराया,
वह भी और मैं भी,
फिर दोनों चल दिए,
वह अपनी राह और मैं अपनी राह हो लिए |

आगे बढ़ा- एक पंडित जी मिले,
मुझसे नहीं, एक और पंडित जी से,
लड़ते हुए ग्राहकों के लिए,
एक दूसरे पर गुर्राते हुए,
लाल गमछे से कंधों को रगड़ते,
और जनेऊ उछालते हुए,
ग्राहक को आगे कर पंडित जी ने
जाते-जाते मुड़ कर देखा पीछे,
एक दूसरे पर मुस्कुराते हुए,
फिर राह पर अपने-अपने हो लिए |


नाव के पास तिलक वाले बाबू जी आये,
लुंगी लगाए, दिया जलाए,
खुद से नहीं दियावाले से ही जलवाए,
पुण्य में उसको भी भागीदार बनाए,
गंगा जल छिड़का उस पर, खुद पर और हम पर |
जाते-जाते मुस्कुराहटें भी खिल गईं ,
हाथ भी उठे हम अनजानों के,
फिर वह अपनी राह और हम
अपनी राह हो लिए  |

लुंगी वाले आए, टोपी लगाए,
गंगा जल से मुँह धुला, आचमन किया,
फिर जेब से यह क्या निकाला ?
जल भरी पॉलिथीन की पन्नियों में,
मुक्ति को तैयार, तैरती सिधरियाँ !
मन्नतें भी पूर्ण होंगी, आज यह पता चला,
बात की बात में दर्द भी इंसान का
छलक पड़ा,
बुरा न मानो भाई तो क्या कुछ पूछ लूं ?
कौन सी मन्नत छिपी उर आप के ?
नज़रों से नज़रें मिलीं, चार नहीं एक हुईं,
फिर दिल मिले, होठों पे मुस्कुराहटें खिलीं,
प्यार का प्रवाह ही होता रहे जल धार में,
है यही अपनी तमन्ना इंसानियत आबाद रहे |

हमने देखा – उसने देखा,
कनखियों की डोर से,
नम हो गईं आँखे, मुस्कुराहटें गायब हुईं,
फिर वह अपनी राह,
और हम अपनी राह हो लिए |